1992 की रिहाई नीति सुप्रीम से अमान्य हो चुकी है, फिर किस कानून से रिहा हुए बिल्किस बानो के रेपिस्ट?

क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि वर्ष 1992 के जिस प्रावधान को उच्चतम न्यायालय ने वर्ष 2012 में रद्द कर दिया हो उस प्रावधान के तहत उच्चतम न्यायालय की एक पीठ मई 2022 में एक जनरल आदेश पारित करे कि इस प्रावधान के आलोक में 2 महीने में सजायाफ्ता की समय पूर्व रिहाई का निर्णय लिया जाए। यही नहीं वर्ष 2012 में इस प्रावधान के रद्द होने के आधार पर संबंधित राज्य सरकार वर्ष 2013 में इस प्रावधान को रद्द कर चुकी हो, इसके बावजूद वर्ष 2022 में इसी प्रावधान के तहत गुजरात दंगों में हत्या, बलात्कार के 11 सजायाफ्ता दोषियों को रिहा कर दे नहीं न! लेकिन वास्तव में ऐसा गुजरात में हुआ है, जब वर्ष 2002 के गुजरात दंगों के दौरान बिल्किस बानो गैंगरेप और उनके परिवार के सात सदस्यों की हत्या के लिए उम्र कैद के सभी 11 दोषियों की रिहाई ने न केवल केंद्र और गुजरात सरकार को मुश्किल में डाल दिया है बल्कि गुजरात हाईकोर्ट और उच्चतम न्यायालय की न्यायिक शुचिता पर भी सवाल खड़ा कर दिया है।

दरअसल बिल्किस बानो गैंगरेप और उनके परिवार के सात सदस्यों की हत्या के लिए उम्रकैद के सभी 11 दोषियों की रिहाई वर्ष 1992 की छूट नीति के तहत की गयी उसे वर्ष 2012 में उच्चतम न्यायालय ने  रद्द कर दिया था और तदनुसार गुजरात सरकार ने 1992 की रिहाई नीति को 8 मई, 2013 को ही समाप्त कर दिया था। फिर इसके तहत न तो उच्चतम न्यायालय का 22 मई का आदेश वैध था न ही गुजरात सरकार द्वारा इनकी रिहाई का आदेश ही कहीं से वैध है।

बिल्किस बानो गैंगरेप और हत्या के मामले में 2008 में मुंबई की एक विशेष अदालत ने 11 आरोपियों को उम्र कैद की सजा सुनाई थी। बाद में बॉम्बे हाईकोर्ट ने इसे बरकरार रखा। इस साल की शुरुआत में, दोषियों में से एक ने आपराधिक प्रक्रिया संहिता के तहत वर्ष 92 की नीति के तहत समय से पहले रिहाई की गुहार लगाते हुए अदालत का दरवाजा खटखटाया। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि गुजरात सरकार से दो महीने के अंदर फैसला लेने को कहा था।13 मई, 2022 के एक आदेश में, उच्चतम न्यायालय के जस्टिस अजय रस्तोगी और जस्टिस विक्रम नाथ की पीठ ने गुजरात सरकार को राज्य की 1992 की छूट नीति के अनुसार, दो महीने की अवधि के भीतर समय से पहले रिहाई के लिए शाह के आवेदन पर विचार करने के लिए कहा। उच्चतम न्यायालय ने पता नहीं क्यों उस तथ्य का संज्ञान नहीं लिया कि वर्ष 92 की नीति को उच्चतम न्यायालय वर्ष 2012 में ही अमान्य कर चुका है ।

पीठ ने यह भी कहा कि छूट या समय से पहले रिहाई जैसे सवालों पर निर्णय लेने के लिए गुजरात उपयुक्त सरकार है क्योंकि यह वहां था कि अपराध किया गया था, न कि वह राज्य जहां मुकदमे को स्थानांतरित किया गया था और इस न्यायालय के आदेशों के तहत असाधारण कारणों से समाप्त हुआ था।

दरअसल गुजरात में बिल्किस बानो को जान से मारने की धमकी मिलने के बाद उच्चतम न्यायालय ने मुकदमे को महाराष्ट्र स्थानांतरित कर दिया था। राधेश्याम शाह ने 1992 की नीति के तहत समय से पहले रिहाई के लिए उनके आवेदन पर विचार करने के लिए गुजरात सरकार को निर्देश देने के लिए एक रिट याचिका के माध्यम से सुप्रीम कोर्ट का रुख किया था। उन्होंने तर्क दिया कि गुजरात एचसी ने 17 जुलाई, 2019 को इस आधार पर उनकी प्रार्थना को खारिज कर दिया था कि चूंकि महाराष्ट्र में मुकदमा समाप्त हो गया था, इसलिए समय से पहले रिहाई के लिए आवेदन महाराष्ट्र में भी दायर किया जाना चाहिए, न कि गुजरात में।

