एक औपनिवेशिक क़ानून के डंडे से हांका जा रहा है लोकतंत्र

सर्वोच्च न्यायालय ने गत 15 जुलाई, 2021 को कहा था कि वह राजद्रोह क़ानून की वैधता का परीक्षण करेगा, इस पर उसने केंद्र की प्रतिक्रिया मांगी है। इसके दुरुपयोग पर चिंता जताते हुए न्यायमूर्तिगण एनवी रमना, एएस बोपन्ना और हृषिकेश राय की खंडपीठ ने कहा कि, “यह तो एक औपनिवेशिक क़ानून है, इसे आजादी की लड़ाई के दमन के लिए बनाया गया था, ब्रिटिश सरकार महात्मा गांधी और तिलक जैसे लोगों की आवाज दबाने के लिए इसका इस्तेमाल करती थी, आजादी के 75 सालों बाद भी क्या ऐसे क़ानून की जरूरत है, जिसे लागू करने वाली कार्यकारी एजेंसी पर इसके दुरुपयोग की कोई जवाबदेही ही न हो?” मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति रमना ने इस अनुच्छेद 124ए के तहत दोषसिद्धि के नगण्य प्रतिशत का उल्लेख करते हुए केवल परेशान करने के लिए किये जा सकने वाले इसके दुरुपयोग की ओर इशारा किया।

अपनी टिप्पणी को और तल्ख करते हुए मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि, “इस अनुच्छेद की बेहिसाब ताक़त की तुलना इससे की जा सकती है जैसे कि एक बढ़ई को कोई सामान बनाने के लिए आरी दी गयी हो, लेकिन वह एक पेड़ की बजाय सारा जंगल ही काट दे।” उन्होंने कहा कि हालत यह है कि 2015 में ही न्यायालय द्वारा सूचना टेक्नोलॉजी एक्ट की धारा 66ए को रद्द कर देने के बावजूद इसके तहत हजारों मामले दर्ज किये जाते रहे हैं।

राजद्रोह क़ानून 124ए को भारतीय दंड संहिता (संशोधन) अधिनियम 1870 के द्वारा आईपीसी में शामिल किया गया था और बाल गंगाधर तिलक के खिलाफ भी, 1897 और 1909 में, दो बार इसका इस्तेमाल किया गया था। 1922 में महात्मा गांधी पर भी राजद्रोह का मुकदमा चलाया गया था। आजादी के बाद भी सरकारें अपने वैचारिक-राजनीतिक विरोधियों से निपटने के लिए इस धारा का इस्तेमाल धड़ल्ले से करती आ रही हैं। ‘राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो’ एनसीआरबी के आंकड़ों के अनुसार 2014 से 2019 के बीच, मात्र 5 सालों में 124ए के तहत 326 मामले दर्ज हुए थे जिनमें 559 गिरफ्तारियां हुईं, हलांकि इनमें से मात्र 10 लोग ही दोषी सिद्ध हुए।

इससे पहले भी, 30 जून 2021 को पीडी देसाई स्मृति व्याख्यान देते हुए न्यायमूर्ति रमना वास्तविक लोकतंत्र की प्रकृति और पहचान के संबंध में अत्यंत महत्वपूर्ण बिंदुओं को रेखांकित कर चुके हैं। उन्होंने कहा कि ‘क़ानून का शासन’ और ‘क़ानून द्वारा शासन’ एक ही चीज नहीं है। हमने ‘क़ानून के शासन’ के लिए संघर्ष किया था, जबकि ‘क़ानून द्वारा शासन’ औपनिवेशिक हुकूमत के लिए राजनीतिक दमन का उपकरण था जिसका इस्तेमाल वे ग़ैरबराबरी पूर्ण और मनमाने तरीक़े से करते थे। उनके पास भारतीयों और ब्रिटिश लोगों के लिए अलग-अलग क़ानून थे। इससे छुटकारा पाने और ‘क़ानून के शासन’ की स्थापना के लिए हमने संघर्ष किया था। लेकिन हर कुछ सालों बाद मात्र सरकार बदल देने का अधिकार निरंकुशता के खिलाफ कोई गारंटी नहीं है। एक ‘अन्यायपूर्ण क़ानून’ की नैतिक वैधता एक ‘न्यायूर्ण क़ानून’ जैसी नहीं होती, हालांकि फिर भी कुछ लोग उसका अनुपालन करते हैं जबकि कुछ लोगों को इसकी क़ीमत चुकानी पड़ती है।

