आरएसएस-भाजपा ने इतिहास के मामले में मान लिया है पाकिस्तान को आदर्श

“इतिहास का सबसे बड़ा सबक यह है, कि कोई इतिहास से सबक नहीं सीखता।”                                                                       

                                                                            इतिहासकार ई.एच. कार 

जब धर्म के आधार पर पाकिस्तान बना, तो वहां एक प्रश्न उठ खड़ा हुआ कि आख़िर इस नवोदित देश का इतिहास कहां से शुरू हो। पाकिस्तान और भारत का साझा इतिहास और साझी संस्कृति थी। वहां पर करीब 5000 वर्ष पुरानी सभ्यता मोहनजोदड़ो और हड़प्पा के अवशेष मिले थे। उनके पास प्राचीन बौद्ध विश्वविद्यालय तक्षशिला की भी विरासत थी। वे इन सबसे अपने को जोड़ सकते थे, लेकिन धार्मिक कट्टरता ने ऐसा नहीं होने दिया। उन्होंने अपने इतिहास की शुरुआत वहां से की,जब सिन्ध में अरब से आए मोहम्मद बिन क़ासिम ने वहां के हिन्दू राजा दाहिर सेन को पराजित करके एक मुस्लिम शासन की स्थापना की।

यह इतिहासविहीनता और इतिहासशून्यता थी, जिसने भविष्य में पाकिस्तान का बहुत नुकसान किया। वहां धर्मनिरपेक्षता की परम्परा कभी पैदा ही नहीं हो पाई। आज हम वहां जो अराजकता और आतंकवाद देख रहे हैं, उसके पीछे यही ग़लत इतिहासबोध है। शिक्षण संस्थाओं में इस इतिहास ने बच्चों के अंदर दूसरे धर्मों और अल्पसंख्यकों के प्रति नफ़रत पैदा की। नफ़रत के बल पर कोई देश और समाज लम्बे समय तक टिका नहीं रह सकता, इसका दुखद परिणाम हम पाकिस्तान के विभाजन और वहां अल्पसंख्यकों के दमन के रूप में देख सकते हैं। आज पाकिस्तान की युवा पीढ़ी ; जिसमें इतिहासकार, विचारक और समाजशास्त्री सभी हैं, अब इस गलत इतिहासबोध से अपना पीछा छुड़ाना चाहते हैं, लेकिन आज हमारा देश ठीक इसकी उल्टी दिशा की ओर बढ़ रहा है।

अपनी तमाम ख़ामियों और विसंगतियों के बावजूद आज़ादी के बाद हमारे देश में एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र की स्थापना की गई। एक धर्मनिरपेक्ष संविधान लागू हुआ। सभी धर्म-जाति और समुदायों को समान अधिकार दिया गया। संविधान में समानता और समाजवाद की बात भी जोड़ी गई।

इसका कारण यह था कि आज़ादी के बाद जो लोग सत्ता में आए, उन्होंने पूंजीवादी वर्गों से होने के बावज़ूद आज़ादी के संघर्ष में भागीदारी की थी और उनमें आज़ादी की लड़ाई के मूल्य शेष थे,लेकिन जो लोग 2014 के बाद सत्ता में आए, उन्होंने आज़ादी की लड़ाई में कभी भाग नहीं लिया, कुछ ने अगर भाग भी लिया,तो वे जल्दी ही माफ़ी मांगकर छूट गए और सावरकर जैसे लोग अंग्रेज सरकार से पेंशन लेने लगे।

इन तत्वों का असली उद्देश्य, तो धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र की जगह पाकिस्तान की तरह देश को एक धार्मिक राष्ट्र बनाना था, इसलिए जब देश की बागडोर इनके हाथों में आई, तो इन्होंने अपने एजेंडे के तहत सबसे पहले देश के धर्मनिरपेक्ष इतिहास और संविधान पर हमला किया। आज इतिहास के पाठ्यक्रम से मुग़लकाल के इतिहास को निकालने की बात हो या अनेक संशोधन हों,जैसे, गांधी जी के हत्यारे गोडसे को गौरवान्वित करने की बात हो।

