जिसके हाथ में होगी दीया-बाती, वही देशभक्त कहलाएगा!

कोरोना वायरस संक्रमण की वैश्विक चुनौती के इस दौर में दुनिया के तमाम देशों के राष्ट्राध्यक्ष अपने-अपने देशों में स्वास्थ्य सेवाओं और आपदा प्रबंधन तंत्र को ज्यादा से ज्यादा सक्रिय और कारगर बनाने में जुटे हुए हैं। इस सिलसिले में वे डॉक्टरों और विशेषज्ञों से सलाह-मशविरा कर रहे हैं। अस्पतालों का दौरा कर हालात का जायजा ले रहे हैं। प्रेस कांफ्रेन्स में तीखे और जायज सवालों का सामना करते हुए लोगों की शंकाओं को दूर करने का प्रयास कर रहे हैं, लेकिन हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ऐसा कुछ भी करते नहीं दिख रहे हैं। बावजूद इसके कि यह महामारी हमारे यहां अघोषित रूप से तीसरे चरण में प्रवेश कर चुकी है। अघोषित रूप से इसलिए कि कई कारणों से सरकार इसके तीसरे चरण में प्रवेश को स्वीकार करने से बच रही है। 

देश की स्वास्थ्य व्यवस्था का खोखलापन और इस महामारी का मुकाबला करने के लिए जरूरी संसाधनों तथा सरकार की इच्छा शक्ति का अभाव पूरी तरह उजागर हो चुका है।ऐसे में प्रधानमंत्री ने जलते-सुलगते सवालों से बचने के लिए अपनी चिर-परिचित उत्सवधर्मिता का सहारा लेते हुए इस आपदा काल को भी एक राष्ट्रीय महोत्सव में बदल दिया है। ऐसा महोत्सव जिसमें वे राष्ट्रवाद का तड़का लगाते हुए कभी ताली, थाली और घंटी बजाने का आह्वान करते हैं तो कभी दीया और मोमबत्ती जलाने का।

ताली, थाली, घंटा और शंख बजाने के आयोजन के बाद अब ‘मां भारती’ का अपने अंत:करण से स्मरण करते हुए रविवार की रात को नौ बजे, नौ मिनट तक दीया, मोमबत्ती, टार्च या मोबाइल फोन की फ्लैश लाइट जलाने का आह्वान किया गया है। झाड़-फूंक या तंत्र-मंत्र करने वाले किसी ओझा-तांत्रिक की तर्ज पर किया गया यह आह्वान राष्ट्रवाद का वह बाजारू संस्करण है, जो हमेशा जरूरी मसलों को कार्पेट के नीचे सरका देता है। 

शब्दों की बाजीगरी दिखाने में हमारे प्रधानमंत्री का कोई सानी नहीं है। कोरोना काल में तीसरी बार देश से मुखातिब होते हुए उन्होंने इस बाजीगरी का भी भरपूर प्रदर्शन किया। कहा जा सकता है कि देश ने शुक्रवार को प्रधानमंत्री का भाषण नहीं, बल्कि उनका प्रलाप सुना। उनके इस प्रलाप से जाहिर हो गया कि इतने बड़े संकट से निपटने के लिए न तो उनके पास कोई दृष्टि है, न कोई योजना है और न ही कोई इच्छा शक्ति।

प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में गरीबों का जिक्र जरूर किया, लेकिन इस लॉकडाउन की अवधि में उन गरीबों का जीवन कैसे चलेगा, सरकार के पास उनके लिए क्या योजना है, इसका कोई जिक्र उनके भाषण में नहीं था। बिना किसी तैयारी के अचानक लागू इस लॉकडाउन की वजह से महानगरों और बड़े शहरों से लाखों प्रवासी मजदूर अपने-अपने गांवों की ओर पलायन कर गए हैं। असंगठित क्षेत्र के करोड़ों लोगों के सामने न सिर्फ रोजगार का बल्कि लॉकडाउन की अवधि में अपना और अपने परिवार का पेट भरने का भी संकट खड़ा हो गया है। ऐसे करोड़ों लोगों को प्रधानमंत्री के भाषण से मायूसी ही हाथ लगी। 

