किसानों का दमन नहीं हो सकता आंतरिक मामला

जन सरोकारों, नागरिक अधिकारों, मौलिक अधिकारों और सम्मान से जीने के अधिकारों को किसी राज्य या देश की सीमा में बांट कर नहीं रखा जा सकता है। आज किसान आंदोलन भी सम्मानपूर्वक जीने और अपनी कृषि संस्कृति को बचाने का आंदोलन बन गया है। इसके समर्थन में, दुनिया भर के सजग और सचेत नागरिक यदि अपनी बात कह रहे हैं और इस आंदोलन को नैतिक, समर्थन दे रहे हैं तो इसका स्वागत किया जाना चाहिए। यह समर्थन न तो देश की संप्रभुता को चुनौती है और न ही सरकार के खिलाफ कोई विदेशी हस्तक्षेप।

यह सजग और सचेत जनता का परस्पर संकट में साथ-साथ खड़े होने का भाव है। धरती के नक्शे में खींची गई रेखाएं देश, उसकी संप्रभुता, उनके कानून आदि को भले ही परिभाषित करती हों, पर समस्त मानवीय आवश्यकताएं और उनके मौलिक अधिकार उस सीमाओं में आबद्ध नहीं हैं।

दुनिया भर में सभी देशों की जनता, ऐसे नगरिक अधिकारों के उल्लंघन पर एकजुटता दिखाती रहती है। किसान आंदोलन के समर्थन में दुनिया के अन्य देशों के नागरिकों द्वारा किया गया समर्थन न तो अनुचित है और न ही इससे सरकार को आहत होने की ज़रूरत है। अभी हाल ही में हुए अमेरिका के ब्लैक लाइव्स मैटर्स आंदोलन, फ्रांस में इस्लामी उग्रवादी तत्वों द्वारा चार्ली हेब्दो द्वारा बनाए गए कार्टून के बाद भड़काई गई हिंसा का विरोध सभी लोकतांत्रिक देशों ने किया था और इसे अमेरिका और फ्रांस के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं माना गया था। इसी प्रकार चीन के थ्येन एन मेन स्क्वायर पर हजारों छात्रों को मार देने के विरोध में भी दुनिया भर से आवाज़ें उठी थीं।

साठ और सत्तर के दशक में अमेरिका द्वारा वियतनाम में किए गए हमले के दौरान भारत में जगह-जगह वियतनाम के पक्ष में आवाज़ें उठी थीं, प्रदर्शन हुए, धन एकत्र किया गया, पर उसे अमेरिका और वियतनाम का निजी मामला किसी ने नहीं कहा। 1970-71 में जब पाकिस्तान ने अपने पूर्वी भूभाग पर अत्याचार करना शुरू कर दिया तो भारत ने पूर्वी पाकिस्तान, जो अब बांग्लादेश है, की जनता के अधिकारों और उनके जीवन रक्षा के लिए सभी जरूरी कदम उठाए। ऐसे अनेक उदाहरण दिए जा सकते हैं, जब दुनिया भर में, ऐसी आवाज़ें उठती रहती हैं। इस प्रकार के समर्थन में उठने वाली सारी आवाजें, जनता के मूल अधिकार और उसकी अस्मिता से जुड़ी हुई हैं।

यूएन का मानवाधिकार चार्टर किसी एक देश के लिए नहीं बनाया गया है, बल्कि पूरी दुनिया के लिए ड्राफ़्ट किया गया है। पहले और दूसरे विश्व युद्ध में, भले ही दुनिया के कुछ देशों के गुट ने आपसी स्वार्थों और मुद्दों पर युद्ध किए हों, पर इसका असर समस्त मानवजाति पर पड़ा, इसीलिए यूएन का मानवाधिकार चार्टर सामने आया। यह बात अलग है कि सभी देशों में मानवाधिकार के उल्लंघन होते रहते हैं। इस व्याधि से वे बड़े देश भी मुक्त नहीं हैं जो खुद को मानवाधिकार का ठेकेदार समझते हैं।

आज किसान कानून देश का आंतरिक मामला है। हमारी संसद ने उसे पारित किया है। उसमें कुछ कमियां हैं तो जनता उसके खिलाफ है। सरकार किसान संगठनों से बात कर भी रही है, पर जिस प्रकार से, धरने पर बैठे, आंदोलनकारियों की बिजली-पानी काट दी जा रही है, गाजा पट्टी की तरह, उन्हें अलग-थलग करने के लिए, कई स्तरों की किलेबंदी की जा रही है, देश के नागरिकों को ही देश द्रोही कहा जा रहा है और सरकार इन सब पर या तो खामोश है या ऐसा करने की पोशीदा छूट दे रही है, यह सब नागरिकों द्वारा शांतिपूर्ण धरना प्रदर्शन के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है और असंवैधानिक भी।

हालत यह है कि अब धरने पर बैठे किसान आंदोलनकारियों तक, स्वयंसेवी संस्थाएं, यदि कुछ मदद भी पहुंचाना चाहें तो नही पहुंचा पा रही हैं। क्या यह देश की जनता को जो अपने हक़ के लिए सत्तर दिनों से शांतिपूर्ण धरने पर बैठी है के प्रति, सरकार द्वारा शत्रुतापूर्ण व्यवहार करना नहीं है?