बाबा साहब अम्बेडकर के संविधान निर्माण में दिए गए योगदानों को कम करके आंकने की बात हो या फिर एनसीईआरटी की पुस्तकों से जर्मन फासीवाद या अमेरिकी साम्राज्यवाद की करतूतों को पाठ्यक्रम से हटाने की बात हो। ये तो बस छोटी-छोटी बानगियां हैं,वास्तव में परिवर्तन कहीं इससे भी बहुत बड़े पैमाने पर किए जा रहे हैं,आख़िर इतिहास के ‘भूत का भय’ फासीवादियों को क्यों सता रहा है? इसके भी विश्लेषण की आवश्यकता है। 

इन बदलावों में सबसे महत्वपूर्ण है, पाठ्यक्रम से मुस्लिम या मुग़ल इतिहास को निकालना या बाबरनामा जैसे ग्रंथ को ख़ारिज़ करना। भारत में करीब 300 से अधिक वर्षों तक (1526 से 1858 तक) मुग़लों ने शासन किया, इससे पहले लोदी वंश और ग़ुलाम वंश का भी दिल्ली सल्तनत पर शासन रहा। इस बात में कोई शक नहीं, मुग़लों सहित सभी मुस्लिम शासक देश के बाहर से या कहें मध्य एशिया से हमलावर के रूप में आए थे।

मोहम्मद गोरी ने तराइन के युद्ध में अंतिम हिन्दू सम्राट पृथ्वीराज चौहान को पराजित करके दिल्ली पर कब्ज़ा कर लिया, बाद में बाबर ने इब्राहीम लोदी को हराकर देश में मुग़ल साम्राज्य की नींव डाल दी। अगर देखा जाए, तो अंग्रेजों द्वारा 1857 में अंतिम मुग़ल सम्राट को कैद करके रंगून भेजने के बाद मुग़ल साम्राज्य का अंत हो गया और भारत में पूरी तरह से अंग्रेजी राज का शासन हो गया। संघ परिवार भारत में मुस्लिम शासन को हिन्दू-मुस्लिम संघर्ष के रूप में चित्रित करता है, लेकिन इस दृष्टिकोण में ख़ामी यह है कि वह इस ग़लत तथ्य को प्रस्तुत करके वर्तमान में भारत में रह रहे मुस्लिमों और पाकिस्तान के लिए नफरत का माहौल पैदा करता है।

वह हिन्दुओं में इस भावना को पैदा करके उनमें हीन भावना भरता है कि उनके ऊपर करीब 1000 वर्षों तक मुस्लिमों ने शासन किया। 2014 में जब पहली बार भाजपा सत्ता में आई,तो संघ परिवार के ‘संघ चालक मोहन भागवत’ ने एक सेमिनार में कहा था कि “करीब 1000 वर्ष बाद एक बार फिर दिल्ली में हिन्दू राष्ट्र की स्थापना हुई है।” उनके इस बयान में एक महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि वे 200 वर्षों की अंग्रेजों की ग़ुलामी के तथ्य को छिपा लेते हैं। इसका अर्थ यह है कि केवल मुस्लिम शासनकाल को ग़ुलामी का कारण मानते हैं,अंग्रेजी शासनकाल को नहीं।

यहां मैं अभी इस तथ्य की ओर नहीं जा रहा हूं कि सल्तनत काल तथा मुग़ल काल में किस तरह एक साझी संस्कृति विकसित हुई। कला,साहित्य,संस्कृति,खान-पान और स्थापत्य सभी में मुग़लों द्वारा बनाई शानदार इमारतें जिसमें पर्शियन और भारतीय स्थापत्य कला का मिला-जुला प्रयोग हुआ है, इसकी गवाही देते हैं, लेकिन यहां एक बहुत महत्वपूर्ण मुद्दा है, जिससे संघ परिवार के लोग आंख चुराते हैं कि क्या कारण था कि विशाल हिन्दू आबादी वाले इस देश में मध्य एशिया से छोटे-छोटे काफ़िलों में आए हमलावरों ने इस देश पर कब्ज़ा करके करीब 1000 वर्षों तक राज किया। इस देश पर तो ग़ुलामों तक ने शासन किया।

