बहुजन आंदोलन की प्रतिनिधि इतिहासकार थीं गेल ओमवेट

गेल ओमवेट भारत के, विशेषकर आधुनिक भारत के बहुजन आंदोलन की एक प्रतिनिधि इतिहासकार थीं। मेरा आधुनिक बहुजन आंदोलन से अर्थ ज्योतिराव फुले ( 11 अप्रैल 1827-28 नवंबर 1890) से लेकर डॉ. आंबेडकर ( 14 अप्रैल 1891-6 दिसंबर 1956) के नेतृत्व में चले बहुजनों ( पिछड़े-दलितों) के मुक्ति के आंदोलन से है, जिसका नेतृत्व शूद्र या अतिशूद्र कही जाने वाली वर्ण-जाति में पैदा हुए नायक कर रहे थे। जो मुख्यत: ब्राह्मणवाद ( भारत में ब्राह्मणवाद ही सामंतवाद है) से मुक्ति का आंदोलन था। जैसे गांवों की तथाकथित उच्च जातियां दक्खिन टोले को हेय या उपेक्षित दृष्टि से देखती हैं, वैसे ही आधुनिक भारत के इतिहाकार आधुनिक बहुजन आंदोलन और उसके नायकों को देखते थे। ऐसा करने वालों में दक्षिणपंथी और उदारपंथी (राष्ट्रवादी) इतिहासकारों के साथ भारतीय वामपंथी इतिहासकार भी शामिल थे।

आधुनिक भारत के सबसे प्रतिष्ठित इतिहासकार सुमित सरकार की सबसे मान्य और चर्चित किताब ‘आधुनिक भारत (1885-1947) भी इसमें शामिल है। वामपंथी इतिहासकारों में और अधिक वामपंथी माने जाने वाले अयोध्या सिंह ने तो अपनी किताब ‘भारत का मुक्तिसंग्राम’ में तो डॉ. आंबेडकर के नेतृत्व में चले दलित आंदोलन को जी भरकर गालियां दी हैं, यहां तक कि डॉ. आंबेडकर पर व्यक्तिगत तौर पर हमला करते हुए, वह सबसे भद्दी गाली दी है, जिसे पढ़कर किसी भी न्याय प्रिय व्यक्ति का खून खौल जाए। जहां सुमित सरकार ने बहुजन आंदोलन की उपेक्षा किया, वहीं अयोध्या सिंह ने उसे गालियां दीं। हां बाद में शेखर बंद्योपाध्याय ने अपनी किताब ‘पलासी से विभाजन तक-आधुनिक भारत का इतिहास’ में बहुजन आंदोलन को कुछ हद जगह दी, लेकिन यह जगह हाशिए की ही जगह है।

गेल ओमवेट पहली इतिहासकार थीं, जिन्होंने अपने इतिहास के केंद्र में आधुनिक बहुजन आंदोलन को रखा। इतिहास की विडंबना देखिए बहुजन आंदोलन का प्रतिनिधि इतिहाकार कोई भारतीय नहीं हुआ, बल्कि संयुक्त राज्य अमेरिका में पैदा हुई एक महिला हुईं। यह संयोग नहीं है, इसका ठोस कारण है। वह ठोस कारण यह है कि भारत के जितने नामी-गिरामी आधुनिक भारत के इतिहासकार हुए, वे तथाकथित अपरकास्ट और अपर क्लास के थे। उनकी सामाजिक-आर्थिक, विशेषकर सामाजिक पृष्ठभूमि ने उन्हें गांधी या क्रांतिकारियों के नेतृत्व में चल रहे ब्रिटिश सत्ता से मुक्ति के संघर्ष के समानांतर चल रहे, ब्राह्मणवाद (भारतीय सामंतवाद) से मुक्ति के आंदोलन को, क्रांतिकारी या प्रगतिशील आंदोलन मानने ही नहीं दिया, बल्कि उसे ब्रिटिश सत्ता द्वारा पोषित उपनिवेशवाद परस्त आंदोलन ठहरा दिया या उस पर चुप्पी लगा ली।