मुख्य न्यायाधीश महोदय द्वारा यह अत्यंत महत्वपूर्ण सवाल उठाया गया है कि आधुनिक भारतीय लोकतंत्र के सामने ऐसी कौन सी मजबूरी आ पड़ी थी कि आजादी के 75 सालों बाद भी उसे अपने ही देश के नागरिकों के खिलाफ उस औपनिवेशिक क़ानून का इस्तेमाल करना पड़ रहा है जिसको ब्रिटिश राजसत्ता ने हमारे स्वतंत्रता सेनानियों के खिलाफ इस्तेमाल करने के लिए बनाया था।

दरअसल इसकी जड़ें काफी गहरी हैं। हमें यह भी देखना होगा कि 1947 में जो हुआ वह क्या उपनिवेशवाद, औपनिवेशिक सत्ता-संरचना और औपनिवेशिक मानसिकता से पूर्ण विच्छेद था? या थोड़े-बहुत हेर-फेर के साथ उसकी निरंतरता थी? अगर विच्छेद था तो औपनिवेशिक विरासत को ऐसे कई मामलों में क्यों अपनाया गया जो आज तक जारी हैं? लोकतंत्र को कमजोर और कभी-कभी तो नेस्तनाबूत कर देने वाली ऐसी कई विरासतों को तो लोकतंत्र की हिफाजत के नाम पर जारी रखा गया था। भारतीय लोकतंत्र स्वयं संघर्षों के दौरान नीचे से ऊपर की ओर विकसित लोकतंत्र नहीं है। लोकतंत्र यहां एक पूरी तरह से अलोकतांत्रिक सामाजिक संरचना के ऊपर ओढ़ा गया ब्रिटिश मॉडल का लबादा था, जिसे शासकों ने अपने मूल देश की विशिष्टताओं से अलग, भारत में शासन की अपनी जरूरतों के अनुरूप प्रायोगिक तौर पर काट-छांट कर तैयार किया था।

इसी तरह भारतीय स्वतंत्रता भी ग़ुलाम बनाने वाली ब्रिटिश सत्ता को उखाड़ फेंकने के बाद नहीं हासिल की गयी थी। बल्कि संघर्षों की अपनी एक समृद्ध पृष्ठभूमि के बावजूद एक खास वैश्विक परिस्थिति में शांति और सहूलियत के माहौल में हुए सत्ता हस्तांतरण का परिणाम थी, जिसमें पुराने शासकों की वारिस कांग्रेस ने पुरानी सत्ता संरचना को भी लगभग ज्यों का त्यों अपना लिया था। जिस नेहरू ने 1930 के दशक में कहा था कि “‘भारतीय सिविल सेवा’ न तो भारतीय है, न सिविल है, न ही सेवा है”, और कि “इस जैसी सभी सेवाओं को पूरी तरह से समाप्त करना बहुत जरूरी है”, उन्होंने आजादी के बाद भी इसी नौकरशाही और सेना को जारी रखा। नौकरशाही का पुराना लौह ढांचा 1947 के बाद भी जनता के ऊपर उसी तरह से रखा रहा, केवल इसके शीर्ष पदों पर अंग्रेजों का स्थान भारतीय नौकरशाहों ने ले लिया। न उसका चरित्र बदला, न मिजाज़।

नौकरशाही में तो कोई समांतर वैकल्पिक प्रशिक्षित अमला तैयार नहीं किया गया था, लेकिन ब्रिटिश शासन के खिलाफ लड़ रही आजाद हिंद फौज के प्रशिक्षित और अनुशासित सेनानियों को भी भारतीय सेनाओं में समाहित करने से इन्कार कर दिया गया। वही सेना, जो विदेशों में ब्रिटिश हितों को आगे बढ़ाने के लिए लड़ती थी और देश के भीतर जन-विद्रोहों और प्रतिरोधों को कुचलने का उपकरण बनी हुई थी, जस की तस अपना ली गयी। वही पुलिस जो भारतीय लोगों पर जुल्म ढाती थी, ब्रिटिश सत्ता के विद्रोहियों की जासूसी करती थी, उन्हें यातनाएं देती थी, जेलों में डालती थी और गोली मारती थी, अपनी सभी खूबियों के साथ जस की तस अब नये शासकों की सेवा के लिए तैयार थी।

