उत्तराखंड के भू-कानून को ‘लैंड जिहाद’ के बुलडोजर ने रौंद डाला

भारत छोड़ो आन्दोलन के निर्णायक संघर्ष के बाद जब भारत की आजादी भविष्य के गर्भ में पल रही थी तो पंडित गोविन्द बल्लभ पन्त जैसे राष्ट्र नायकों के दिमाग में ख्याल आया कि अंग्रेज तो चले जायेंगे मगर लोगों को गुलाम बनाने वाले अपने ही देश के जमींदारों की गुलामी फिर भी रह जायेगी। इसलिये संयुक्त प्रान्त में भारत का पहला भूमि सुधार कानून, जमींदारी विनाश एवं भूमि व्यवस्था अधिनियम 1946 से ही बनने लगा। इसका ड्राफ्ट चौधरी चरण सिंह की देखरेख में 1948 में तैयार हुआ और देश का संविधान लागू होने के साथ ही यह अधिनियम 1950 में उत्तर प्रदेश में लागू हो गया।

इसी तरह 2000 में उत्तराखंड राज्य का गठन हुआ तो नये राज्य में भी लोगों ने अपनी जमीनें तथा सांस्कृतिक पहचान बचाने के लिये एक सख्त भू-कानून की मांग पुरजोर ढंग से उठा दी। चूंकि उदाहरण हिमाचल का पहले से ही मौजूद था इसलिये देश के सर्वाधिक अनुभवी मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी के नेतृत्व वाली पहली निर्वाचित सरकार ने जमींदारी विनाश एवं भूमि व्यवस्था अधिनियम 1950 में संशोधन करा कर हिमाचल प्रदेश काश्तकारी एवं भूमि सुधार अधिनियम 1972 की धारा 118 से कुछ-कुछ मिलता जुलता अधिनियम बना डाला। जिसमें गैर भूमिधरों के लिये केवल 500 वर्गमीटर तक आवासीय उद्देश्य से राज्य में जमीनें खरीदने की छूट रखी गयी।

बाद में भुवनचन्द्र खंडूरी के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार ने उस 500 वर्गमीटर की सीमा को घटा कर 250 कर उसका भरपूर राजनीतिक लाभ उठाया। लेकिन 2017 में राज्य में भाजपा की सरकार पुनः लौटी तो उत्तराखंड वासियों के उस चहेते भू-कानून में छेद होने शुरू हो गये। आज तिवारी के बनाये उस भू-कानून का केवल कंकाल ही शेष रह गया और पहाड़ वासियों की बेशकीमती जमीनें जमीनखोरों के पास चली गयीं।

अब लोग जब अपने भू-कानून की मांग करते हैं तो सरकार कभी लैंड जिहाद तो कभी मजार जिहाद का हव्वा खड़ा कर भू-कानून की मांग को दबा देती है। लोग भू-कानून को सदा के लिये भूल ही जायें, इसके लिये सरकार ने समान नागरिक कानून का सोसा छेड़ दिया। तर्क यह कि विधर्मियों से पहाड़ की जनसांख्यिकी सलामत रहेगी। जबकि यूसीसी का जनसांख्यिकी से कोई रिश्ता नहीं है।

नारायण दत्त तिवारी के शासनकाल में जब नया भू-कानून बन रहा था तो भूमि सौदागरों ने उस समय भी दखल दिया और अध्यादेश के बाद जो अधिनियम बना उसमें धारा 2 जुड़वा दी, जिसमें कहा गया कि अकृषक द्वारा कृषि योग्य जमीन खरीदने पर बंदिश नगरीय क्षेत्रों में लागू नहीं होगी और जब भी जिस नगर निकाय के क्षेत्र में विस्तार होगा, उन विस्तृत क्षेत्रों में भी बंदिशें स्वतः हट जायेंगी।

2017 में त्रिवेन्द्र सरकार ने सत्ता में आते ही भूमि कानून की धारा 2 की कमियों का लाभ भूमि व्यवसायियों को देने के लिये प्रदेश के 13 में से 12 जिलों के 385 गावों को नगर निकायों में शामिल कर 50,104 हेक्टेयर जमीन में खरीद फरोख्त के लिये रास्ता खोल दिया। इस मुहिम के तहत गढ़वाल मण्डल में देहरादून जिले में सर्वाधिक 85 ग्रामों के 20221.294 हेक्टेयर ग्रामीण क्षेत्र को नगर निगम के अतिरिक्त हरबर्टपुर, विकास नगर, ऋषिकेश, डोईवाला शामिल किया गया है।