वे डॉ. आंबेडकर की यह बात समझ ही नहीं पाए कि भारत का तथाकथित अपरकास्ट ब्रिटिश सत्ता का गुलाम है और अंग्रेजों से अपनी आजादी के लिए लड़ रहा है, लेकिन दलित-बहुजन इसी अपरकास्ट के गुलाम हैं यानि गुलामों के गुलाम हैं और ब्रिटिश सत्ता के गुलाम अपरकास्ट अपनी आजादी तो चाहते हैं, लेकिन वे अपने गुलामों ( शूद्र, अतिशूद्र और महिलाओं) को किसी भी सूरत में आजादी नहीं देना चाहते हैं। गेल ओमवेट ने गुलामों के गुलाम समुदाय (बहुजनों) के संघर्षों का इतिहास लिखने का बीड़ा उठाया और उसे हर कीमत चुका कर पूरा किया और इस काम में अपनी पूरी जिंदगी खपा दी। मौत से पहले तक वह यही कार्य कर रही थीं।

उनकी पहली किताब ‘कल्चरल रिवोल्ट इन कोलोनियल सोसायटी: द नान ब्राह्मण मूंवमेंट इन वेस्टर्न इंडिया’ है। दरअसल उन्होंने इसी विषय पर कैलिफोर्निया स्थित बर्कले विश्वविद्यालय से समाजशास्त्र में पीएच-डी की थी। जो बाद में किताब के रूप में प्रकाशित हुई। एक ओर जहां बंगाल अपरकास्ट-अपर क्लास के नेतृत्व में चले पुनर्जागरण, सुधार आंदोलन या आधुनिकीकरण के आंदोलन का गढ़ था, तो महाराष्ट्र (पश्चिमी भारत) शूद्र-अतिशूद्र कही जानी वाली जातियों के नायक-नायिकाओं के नेतृत्व में चले सुधार, पुनर्जागरण और आधुनिकीकरण का केंद्र था। बंगाल के आंदोलन को डॉ. आंबेडकर ने परिवार सुधार आंदोलन की ठीक ही संज्ञा दी है, जबकि महाराष्ट्र में ज्योतिराव फुले-सावित्रीबाई फुले, शाहू जी महाराज और बाद में डॉ. आंबेडकर के नेतृत्व में चला आंदोलन वर्ण-जाति और पितृसत्ता के खात्मे के खिलाफ एक व्यापक क्रांतिकारी सामाजिक सुधार या पुननर्जागरण का आंदोलन था। गेल ओमवेट ने अपनी पहली किताब (थीसिस) में ज्योतिराव फुले, सावित्रीबाई फुले और बाद में शाहू जी महाराज के नेतृत्व में चले बहुजन आंदोलन और उसके परिणामों एवं प्रभावों का विस्तार से लेखा-जोखा लिया है। यह उनका पहला काम था, जिसमें भावी बहुजन इतिहासकार के बीज छिपे हुए थे, जिस बीज ने बाद में विशाल बरगद का रूप लिया, जिसका नाम गेल ओमवेट था।

बाद में गेल ओमवेट ने भारत को अपना घर बना लिया, महाराष्ट्र के चर्चित एक्टिविस्ट-बुद्धिजीवी भरत पटणकर को अपना जीवन साथी चुना और दोनों ने खुद को एक न्यायपूर्ण भारत के लिए पूरी तरह समर्पित कर दिया। दोनों को यह अच्छी तरह पता था कि उत्पादक और मेहनतकश बहुसंख्यक बहुजनों ( शूद्रों, अतिशूद्रों और महिलाओं, जिसमें बहुजन धार्मिक अल्पसंख्यक भी शामिल हैं) के मुक्ति के बिना एक आधुनिक, समतामूलक, न्यायपूर्ण, बंधुता आधारित भारत का निर्माण नहीं किया जा सकता है, जहां समृद्धि पर सबका समान हक हो। जहां उच्च शिक्षित, प्रखर मेधा और अद्वितीय प्रतिभा के धनी भरत पटणकर ने जमीनी संघर्षों को अपना मुख्य कार्य-क्षेत्र बनाया और अकादमिक दुनिया से खुद को बाहर रखा, वहीं गेल ओमवेट ने बहुजन इतिहास लेखन को अपना मुख्य कार्य-क्षेत्र बनाया। उन्होंने इतनी सारी महत्वपूर्ण किताबें लिखीं, जिसने आधुनिक भारत को देखने-समझने का नजरिया बदल दिया और अपने समकालीन बहुजन आंदोलन को वैचारिक दिशा दी।