दरअसल नये शासकों की प्राथमिकता थी— स्थिरता। इसलिए प्रशासन और जोर-जबर्दस्ती वाली उस पूरी मशीनरी को, यानि एक ताक़तवर राज्य (जो भले ही औपनिवेशिक था) को मजबूती देने वाली इन मांसपेशियों को बनाये रखा गया। यहां तक कि संविधान सभा, जिसे भारत का संविधान तैयार करना था और जो 1946 में, ब्रिटिश राज्य में, बहुत सीमित मताधिकार के आधार पर गठित की गयी थी, 1947 के बाद उसमें भी कोई फेर-बदल नहीं हुआ। इस तरह से भारतीय लोकतंत्र के सबसे बड़े पहरुए, संविधान की रचना करने वाला वह निकाय स्वयं एक अलोकतांत्रिक प्रक्रिया की पैदाइश था, जिसे कम से कम 1947 के बाद नये सिरे से सार्वभौमिक मताधिकार द्वारा चुना जाना चाहिए था।

विभाजन के बाद संविधान सभा की 95 प्रतिशत सीटें कांग्रेस के पास थीं और इन प्रतिनिधियों का बहुलांश किसी भी तरह से भारत की विविधतापूर्ण और भयावह असमानताओं से भरी हुई सामाजिक संरचना का प्रतिनिधित्व नहीं करता था। इनमें राजा-रजवाड़ों, नरेशों, रईसों, राय बहादुरों और कांग्रेस के उच्च जातीय ब्राह्मणवादी लोगों की भरमार थी जो ठोस भारतीय यथार्थ से कटे हुए, शासक वर्गीय रहन-सहन में रचे-बसे, अभिजात लोग थे। संविधान के 395 में से 250 अनुच्छेद तो सीधे 1935 के ‘भारत सरकार अधिनियम’ से शब्दशः ले लिय़े गये थे। नये शासकों द्वारा भारत में आम चुनावों के लिए आनुपातिक प्रतिनिधित्व वाली ज्यादा लोकतांत्रिक प्रणाली के बजाय ‘सर्वाधिक मत पाने वाला विजेता’ (फर्स्ट-पास्ट-द-पोस्ट) वाली ब्रिटिश प्रणाली अपनाया जाना भी अपने एकाधिकार को बनाये रखने का एक जरिया बना, जो आज भी बना हुआ है। आज भी चुनाव एक ऐसे तिकड़म का रूप ले चुका है जिसमें सत्ता में बने रहने के लिए पार्टियों को चुनाव क्षेत्रों में वास्तविक बहुमत की बजाय बस औरों से एक मत ज्यादा पाने की दरकार होती है। इसके लिए सारे राजनीतिक दल व्यापक सामाजिक उद्देश्यों की जगह पर क्षेत्रीय और संकीर्ण विभाजनकारी हेर-फेर, जोड़-तोड़ और तिकड़मों में लगे रहते हैं। ऐसी चीजें समाज में पहले से बने-बनाये सत्ता के ढांचों को धवस्त करके नये, ज्यादा लोकतांत्रिक और भेदभाव से रहित बराबरीपूर्ण ढांचों के विकास में आज भी बाधक बनी हुई हैं।

अपनी लोकप्रियता के शिखर पर भी कांग्रेस को अधिकतम 45 प्रतिशत मत ही मिले थे जबकि इसकी बदौलत उस समय उसके पास लोकसभा की 70 प्रतिशत सीटें हासिल हुई थीं। इस भारी-भरकम बहुमत के आधार पर प्रदेशों में वह अपनी नापसंदगी की सरकारों से आसानी से निपट सकती थी। 1935 के भारत सरकार अधिनियम के अनुच्छेद 93 द्वारा वायसराय के हस्तक्षेप से केंद्र राज्यों की चुनी हुई सरकारों को कभी भी गिरा सकता था। इस पूरी ताक़त का मजा संविधान के अनुच्छेद 356 के रूप में केंद्र की सरकारों द्वारा आजाद भारत में भी लिया जाता रहा है। बस वायसराय की जगह राष्ट्रपति के हाथों वास्तव में यह काम प्रधानमंत्री करता है।

नेहरू-पटेल की जोड़ी को संघवाद की भावना के विरुद्ध इस व्यवस्था को जारी रखना जरूरी लगा। खुद नेहरू के प्रधानमंत्री के रूप में 17 साल के कार्यकाल में अनुच्छेद 356 का इस्तेमाल 8 बार हुआ। लाल बहादुर शास्त्री के संक्षिप्त कार्यकाल में भी केरल में इस अनुच्छेद का इस्तेमाल किया गया। इंदिरा गांधी का, तो खैर, कुल 14 साल के कार्यकाल में 50 बार राष्ट्रपति शासन का रिकॉर्ड है। अन्य पार्टियों ने भी केंद्र में सत्ता पाने के बाद यही किया। अब तक इस अनुच्छेद का 124 बार इस्तेमाल किया जा चुका है। छत्तीसगढ़, उत्तराखंड और तेलंगाना ही केवल तीन ऐसे राज्य हैं जहां फिलहाल इसे नहीं लगाया गया है।

