तेजस्वी खड़ा मैदान में लिए रोजगार हाथ, बिहारी युवाओं ने कहा नहीं रहेंगे नीतीश के साथ!

बिहार का राजनीतिक तापमान चरम पर है। जहां पूरा देश ठंड की शुरुआती सिहरन के आगोश में है वहीं बिहार में चुनावी गर्मी परवान पर है। पहली दफा महागठबंधन की राजनीति एनडीए पर भारी पड़ती दिख रही है और तेजस्वी के तेज के सामने एनडीए निस्तेज है। चुनाव परिणाम चाहे जो भी हो लेकिन इतना तय है कि नीतीश कुमार की मुश्किलें बढ़ती जा रही हैं और युवाओं का मिजाज अंतिम समय तक नहीं बदला तो नीतीश के मंसूबों पर तेजस्वी पूरा पानी फेर सकते हैं। सच यही है कि पहले चरण के चुनाव से पहले तेजस्वी की राजनीति नीतीश की राजनीति पर भारी है और तेजस्वी ने नीतीश को अपने चक्रव्यूह में फांस लिया है।

जदयू के भीतर की सच्चाई भी विचित्र है। पार्टी के कई नेता मानते हैं कि बीजेपी के साथ जदयू का साथ अब भारी पड़ रहा है। नीतीश कुमार के पूर्व के खेल से पार्टी को हानि हो रही है और तेजस्वी के सवाल के सामने नीतीश और पार्टी को मौन रहना पड़ रहा है। लेकिन मामला इतना भर ही नहीं है। जदयू के नेताओं को सहयोगी पार्टी बीजेपी पर भी अब पहले जैसा भरोसा और विश्वास नहीं रहा। बीजेपी ने लोजपा के साथ मिलकर जो खेल किया है उससे जदयू की राजनीति तो कुंद हो ही रही है, वह कब जदयू से पलटी मार दे कोई नहीं जानता। जदयू के कई वरिष्ठ नेता इशारा करते हैं कि अगर चुनाव परिणाम एनडीए के विपरीत गया तो बिहार में एनडीए की राजनीति तो बदलेगी ही फिर उसका असर केंद्र तक जाएगा। लेकिन इस पूरे माहौल में जदयू कमजोर हो जाएगी। 

उधर बीजेपी की कहानी भी कुछ अलग ही है। बीजेपी भी जदयू नेताओं और यहाँ तक कि नीतीश की राजनीति से खुश नहीं हैं। बीजेपी को नीतीश की पलटीमार राजनीति अभी तक याद है और उसे लगता है कि जदयू आगे भी कुछ नया गुल खिला सकती है। ऐसे में बीजेपी भी फूंक -फूंक कर कदम बढ़ा रही है। कह सकते हैं कि जदयू -बीजेपी भले ही साथ हैं लेकिन किसी का किसी पर कोई भरोसा नहीं। बीजेपी मान रही रही है कि एक बार जदयू ने बीजेपी का साथ छोड़कर अपना चरित्र दिखा दिया है और महाराष्ट्र में भी बीजेपी की पुरानी सहयोगी समय मिलते ही बीजेपी को छोड़ चुकी है ऐसे में बीजेपी को लगने लगा है कि यहां कुछ भी हो सकता है।

आगे बहुत कुछ होने की संभावना है। लेकिन बिहार का मौजूदा सच यही है कि एनडीए ने लालू राज के उद्भेदन का जो नया खेल  शुरू किया अब उसी के लिए भारी हो गया है। सूबे के 45 लाख नए मतदाता जो लालू राज की कथा नहीं जानते वे हर हाल में रोजगार के मसले पर नीतीश को आड़े हाथ ले रहे हैं। यह बात और है कि राष्ट्रवाद और हिन्दू राजनीति के नाम पर बीजेपी के लोग माहौल को अपने पक्ष में करने को आतुर हैं लेकिन जिस अंदाज में धर्म और राष्ट्रवाद की राजनीति से इतर बिहारी युवा मुखर होकर सामने आ रहे हैं और बीजेपी, जदयू नेताओं को बौना दिखाने से चूक नहीं रहे ऐसे में साफ़ हो गया है कि इस बार बिहार में रोजगार की मांग सारे मुद्दों से ऊपर है। युवा कहने लगे हैं कि जब मोदी दो करोड़ रोजगार देने की बात को लागू नहीं कर पाए, नीतीश हर बार रोजगार देने के नाम पर बिहारी समाज को छलते रहे ऐसे में अगर तेजस्वी भी रोजगार के नाम पर एक बार छल करेंगे तो सहा जा सकता है लेकिन कम से कम बिहार को एक नया चेहरा तो मिलेगा। युवाओं की यह सोच एनडीए के लिए घातक है और उसकी राजनीति में छेद भी। एनडीए के सामने सबसे बड़ी चुनौती यही है।