अकारण नहीं है, मान्यवर कांशीराम बार-बार अपने लेखन में गेल ओमवेट की बड़े आदर से चर्चा करते हैं, कांशीराम की इतिहास दृष्टि के निर्माण में सबसे निर्णायक भूमिक गेल ओमवेट की रही है, यह बात केवल कांशीराम के संदर्भ में ही लागू नहीं होती है, अधिकांश बहुजन एक्टिविस्ट और बुद्धिजीवियों ने गेल ओमवेट की किताबों, लेखों को पढ़कर और भाषणों को सुनकर अपनी इतिहास दृष्टि का निर्माण किया है।

गेल ओमवेट ने आधुनिक बहुजन इतिहास के वैशिष्ट को रेखांकित करने के लिए कई महत्वपूर्ण किताबें लिखीं, जिनमें ‘दलित और प्रजातांत्रिक क्रांति- उपनिवेशीय भारत में डॉ. आंबेडकर एवं दलित आंदोलन’, और ‘आंबेडर प्रबुद्ध भारत की ओर’ शामिल हैं। जाति के सवाल की जड़ों की तलाश में उन्होंने ‘अंडरस्टैंडिंग कास्ट, फ्राम बुद्धा टू आंबेडकर एडं वियांड’ और ‘ भारत में बौद्ध धम्म, ब्राह्मणवाद और जातिवाद को चुनौती’ लिखी। बहुजन नायकों-चिंतकों के न्यायपूर्ण, समता एवं बंधुता पर आधारित भारत के स्वप्न को रेखांकित करने के लिए उन्होंने ‘सीकिंग बेगमपुरा, द सोशल विजन ऑफ एंटीकास्ट इंटरलेक्टुअल’ जैसी किताब लिखी। गेल की अब तक करीब 25 किताबें प्रकाशित हैं और कई सारी किताबों पर वह अभी काम कर रही थीं। वे जहां एक ओर बहुजनों के लिए निरंतर बौद्धिक संपदा सृजित कर रही थीं, वहीं वह बहुजन एवं श्रमिकों के आंदोलनों में सक्रिय हिस्सेदारी भी करती थीं।

बामसेफ और मान्यवर कांशीराम एवं बहुजन एक्टिविस्टों एवं बुद्धिजीवियों से उनका जीवंत नाता था। वे एक ओर वर्ण-जाति से मुक्त भारत के लिए लिखकर और जमीन पर संघर्ष कर रही थीं,  महिला मुक्ति का प्रश्न उनके लिए उतना अहम था। उस मोर्चे पर भी समान रूप में सक्रिय थीं। उन्होंने अपनी जीवन साथी भरत पटणकर के साथ मिलकर श्रमिक मुक्ति दल भी बनाया। वह विस्थापन के शिकार लोगों के लिए निरंतर संघर्ष करती रहीं। उनका लेखन एवं संघर्ष एक न्यायपूर्ण भारत के लिए था। वे वर्ण-जाति एवं पितृसत्ता के खिलाफ लिखने और संघर्ष करने के साथ ही निरंतर मेहनकशों के संघर्षों में भी हिस्सेदारी करती रहीं।