बाबर खुद ही मध्य एशिया में ‘उज़्बेकिस्तान’ के एक छोटी-सी रियासत ‘फ़रगना’ का शासक था। भारत में इस्लाम तो दसवीं शताब्दी में ही आ गया था,जब एक ‘तुर्क जनजाति ग़जनवीद’ ने पंजाब पर कब्ज़ा कर लिया था। 12वीं सदी तक मुस्लिम सरदारों ने भारत के अधिकांश हिस्सों पर विजय हासिल कर ली थी। 1206 ई० में दिल्ली में अपनी राजधानी स्थापित करके भारत में दिल्ली सल्तनत की स्थापना की।

’11जून 2014′ में लोकसभा में अपने भाषण में ‘प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी’ ने कहा था,”1200 साल ग़ुलामी की मानसिकता परेशान कर रही है। बहुत बार जब हमसे थोड़ा ऊंचे व्यक्ति मिले, तो सर ऊंचा करके बात करने की हमारी ताकत नहीं होती है।’ प्रधानमंत्री की इस बात ने कई सवाल एक साथ खड़े किए।

क्या भारत 1200 वर्षों तक ग़ुलाम था? 

क्या भारत ब्रिटिश शासन के पहले भी ग़ुलाम था? प्रधानमंत्री ने जब 1200 वर्षों की ग़ुलामी की बात कही,तो उन्होंने आठवीं सदी में सिंध के हिन्दू राजा पर हुए मीर क़ासिम के हमले (सन् 712) से लेकर 1947 तक के भारत को ग़ुलाम बताया। भारत में अंग्रेजों का शासन मोटे तौर पर 1757 से 1947 तक माना जाता है,जो 190 वर्ष है। इस हिसाब से ग़ुलामी के बाकी तकरीबन 1000 वर्ष भारत ने मुस्लिम शासन के अधीन गुज़ारे।

अगर हम संघ चालक मोहन भागवत’ और प्रधानमंत्री की इस कथित बात को सत्य भी मान लें, कि भारत में मुसलमानों ने हिन्दुओं पर एक हज़ार वर्ष तक शासन किया,तो आख़िर इसके लिए ज़िम्मेदार कौन था? अकसर संघ के लोग इसका गोल-मोल जवाब देते हैं। आमतौर पर वे हिन्दू राजाओं की आपसी फूट या गद्दारी की बात करते हैं परन्तु अगर इसका विश्लेषण सावधानीपूर्वक किया जाए ,तो सच्चाई कुछ और ही है। मूलतः हिन्दू धर्म की जातीय और सामाजिक संरचना इसके लिए ज़िम्मेदार है।

मार्क्स ने इस संबंध में लिखा है,कि “भारतीय ग्राम समाज एक बिलकुल बंद समाज थे और वे स्वतंत्र आर्थिक इकाई थे। गांव की ज़मीनों पर ग्राम समुदाय का नियंत्रण था। राजा केवल लगान वसूलता था। जातियों के सोपानक्रम में ब्राह्मण सबसे शीर्ष पर थे। गांव में किसानों के अलावा बढ़ई, लोहार, कुम्हार, जुलाहा,तेली,हज्जाम जैसे मजदूर किस्म के लोग भी रहते थे,लेकिन ये भी गांव की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए ही खटते थे। ग्राम समुदाय में कामगारों का भी एक वर्ग था,जो अछूत समझा जाता था। इनमें से अधिकांश उन आदिम निवासियों के वंशज थे,जिनको समूल नष्ट करने के बदले हिन्दू समाज ने आत्मसात कर लिया था। लोगों का व्यवसाय जातियों के आधार पर होता था,जो वंश-परम्परागत चलता रहता था। व्यक्ति का कोई महत्व नहीं था। सब कुछ जाति और समुदाय ही तय करते थे। आवागमन के साधन बहुत सीमित थे।” (भारतीय राष्ट्रवाद की सामाजिक पृष्ठभूमि, ए. आर. देसाई-, पृष्ठ:- 7-8)     