छूट नीति जिसे 1992 में अधिसूचित किया गया था और जो अपराध और दोष सिद्धि के समय लागू थी, कैदियों को इस आधार पर कि आजीवन कारावास बीस साल की कैद का एक मनमाना या काल्पनिक आंकड़ा है के आधार पर छूट के लिए आवेदन करने की अनुमति देती थी ।लेकिन इसे नवंबर 2012 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा अमान्य कर दिया गया था। सुप्रीम कोर्ट  ने कहा था कि वास्तव में सीआरपीसी की धारा 432 के तहत छूट की शक्ति का प्रयोग करने से पहले उपयुक्त सरकार को दोषी या पुष्टि करने वाले न्यायालय के पीठासीन न्यायाधीश की राय (कारणों के साथ) प्राप्त करनी चाहिए। इसलिए, छूट केवल मामला-दर-मामला आधार पर दी जा सकती है, थोक तरीके से नहीं।

केंद्रीय गृह मंत्रालय द्वारा सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को बाद में जारी किए गए सुप्रीम कोर्ट के आदेश और निर्देशों के बाद, गुजरात सरकार ने 2014 में एक नई नीति तैयार की। इसमें एक अनुलग्नक सूची के मामले शामिल थे जहां छूट नहीं दी जा सकती थी – उनमें से वे थे जिनमें कैदियों को दिल्ली विशेष पुलिस स्थापना अधिनियम (सीबीआई, जो बिल्किस मामले में जांच एजेंसी में था) के तहत एक एजेंसी द्वारा जांच की गई अपराध के लिए दोषी ठहराया गया था, और कैदियों को बलात्कार या सामूहिक बलात्कार के साथ हत्या के लिए दोषी ठहराया गया था।

दरअसल बिल्किस बानो सामूहिक दुष्कर्म मामले और उनके परिवार के सात सदस्यों की हत्या के सभी 11 दोषियों को गुजरात सरकार ने अपनी माफी नीति के तहत रिहा कर दिया है। सभी 11 दोषी 15 अगस्त (सोमवार) को गोधरा उप-जेल से बाहर आ गए। जहां उनका स्वागत आरती उतार कर और तिलक लगा कर किया गया। अब राज्य सरकार के इस फैसले पर सवाल उठ रहे हैं। गौरतलब है कि इस साल जून में केंद्र सरकार ने सजायाफ्ता कैदियों के लिए विशेष रिहाई नीति का प्रस्ताव रखा था और इसके लिए राज्यों को दिशा-निर्देश जारी किए थे। दिशानिर्देशों में स्पष्ट रूप से उल्लेख किया गया था कि बलात्कार के दोषी उन लोगों में से हैं जिन्हें इस नीति के तहत विशेष रिहाई नहीं दी जानी है। गुजरात सरकार का फैसला बलात्कार के दोषियों को रिहा करने के केंद्र के विरोध के खिलाफ जाता है।

केंद्र और गुजरात में बीजेपी की सरकारें हैं। इस मुद्दे को लेकर कांग्रेस केंद्र सरकार पर हमलावर है। कांग्रेस नेता लगातार केंद्र सरकार पर निशाना साध रहे हैं। कांग्रेस प्रवक्ता पवन खेड़ा ने गुजरात सरकार और पीएम मोदी से कई सवाल किए हैं। पवन खेड़ा ने गुजरात सरकार पर देश को गुमराह करने के आरोप लगाते हुए कहा कि राज्य सरकार ने जिस दावे के तहत दोषियों को रिहाई की है वो सरासर गलत और झूठ है। उन्होंने कहा कि सुप्रीम कोर्ट ने दो महीने के अंदर उस पर गुजरात सरकार से फैसला लेने के लिए कहा था। कोर्ट ने खुद कोई निर्णय नहीं दिया है।

कांग्रेस प्रवक्ता ने कहा कि गुजरात सरकार जिस क्षमा दान और रिहाई नीति के तहत इन दोषियों को रिहा करने का दावा कर रही है, वो भी झूठ और गलत है। क्योंकि गुजरात सरकार ने इस नीति को तो बहुत पहले ही खत्म कर दिया है। पवन खेड़ा ने दावा किया कि 1992 की रिहाई नीति को गुजरात सरकार 8 मई, 2013 को ही समाप्त कर चुकी है। फिर गुजरात सरकार ने उस नीति के तहत किसी को कैसे क्षमादान दे सकती है?