इतिहास को देखने की उनकी पद्धति मार्क्सवादी थी, स्वाभाविक है कि वह वर्ग के सवाल को कभी दरकिनार नहीं कर सकती थीं, न ही किया। उनके लेखन को पढ़ने वाला कोई भी गंभीर पाठक यह सहज पकड़ सकता है कि कैसे वह मार्क्सवादी इतिहास दृष्टि का उपयोग जाति-वर्ग और पितृसत्ता के रिश्ते को समझने और उसका समाधान खोजने के लिए करती थीं। यहां यह स्पष्ट कर दूं कि मार्क्सवादी इतिहास दृष्टि और भारतीय वामपंथियों की इतिहास दृष्टि एक दूसरे का पर्याय नहीं हैं, भारतीय वामपंथी इतिहास दृष्टि अपरकास्ट की वैचारिक छाया एवं मूल्य बोध से आज तक निकल नहीं पाया, वह यांत्रिक तरीके से वर्ण-जाति और पितृसत्ता के प्रश्न पर सोचता रहा और यूरोप का प्रतिबिंब यहां देखता रहा। गेल ओमवेट ने मार्क्सवादी इतिहास दृष्टि का बखूबी भारत को समझने के लिए इस्तेमाल किया और ज्योतिराव फुले, शाहू जी, डॉ. आंबेडकर, रैदास और बुद्ध की क्रांतिकारी परंपरा को भारत की क्रांतिकारी पंरपरा के रूप में रेखांकित किया। ऐसा वे इसलिए कर पाईं, क्योंकि उनकी आंखों में जातिवादी चश्मा नहीं लगा था और न ही पार्टी लाइन पर लिखने की कोई सांगठिन-वैचारिक मजबूरी  थी। गेल भारत को भारत के भीतर से समझने और इसकी क्रांतिकारी-प्रगतिशील धारा रेखांकित करने की आजीवन कोशिश करती रहीं। उनकी किताबें, लेख और भाषण इसके सबूत हैं।

उनका अकादमिक कैरियर भी शानदार था। वह पुणे विश्वविद्यालय में फुले-आंबेडकर चेयर की हेड रहीं, इंस्टीट्यूट ऑफ एशियन स्टडीज, कोपेनेहेगन में प्रोफेसर रहीं, वह इंदिरा गांधी ओपेने यूनिवर्सिटी के डॉ. आंबेडकर चेयर की अध्यक्ष रहीं, वह नेहरू मेमोरियल म्यूजियम (नई दिल्ली) से भी संबद्ध रहीं। उनका जन्म 2 अगस्त 1941 को मिनिआपोलिस (संयुक्त राज्य अमेरिका) में हुआ था। बाद में उन्होंने भारत की नागरिकता ग्रहण कर लिया। वे सेवानिवृत्ति के बाद महाराष्ट्र के सांगली जिले में स्थित कासेगांव में अपने जीवन साथी भरत पटणकर के साथ रह, रही थीं। 25 अगस्त 2021 को 81 वर्ष की आयु में उनका देहांत हो गया।

भारत, विशेषकर भारत के बहुजन समाज ने एक ऐसी  मेधा को खो दिया, जिसके लिए इतिहास लेखन, समाजशास्त्रीय अध्ययन और अध्यापन दुनिया को न्यायपूर्ण और सबके लिए खूबसूरत बनाने का माध्यम था। ऐसी शख्सियत का न रहना वैसे तो पूरी मानव जाति की क्षति है, लेकिन भारत के बहुजनों ने अपना प्रतिनिधि इतिहाकार खो दिया, जिसने बहुजन चिंतन परंपरा, बहुजन वैचारिकी, बहुजन नायकों, बहुजनों के इतिहास और बहुजनों के स्वप्न से पूरी दुनिया को परिचित कराया। ऐसी महान विदुषी गेल ओमवेट को शत्-शत् नमन। हम आपकी किताबों में आप से रूबरू होते रहेंगे और आप से देखने की साफ दृष्टि और जनपक्षधर संवेदना ग्रहण करते रहेंगे और आपकी तथ्य के प्रति, सत्य के प्रति और न्याय के प्रति प्रतिबद्धता को अपने लिए रोशनी की तरह उपयोग करेंगे।

(डॉ. सिद्धार्थ जनचौक के सलाहकार संपादक हैं।)

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