इन उद्धरणों को देखने से दो-तीन बातें सामने आती हैं। पहला तो यह कि विदेशी हमलावर आते रहे, कुछ लूटमार कर चले गए। कुछ यहीं बस गए और अपना साम्राज्य स्थापित कर लिया।’ लेकिन इसका भारतीय ग्राम संरचना पर कोई ख़ास असर नहीं हुआ।‌ दिल्ली में तख़्तोताज बदलते रहे, लेकिन इसके ख़िलाफ़ कहीं कोई विशाल जनप्रतिरोध देखने को नहीं मिलता है। ‘का नृप हो, हमें का हानि’ जैसी कहावतें चलन में थीं।

जिस समाज में बहुसंख्यक आबादी का एक बड़ा तबका अछूत माना जाता हो, युद्ध करने का काम एक-दो जातियों के हाथ में हो, उस समाज में किसी विदेशी हमलावर के ख़िलाफ़ एकजुट प्रतिरोध संभव ही नहीं था। भारत के अछूत-दलितों की स्थिति रोम और यूनान के ग़ुलामों से बदतर थी। क्योंकि रोम आदि देशों के ग़ुलाम आज़ाद होकर स्वतंत्र नागरिक का जीवन जी सकते थे। लेकिन भारत के अछूत-दलितों को इस ग़ुलामी से स्वतंत्र होने के लिए मृत्यु का इंतजार करना पड़ता था।

एक अंग्रेज अफसर ने लिखा है कि, “एक युद्ध के दौरान भारतीय सैनिकों के खेमे में उसने सैकड़ों सिपाहियों को देखा, जो अलग-अलग चूल्हों पर खाना बना रहे थे। एक अन्य अंग्रेज अफसर ने बताया कि ये उच्च जाति के सिपाही हैं, जो छुआछूत के डर से अलग खाना बना रहे हैं।” मुस्लिम राज्य में जो व्यापक धर्मांतरण की बात कही जाती है, जिसके बारे में संघ परिवार का कहना है कि इसके पीछे जोर-जबरदस्ती और लालच था, परन्तु इसमें सच्चाई बहुत ही कम है।

यह सही है कि कुछ उच्च जातियों के हिन्दुओं ने सत्ता में पद पाने के लिए धर्म बदला, जो आज भी मुसलमानों में उच्च जाति जैसे सैयद और पठान हैं। लेकिन बहुसंख्यक धर्मपरिवर्तन हिन्दुओं की दलित-पिछड़ी जातियों ने किया, इसके पीछे आर्थिक कारणों से ज्यादा समानता की बात थी। यह भी सही है कि ये जातियां आज भी मुस्लिम समाज में भी पिछड़ी जातियां हैं,लेकिन इस्लाम में छुआछूत जैसी कोई अवधारणा नहीं है। वे साथ में खा-पी सकते हैं और मस्जिद में सबके साथ समान रूप से प्रार्थना भी कर सकते हैं, लेकिन हिन्दू वर्ण व्यवस्था में लम्बे समय तक इन्हें मंदिर में प्रवेश करने तक का अधिकार नहीं था और कहीं-कहीं अभी भी है।

संघ परिवार,जो आज मुस्लिम शासन को हिन्दुओं की ग़ुलामी का प्रतीक मानकर केवल उसे इतिहास से ख़ारिज़ करने की कोशिश कर रहा है, क्या इन सच्चाइयों को स्वीकार करेगा? मुझे लगता है कदापि नहीं, क्योंकि उसकी हिन्दू राष्ट्र की अवधारणा ही वर्ण व्यवस्था और ब्राह्मण वर्ग की सर्वोच्चता पर ही टिकी है।

(स्वदेश कुमार सिन्हा स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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  • बहुत ही साधारण सत्य बताता लेख, जैसे आसमाँ नीला है! अफसोस और आश्चर्य, या विडंबना; कि ऐसे पानी जैसे स्पष्ट तथ्य से भी अधिकांश brainwashed हिंदुत्व आतंकी मानसिकता के पाठकों (जैसे यहाँ संदीप पाठक) को बवासीर हो रहे हैं! आतंकवादी सच से परेशां होता ही है, चाहे गजनवी का हो या मोदी का हो आतंकी!

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