गाजा युद्ध में अमेरिकी भूमिका के विरोध में संदीप पांडेय ने लौटाया मैग्सेसे पुरस्कार, अमेरिकी डिग्रियां भी लौटाईं

नई दिल्ली। जाने-माने सामाजिक कार्यकर्ता संदीप पांडेय ने गाजा युद्ध में अमेरिकी भूमिका का विरोध करते हुए अपना मैग्सेसे पुरस्कार लौटाने का फैसला किया है। इसके साथ ही उन्होंने अमेरिका में हासिल अपनी डिग्रियों को भी वापस करने का फैसला किया है। संदीप पांडेय को 2002 में मैग्सेसे पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।

संदीप पांडेय ने एक बयान जारी कर कहा है कि “2002 में जब मैं मैग्सेसे पुरस्कार लेने मनीला गया तो वहां एक छोटा सा विवाद खड़ा हुआ। फिलीपींस की राष्ट्रपति से पुरस्कार प्राप्त करने के अगले दिन मुझे मनीला स्थित अमरीकी दूतावास पर अमरीका के इराक पर होने वाले सम्भावित हमले के खिलाफ एक प्रदर्शन में शामिल होना था। तब मैग्सेसे फाउंडेशन की अध्यक्षा ने मुझे वहां जाने से यह कहकर रोकने की कोशिश की कि मेरे अमरीकी दूतावास पर प्रदर्शन में शामिल होने से फाउंडेशन की बदनामी होगी।

मैंने उन्हें याद दिलाया कि जिन चार कारणों से उन्होंने मुझे मैग्सेसे पुरस्कार दिया था उसमें एक भारत के नाभिकीय परीक्षण के खिलाफ वैश्विक नाभिकीय निशस्त्रीकरण के उद्देश्य से पोकरण से सारनाथ तक निकाली गई पदयात्रा थी। यानी युद्ध के खिलाफ मेरी भूमिका से वे पूर्व-परिचित थीं। मैंने उन्हें बताया कि इत्तेफाक से जिस दिन मुझे पुरस्कार मिला उसी दिन मनीला के विश्ववि़द्यालय में हुए एक शांति सम्मेलन में अमरीकी दूतावास पर प्रदर्शन करने का निर्णय लिया गया था और मैं इस सम्मेलन में भी आमंत्रित था।”

उन्होंने कहा कि “मेरे विरोध प्रदर्शन में शामिल होने के बाद मनीला के एक अखबार ने अपने सम्पादकीय में मुझे यह चुनौती दी कि यदि मैं उतना ही सिद्धांतवादी हूं जितना कि मैं चाहता हूं कि वे मानें तो मैं भारत लौटने से पहले मैग्सेसे पुरस्कार लौटा कर जाऊं। इससे मेरा काम आसान हो गया।

मैंने हवाई अड्डे से पुरस्कार के साथ मिली धनराशि लौटा दी और मैग्सेसे फाउंडेशन की अध्यक्षा को एक पत्र लिखकर कहा कि फिलहाल मैं पुरस्कार अपने पास रख रहा हूं क्योंकि पुरस्कार फिलीपींस के एक लोकप्रिय भूतपूर्व राष्ट्रपति के नाम पर है और भारत में यह ऐसे प्रतिष्ठित व्यक्तित्वों को मिल चुका है, जैसे जयप्रकाश नारायण, विनोबा भावे व बाबा आम्टे, जो मेरे आदर्श हैं।”

संदीप पांडेय ने कहा कि उस पत्र में मैंने यह भी लिखा कि जिस दिन उन्हें लगे कि मेरी वजह से मैग्सेसे फाउंडेशन की ज्यादा बदनामी हो रही है तो मैं पुरस्कार भी लौटा दूंगा।

लेकिन अब मुझे लगता है कि समय आ गया है। मैग्सेसे पुरस्कार रॉकेफेलर फाउंडेशन व मुझे जिस श्रेणी में पुरस्कार मिला वह फोर्ड फाउंडेशन द्वारा प्रायोजित है, जो दोनों अमरीकी संस्थाएं हैं। अमरीका जिस तरह से वर्तमान में फिलिस्तीन के खिलाफ युद्ध में बेशर्मी से खुलकर इजराइल का साथ दे रहा है और अभी भी इजराइल को हथियार बेच रहा है, अब मेरे लिए असहनीय हो गया है कि मैं यह पुरस्कार रखूं।

इसलिए मैंने अब मैग्सेसे पुरस्कार भी लौटाने का फैसला लिया है। मैं फिलीपींस के लोगों से माफी चाहता हूं क्योंकि भूतपूर्व राष्ट्रपति रेमन मैग्सेसे का नाम इस पुरस्कार के साथ जुड़ा हुआ है। किंतु मेरा विरोध सिर्फ पुरस्कार के अमरीकी जुड़ाव वाले पक्ष से है।”