अब एक नजर बिहार के जातीय समीकरण पर। देखना बड़ा दिलचस्प होगा कि कैसे बिहार का जातीय समीकरण अपना रुख बदल रहा है। बिहार में मौजूदा समय में लगभग 20 फीसदी मुस्लिम हैं। 16 फीसदी दलित, लगभग 7 फीसदी कोइरी, 4 फीसदी कुर्मी, तकरीबन 6 फीसदी ब्राह्मण, 5 फीसदी राजपूत, डेढ़ फीसदी कायस्थ, लगभग 4 फीसदी भूमिहार, 7 फीसदी बनिया और करीब 15 फीसदी यादव समाज के वोट हैं। अभी तक के माहौल में अगड़ी जाति के 66 फीसदी वोट एनडीए के पक्ष में जाता रहा है और मात्र 26 फीसदी वोट ही महा गठबंधन को मिलते रहे हैं। 42 फीसदी पिछड़ी जाति के वोट एनडीए के साथ और 30 फीसदी महा गठबंधन के साथ रहे हैं। इसी तरह से दलित समाज के 23 फीसदी वोट एनडीए के पक्ष में और 33 फीसदी वोट महागठबंधन के पक्ष में माना जाता रहा है।

बिहार के मुस्लिम समाज के 23 फीसदी वोट एनडीए के पक्ष में और 71 फीसदी लोग वोट महा गठबंधन को देते रहे हैं। लेकिन अबकी बार माजरा बदलता नजर आ रहा है। एनडीए को सबसे बड़ा झटका सवर्ण वोट और पिछड़ी जाती के वोट पर लगता दिख रहा है। हालांकि पिछड़ी जाति के वोट बैंक का इस बार भारी बिखराव होना तय माना जा रहा है लेकिन सवर्णों का वोट बैंक इस बार थोक के भाव में महागठबंधन के पक्ष में जाता दिख रहा है। और ऐसा हो गया तो बिहार में बड़े बदलाव की संभावना हो जायेगी। बता दें कि अगड़े समाज के अधिकतर युवा रोजगार के नाम पर बदलाव चाहते हैं। उनकी समझ है कि चाहे जो भी हो बिहार की सत्ता बदले और रोजगार का निर्माण हो, शिक्षा व्यवस्था दुरुस्त हो और पलायन रुके। सवर्णों की यह मांग लगातार तेजस्वी कर रहे हैं और महागठबंधन में शामिल लगभग सभी दल इन्हीं मांगों को लेकर चुनावी मैदान में हैं। कन्हैया से लेकर माले और राजद से लेकर कांग्रेस रोजगार और पलायन की राजनीति करके फिलहाल एनडीए पर भारी हो गए हैं।

 बिहार में बेरोजगारी की स्थिति बड़ी भयावह है। बिहार का हर चौथा स्नातक बेरोजगार है। आंकड़े बता रहे हैं कि 15 से 30 वर्ष के 48 फीसदी युवा बेरोजगार हैं जिनमें 19 फीसदी डिप्लोमा होल्डर हैं तो 26 फीसदी स्नातक बेरोजगार। तेजस्वी यादव अब इन्हीं बेरोजगारों को मलहम लगाते नजर आ रहे हैं और चुनावी मैदान में महागठबंधन की राजनीति एनडीए से काफी आगे जा चुकी है। जिस तरह से तेजस्वी की सभा में लाखों की भीड़ जुट रही है और एनडीए की सभा खाली होती जा रही है ऐसे में कहानी तो यही बनती है कि एनडीए का इकबाल कमजोर होता जा रहा है और इस बात की संभावना ज्यादा हो गई है की महागठबंधन सरकार बनाने की हालत में पहुंच सकती है।

नीतीश कुमार की मुश्किल ये है कि फिलहाल वे सभी दलों के निशाने पर हैं। एक तरफ महागठबंधन नीतीश की राजनीति और चेहरे को दागदार साबित करने में जुटा है तो दूसरी तरफ चिराग ,कुशवाहा ,पप्पू यादव से लेकर तमाम दल नीतीश को ही बिहार की बदहाली के लिए जिम्मेदार मान रहे हैं और आलम ये है कि पिछले 15 सालों में नीतीश का बिहार को दिया हर चीज पीछे जाती दिख रही है। इस पुरे खेल में बीजेपी मौन साधे खड़ी है और भविष्य के अजेंडे पर भी काम कर रही है।

 बिहार बदलाव के मूड में है और अगर बिहार की सत्ता बदल गई तो निश्चित रूप से जदयू की राजनीति के लिए खतरनाक होगा क्योंकि नीतीश के सत्ता से हटते ही जदयू टूट जायेगी .ऐसे में बिहार में आगे बीजेपी की राजनीति किस राह जाएगी देखना होगा। फिलहाल तो यही लगता है कि नीतीश की राजनीति को तेजस्वी ने फसा दिया है और ब्रांड लालू की आधुनिक राजनीति को आगे बढ़ाते हुए वह आज बिहार की सत्ता के केंद्र के नजदीक पहुँचते जा रहे हैं। तेजस्वी की यह आधुनिक राजनीति जातीय समीकरण को भी ध्वस्त कर रही है और सभी समाज के लोगो को आगे ले जाने का सन्देश भी दे रही है।

(अखिलेश अखिल वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल दिल्ली में रहते हैं।)

अखिलेश अखिल
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अखिलेश अखिल