1818 के ‘बंगाल स्टेट प्रिजनर्स रेगुलेशन’ में प्रिवेंटिव डिटेंशन, यानि निवारक नजरबंदी का प्रावधान किया गया था। यह औपनिवेशिक सत्ता का सबसे मजबूत हथियार बना रहा। लेकिन नेहरू और पटेल ने 1947 के बाद भी इसे बनाये रखना जरूरी समझा। कुछ महीनों के भीतर ही बड़ी संख्या में पूरे देश से कम्युनिस्ट नेताओं और कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार करके जेलों में ठूंस दिया गया। प्रिवेंटिव डिटेंशन का यह भूत अपने नये-नये अवतारों के रूप में भारतीय लोक की छाती पर मूंग दलता रहा है।

आजादी के बाद देश के नये कर्णधारों में भी अपनी पूर्ववर्ती औपनिवेशिक सत्ता की ताक़त का व्यामोह बना रहा, जो आज भी जारी है। इसीलिए नागरिकों को नियंत्रित रखने के ढेरों अस्त्र-शस्त्रों को या तो बने रहने दिया गया, अन्यथा ईजाद किया गया। इसके लिए वे राजद्रोह क़ानून 124ए, यूएपीए (ग़ैरक़ानूनी गतिविधि निरोधक क़ानून, 1967), एनडीपीएस (नारकोटिक ड्रग्स एंड साइकोट्रोपिक सब्स्टेंसेज ऐक्ट 1985), टाडा (टेररिस्ट एंड डिसरप्टिव ऐक्टिविटीज प्रिवेंशन ऐक्ट 1987), मकोका (महाराष्ट्र कंट्रोल ऑफ ऑर्गेनाइज्ड क्राइम ऐक्ट 1999), पोटा (प्रिवेंशन ऑफ टेररिज्म ऐक्ट 2002) इत्यादि से अपने शस्त्रागार को सुसज्जित करते रहे हैं। इन क़ानूनों ने सरकारों के हाथों में बेहिसाब ताक़त दे दी है। इस ताक़त के कारण संविधान में मिले मौलिक अधिकार भी अर्थहीन बन कर रह जाते हैं।

पिछले दिनों दिल्ली उच्च न्यायालय में यूएपीए की व्याख्या और अब उच्चतम न्यायालय से राजद्रोह क़ानून की प्रासंगिकता पर उठी आवाजें उम्मीद तो जगाती हैं, लेकिन अक्सर ऐसे बौद्धिक विमर्श सत्ता के नक्कारखाने में तूती की आवाज बन कर रह जाते हैं। दरअसल यह न्यायिक सुधारों के मामले से ज्यादा भारतीय समाज के पोर-पोर में व्याप्त निरंकुश ग़ैरबराबरी और ऊंच-नीच तथा नफरत की भावनाओं के खिलाफ संघर्ष के आह्वान की मांग करता है। यही भावनाएं हैं जो एक मजबूत राजसत्ता के लिए रास्ता तैयार करती हैं और आम नागरिकों के दमन और उत्पीड़न को वैधता प्रदान करती हैं।

जाति, धर्म, भाषा, लिंग, क्षेत्र और आर्थिक स्तर पर घरों के दायरे से लेकर नई दिल्ली तक हम हजारों असमानताओं में बंटा हुआ एक देश हैं। ऊंच-नीच और नफरतें हमारी रगों में बहती हैं। पिछले 75 सालों में भी हम अपने दिमागों में भरे हुए हजारों साल के इस कचरे से निजात नहीं पा सके हैं। अब तो इसके खिलाफ सामाजिक आंदोलन भी दुर्लभ हो गये हैं। नफरतें अब सत्ता की सीढ़ियां बन चुकी हैं। हमने लोकतंत्र को जाना ही नहीं। एक पतली सी परत, जिसने लोकतंत्र को जान लिया, उसका स्वाद चख लिया, वह या तो जेलों में है, या उनकी दहलीज पर। 124ए पर बहस और उसके खात्मे की शुरुआत का तो स्वागत है, लेकिन सच्चे लोकतंत्र की लौ को सबके दिलों में जलाना ही आज के समय की सबसे बड़ी चुनौती है।

(शैलेश स्वतंत्र लेखक हैं।)

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