दुनिया भर के सजग नागरिक, यह बिलकुल नहीं कह सकते हैं कि यह कानून गलत बना है या सही बना है, इसे वापस लिया जाए या न लिया जाए, पर वे इस बात पर चिंता ज़रूर जता और एकजुटता दिखा सकते हैं कि शांतिपूर्ण नागरिक प्रदर्शन को न तो उत्पीड़ित किया जाए और न ही उनकी इतनी किलेबंदी कर दी जाए कि उनकी मौलिक आवश्यकताएं ही बाधित हो जाएं। बिजली, पानी, चिकित्सा आदि, किसी भी भीड़, समूह की ऐसी मौलिक आवश्यकताएं हैं, जिनकी सरकार द्वारा पूर्ति की जानी चाहिए न कि उन्हें बाधित कर के दुश्मनी निकालने की बात सोचनी चाहिए।

26 नवंबर 2020 से अब तक, लगभग 70 दिन हो गए हैं। लाल किले की घटना को छोड़ कर किसानों का यह आंदोलन अब तक शांतिपूर्ण रहा है। लाल किले पर जो भी हिंसक घटना हुई वह निश्चित ही निंदनीय है, और उस घटना को अंजाम देने वालों और उसके सूत्रधार के खिलाफ सबूत एकत्र कर कार्रवाई की जानी चाहिए। उस घटना की जांच हो भी रही है।

यदि वर्तमान जांच में कोई कमी हो तो, सरकार चाहे तो उस घटना की न्यायिक जांच भी करा सकती है। पर आज पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश के पश्चिमी भाग, राजस्थान और देश के अन्य भागों में, जो किसान जागरण हो रहा है, उसकी गंभीरता को सरकार द्वारा अनदेखा नहीं किया जाना चाहिए। देश का स्वाधीनता संग्राम मूल रूप से, किसानों का ही आंदोलन रहा है। किसान और जनता को अलग करके देखने की भूल मूर्खता होगी।

इस आंदोलन को ले कर दुनिया भर में हो रही प्रतिक्रिया, आलोचना और टिप्पणियों को भी सरकार को ध्यान में रखना चाहिए। सरकार किसानों से बात करने को राजी है, और दर्जन भर बार, बात कर भी चुकी है। कुछ बड़े संशोधनों के लिए भी सरकार कह रही है कि वह राजी है। पर वे संशोधन क्या होंगे, यह अभी सरकार ने खुलासा नहीं किया है। इन तीनों कृषि कानून को सरकार, होल्ड करने के लिए भी सहमत है।

सुप्रीम कोर्ट ने इसे फिलहाल स्थगित कर भी रखा है। हालांकि, अदालत का यह भी कहना है कि वह अनंत काल तक इसे स्टे रख भी नहीं सकती है। एक तरफ से देखिए तो सरकार की यह सारी पेशकश, उसके द्वारा उठाए जाने वाले, सकारात्मक कदमों की तरह दिखेंगे। पर सरकार ने इन पेशकश का कोई औपचारिक प्रस्ताव भी रखा है क्या? संसद का अधिवेशन चल रहा है। सरकार अपने इन सकारात्मक कदमों के बारे में सदन में अपनी बात कह सकती है। इससे जनता के सामने कम से कम सरकार का स्टैंड तो स्पष्ट होगा।

एक तरफ बातचीत की पेशकश और दूसरी तरफ, सड़को पर कील कांटे, कंक्रीट की दीवारें, कंटीले तार, पानी-बिजली की बंदी, देशद्रोह के मुकदमे, इंटरनेट को बाधित करना, यह सब सरकार और जनता के बीच, पहले से ही कम हो चुके परस्पर अविश्वास को और बढ़ाएंगे ही। यह बैरिकेड्स, कीलें, और कंटीले तार, इस बात के भी प्रतीक हैं कि किसानों और सरकार के बीच गहरा अविश्वास पनप रहा है।

ऐसे गहरे अविश्वास के लिए सरकार के ही कुछ मंत्री, मूर्ख समर्थक और भाजपा आईटी सेल के लोग जिम्मेदार हैं। यह अविश्वास जनता के लिए उतना नहीं, बल्कि सरकार के लिए ही आगे चल कर घातक सिद्ध होगा। सरकारें बनती बिगड़ती हैं, न कि जनता। जब सरकार और जनता के बीच परस्पर विश्वास ही नहीं जम पा रहा है या जो भी आपसी भरोसा है, वह निरंतर कम होता जा रहा है तो सरकार और किसानों के बीच, किसी भी बातचीत के तार्किक अंत तक पहुंचने की उम्मीद मुश्किल से ही की जा सकती है।

(विजय शंकर सिंह रिटायर्ड आईपीएस अफसर हैं और कानपुर में रहते हैं।)

विजय शंकर सिंह
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