लेकिन त्रिवेन्द्र सरकार के बाद उत्तराखंड विधानसभा के 14 से 17 जून 2022 तक चले बजट सत्र में मौजूदा सरकार ने उत्तराखंड (उत्तर प्रदेश जमींदारी विनाश और भूमि व्यवस्था अधिनियम, 1950) (अनुकूलन एवं उपान्तरण आदेश, 2001) में एक बार फिर संशोधन कर भूमि उपयोग परिवर्तन संबंधी धारा 143 में नयी धाराएं जोड़ने के साथ ही त्रिवेन्द्र सरकार के कार्यकाल में वर्ष 2018 में औद्योगिक प्रयोजन के नाम से जोड़ी गयी उपधारा क और ख को समाप्त कर दिया।

इस उपधारा में कहा गया था कि, ’’परन्तु यह कि राज्य सरकार अथवा जिलाधिकारी जैसी भी स्थिति हो, के द्वारा भूमि क्रय करने की दी गयी अनुमति की शर्तों का पालन न करने पर अथवा किन्हीं शर्तों का उल्लंघन करने पर अथवा जिस प्रयोजन हेतु भूमि क्रय की गयी है उससे अन्यथा प्रयोग करने पर भूमि का अन्तरण शून्य होगा एवं धारा 167 के परिणाम उत्पन्न हो जायेंगे।’’ 

यह प्रावधान इसलिये था ताकि भूमि सौदागर उद्योग के नाम पर सस्ती या रियायती जमीन खरीद कर उसे ऊंचे दामों पर न बेच सकें। धारा 143 में नवीनतम संशोधन के बाद रियायतों का फायदा उठा कर औने-पौने दामों पर जमीनें खरीदने वाले उद्योगपति और भूमि व्यवसायी अब उन्हीं जमीनों को ऊंचे दामों पर बेच कर भारी मुनाफा कमाने के लिये स्वतंत्र हो गये। यही नहीं भविष्य में भी भूमि सौदागर उद्योगों के नाम पर लोगों की जमीनें खरीद कर भारी मुनाफा कमा सकेंगे। भूमि व्यवसायियों पर अरबों रुपयों की कमाई का उपकार मुफ्त में किया गया हो, बात हजम नहीं होती।

उपरोक्त भू-कानून की धारा 167 में कलक्टर को अधिकार दिया गया है कि वह अमुक भूमि को राज्य सरकार में निहित कर उसमें उगे पेड़ों, फसल या सम्पत्ति समेत उसका कब्जा ले। इसी उपधारा में स्पष्टीकरण दिया गया है कि ’’इस धारा में उल्लिखित ‘‘औद्योगिक प्रयोजन’ शब्द के अन्तर्गत चिकित्सा, स्वास्थ्य, एवं शैक्षणिक-प्रयोजन भी सम्मिलित हैं।’’ यह स्पष्टीकरण इसलिये दिया गया क्योंकि अस्पताल एवं स्कूल आदि को भी औद्योगिक यूनिट मान लिया गया था और उसी उद्देश्य से स्कूल और निजी अस्पताल वालों ने जमीनें खरीदी थीं। लेकिन व्यवसाय न चल पाने के कारण अब वे जमीनें बेचना चाहते थे।

जमीनें हड़पने का आरोप धर्म विशेष के लोगों पर लग रहा है जबकि राज्य के अपने नेता सबसे बड़े भू-खोर साबित हो रहे हैं। प्रदेश की कथित ग्रीष्मकालीन राजधानी भराड़ीसैण के आसपास की जमीनों की खरीद फरोख्त पर 2012 में कांग्रेस सरकार ने रोक लगा दी थी जिसे भाजपा सरकार ने 2017 में सत्ता में लौटते ही हटा दिया। इसका लाभ भी नेताओं ने ही उठाया।

2020 में भराड़ीसैण में जमन सिंह नाम के एक काश्तकार की 13 नाली जमीन दो बड़े नेताओं ने 22 लाख में खरीदी। जमन सिंह सालभर के अंदर 22 लाख रुपये दारू और मुर्गों में ठिकाने लगा कर चल बसा और अब उसका नाबालिग बेटा पवन अपने बाप के किये की सजा भुगतने के लिये कभी केदारनाथ में खच्चर चलाता है तो कभी मजदूरी कर अपना और अपनी दो अनब्याही बहनों का भरण पोषण कर रहा है। राज्य के नेताओं की गिद्ध दृष्टि गैरसैण की जमीनों पर टिकी हुयी हैं।

(उत्तराखंड से जयसिंह रावत की रिपोर्ट।)

जयसिंह रावत
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