उन्होंने कहा कि “जैसे मैं मैग्सेसे पुरस्कार वापस कर रहा हूं तो मुझे लगता है कि मुझे अमरीका से प्राप्त डिग्रियां भी वापस कर देनी चाहिए। मैं न्यूयॉर्क राज्य स्थित सिरैक्यूस विश्वविद्यालय से प्राप्त मैन्यूफैक्चरिंग व कम्प्यूटर अभियांत्रिकी की व कैलिफोर्निया के विश्वविद्यालय, बर्कले से प्राप्त मेकेनिकल अभियांत्रिकी की डिग्रियां भी वापस करने का निर्णय ले रहा हूं।

बल्कि यह मुझे 1991 में बर्कले के परिसर पर ही, जब राष्ट्रपति वरिष्ठ बुश ने इराक पर हमला कर दिया था, युद्ध विरोधी प्रदर्शन में पता चला कि अमरीकी विश्वविद्यालयों, खासकर प्रौद्योगिकी एवं विज्ञान विभागों, में हथियारों से जुड़े शोध कार्य होते हैं। युद्ध विरोधी प्रदर्शन में भाग लेने वाले एक इलेक्ट्रिकल अभियांत्रिकी के प्रोफेसर प्रवीण वरैया, जो रक्षा विभाग से शोध हेतु कोई पैसा नहीं लेते थे, से पता चला कि उनका शोध क्षेत्र कंट्रोल सिस्टम्स्, जो मेरा भी शोध क्षेत्र था, का जुड़ाव रक्षा कार्यक्रम से है।

यानी अनजाने में मैं अमरीकी युद्ध तंत्र का हिस्सा बन गया था। मेरा अपने शोध क्षेत्र से पूरी तरह से मोहभंग हो गया और जब मैंने भारत लौटकर भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, कानपुर में पढ़ाना शुरू किया तो अपना शोध क्षेत्र बदल लिया।”

संदीप पांडेय ने अपने पत्र में कहा कि “यहां मैं फिर यह स्पष्ट कर दूं कि मेरा अमरीकी जनता या अमरीका देश से भी कोई विरोध नहीं है। बल्कि मैं समझता हूं कि अमरीका में मानवाधिकारों के उच्च आदर्शों का पालन होता है और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भी वहां उच्च कोटि की है। किंतु इन उच्च आदर्शों का पालन सिर्फ अमरीका के अंदर ही होता है। अमरीका के बाहर, खासकर तीसरी दुनिया के देशों में अमरीका को इनकी कोई चिंता नहीं है। यदि वह न्याय के साथ खड़ा है तो किसी भी युद्ध में उसे उत्पीड़ित के पक्ष में भूमिका लेनी चाहिए।

रूस के यूक्रेन पर हमले में उसने सही भूमिका ली है। किंतु न जाने वह क्यों फिलिस्तीनियों के उत्पीड़न और तबाही की ओर आंख मूंदे हुए है और इजराइल की सेना द्वारा किए जा रहे जघन्य अपराधों को भी नजरअंदाज करने को तैयार है। यदि यह कोई और देश कर रहा होता तो अभी तक अमरीका, जैसा उसने दुनिया के अन्य देशों के साथ मिलकर रंगभेद की नीति लागू करने वाले दक्षिण अफ्रीका के साथ किया था, कठोर प्रतिबंध लगा चुका होता।”

संदीप पांडेय ने अपने बयान में कहा कि “मैं यह कड़ा निर्णय इसलिए ले रहा हूं कि मैं मानता हूं कि यह दुनिया की राय के खिलाफ जाकर अमरीका के बढ़ावा देने के कारण ही इजराइल फिलिस्तीनियों के साथ बर्बरता कर रहा है। चाहिए तो यह था कि अमरीका एक तटस्थ भूमिका लेकर इजराइल और फिलिस्तीन के बीच शांति हेतु मध्यस्थता करता, जैसा उसने पहले किया भी हुआ है।

एक सम्प्रभु स्वतंत्र फिलिस्तीन, जिसको संयुक्त राष्ट्र संघ एक पूर्ण देश का दर्जा दे, ही इजराइल-फिलिस्तीन विवाद का हल है। किंतु यह विचित्र बात है कि अमरीका, जिसने अभी बहुत ज्यादा दिन नहीं हुए, अफगानिस्तान, जिसका क्षेत्रफल फिलिस्तीन से बहुत बड़ा है, को चांदी की थाली में सजाकर तालिबान को सौंप दिया, यह जानते हुए कि वह आम अफगान, खासकर औरतों, की नागरिक स्वतंत्रता को खतरे में डाल रहा है।”

संदीप पांडेय ने कहा कि “अमेरिका इजराइल की इस बात को दोहराता है कि हमास एक आतंकवादी संगठन है। वह इस बात को नजरअंदाज करता है कि हमास ने फिलिस्तीन में चुनाव जीत कर गज़ा में सरकार बनाई है जबकि तालिबान ने कोई चुनाव नहीं लड़ा था। मुझे लगता है कि अमरीका की दोगली नीति पर सवाल उठाना चाहिए।”

(जनचौक की रिपोर्ट।)

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