पवन खेड़ा के अनुसार  जब कोई केंद्रीय जांच एजेंसी किसी मामले की जांच करती है तो ऐसे मामलों में रिहाई का फैसला अकेले राज्य सरकार नहीं कर सकती। राज्य सरकार को केंद्र सरकार से अनुमित लेनी होती है, फिर गुजरात सरकार ने इन्हें कैसे रिहा किया। उन्होंने पीएम मोदी और गृहमंत्री अमित शाह से सवाल किया कि क्या गुजरात सरकार ने इन 11 रेपिस्टों और हत्यारों को रिहा करने से पहले आपसे अनुमति ली थी? अगर हां तो इसे सार्वजनिक किया जाए ताकि पीएम मोदी की सच्चाई लोगों के सामने आ सके। उन्होंने आगे कहा कि अगर अनुमति नहीं दी गई थी तो पीएम बताएं कि गुजरात के सीएम के खिलाफ आप क्या एक्शन लेने वाले हैं।

2002 में गुजरात में दंगा भड़का था। इसी दौरान बिल्किस बानो के साथ गैंगरेप किया गया था। उस वक्त बिल्किस बानो की उम्र 21 साल थी और वह पांच महीने की गर्भवती थीं। 3 मार्च, 2002 को हुए इस घटना के दौरान उनके परिवार के 7 सदस्यों की हत्या भी कर दी गई थी।15 अगस्त, 2022 के दिन जब पूरा देश आजादी का अमृत महोत्सव मना रहा था, उस दिन 2002 के गुजरात दंगों में गैंगरेप की पीड़ित बिल्किस बानो वह जंग हार गईं जिसे उन्होंने लंबी लड़ाई के बाद जीता था।15 अगस्त को गुजरात सरकार ने 2002 के बिल्किस बानो गैंगरेप मामले में 11 दोषियों को सजा की माफी दे दी और समय से पहले रिहाई नीति के तहत रिहा कर दिया।

अब या तो उच्चतम न्यायालय स्वयं इसका संज्ञान ले या फिर भारतीय संविधान के अनुच्छेद 136 के तहत बिल्किस बानो अपने वकील के जरिए इस आदेश को चुनौती दे सकती हैं। अनुच्छेद 136 के मुताबिक सुप्रीम कोर्ट अपने विवेकानुसार देश के किसी भी कोर्ट द्वारा किसी आदेश या निर्णय के खिलाफ अपील करने की विशेष अनुमति देता है।

दाहोद जिले के लिमखेड़ा तालुका में 3 मार्च 2002 को भीड़ ने बिल्किस के साथ सामूहिक बलात्कार किया और उनकी तीन साल की बेटी सालेहा समेत 14 रिश्तेदारों की हत्या कर दी गई। तब गुजरात गोधरा में ट्रेन में लगी आग में हिंदू कारसेवकों की मौत के बाद दंगों की आग में जल रहा था। बिल्किस बानो जान बचाने के लिये अपने परिवार और रिश्तेदार के साथ अपने गांव से भाग रही थीं तब पूरा परिवार उग्र भीड़ के हत्थे चढ़ गया। 21 साल की बिल्किस बानो पांच महीने की गर्भवती थीं जब उनके साथ 11 लोगों ने बलात्कार किया।

बिल्किस के राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग से संपर्क करने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने मामले में दखल दिया था। इस दौरान बिल्किस को जान से मारने की धमकी मिलती रही। इसके बाद सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर मुकदमे को गुजरात से बाहर महाराष्ट्र ट्रांसफर कर दिया गया। सीबीआई की विशेष अदालत के फैसले को बॉम्बे हाईकोर्ट ने 2017 में बरकरार रखा और 2019 में सुप्रीम कोर्ट ने बिल्किस को 50 लाख रुपये का मुआवजा भी देने का आदेश दिया।

(वरिष्ठ पत्रकार जेपी सिंह की रिपोर्ट।)

जेपी सिंह
Published by
जेपी सिंह