उन्होंने जोर देकर कहा कि सोशल डिस्टेंसिंग को हर हालत में बनाए रखना है। इस बात पर कोई बहस नहीं हो सकती कि कोरोना वायरस के संक्रमण फैलने से रोकने के लिए लोगों का घरों में रहना जरूरी है। लोगों के आपस में मेल मुलाकात बंद करने को इससे बचाव का बड़ा तरीका माना जा रहा है, जिसे दुनिया के दूसरे देश पहले से ही अपना रहे हैं। मगर सवाल है कि जो परिवार एक कमरे में या झुग्गी-झोपड़ियों में गुजर-बसर करता है, वे लोग सोशल डिस्टेंसिंग को कैसे बनाए रखेंगे?

प्रधानमंत्री से उम्मीद थी कि वे देशवासियों से मुखातिब होते हुए इन लोगों के बारे में सरकार की ओर से कुछ फौरी उपायों का ऐलान करेंगे, कोरोना संक्रमण की चुनौती का सामना करने को लेकर सरकार की तैयारियों के बारे में देश को जानकारी देंगे और आश्वस्त करेंगे। उम्मीद यह भी थी कि प्रधानमंत्री इस बेहद चुनौती भरे वक्त में भी सांप्रदायिक नफरत और तनाव फैला रहे अपने समर्थक वर्ग और मीडिया को कड़ी नसीहत देंगे। लेकिन उन्होंने ऐसा कुछ नहीं किया। 

डॉक्टरों को फार्मा कंपनियों द्वारा लड़कियां सप्लाई किए जाने की जानकारी रखने वाले प्रधानमंत्री ने देश को इस बारे में भी कोई जानकारी नहीं दी कि कोरोना संक्रमित लोगों का इलाज कर रहे डॉक्टरों और नर्सों को एन 95 मॉस्क, पीपीई मटीरियल से बने दस्ताने, एप्रिन, कोरोना जांच किट और अस्पतालों को वेंटिलेटर की पर्याप्त सप्लाई कब तक हो जाएगी।

सवा ग्यारह मिनट के अपने संबोधन में प्रधानमंत्री ने सिर्फ और सिर्फ इस संकट की घड़ी में देश की एकजुटता प्रदर्शित करने पर जोर दिया और इस सिलसिले में नौ मिनट तक अपने घरों की सारी लाइटें बंद कर दीया, मोमबत्ती, टार्च आदि जलाने का आह्वान किया। कहने की जरूरत नहीं कि प्रधानमंत्री का यह आह्वान देश के खाए-अघाए तबके यानी संपन्न और मध्य वर्ग के लिए ही है, क्योंकि आर्थिक और मानसिक तौर पर यही वर्ग इस आह्वान का पालन करने में समर्थ है।

तो ताली, थाली और घंटी बजाने के आयोजन के बाद एक बार फिर उच्च और मध्य वर्ग प्रधानमंत्री के दीया-मोमबत्ती और टार्च जलाने के आह्वान को भी अपने सिर माथे लेगा। इंतजार कीजिए 5 अप्रैल की रात 9 बजने का, जब देश में लंबे समय से गृहयुद्ध का माहौल बनाने में जुटे और सरकार के ढिंढोरची की भूमिका निभा रहे तमाम न्यूज चैनलों के कैमरे उन लोगों के उत्साह से दमकते चेहरे दिखाएंगे, जिनके हाथों में डिजाइनर दीये या मोमबत्तियां होंगी, कीमती मोबाइल फोनों के चमकते फ्लैश होंगे और होठों पर भारत माता की जय तथा वंदे मातरम का उद्घोष होगा। कुछ क्षणों के लिए वक्त का पहिया थम जाएगा, कोरोना के डरावने आँकड़े टीवी स्क्रीन से गायब हो जाएंगे और पर पीड़ा का आनंद देने वाली पाकिस्तान की बदहाली की गाथा का नियमित पाठ भी थम जाएगा। भक्तिरस में डूबे तमाम चैनलों के मुग्ध एंकर हमें बताएंगे कि कैसे एक युगपुरुष के आह्वान पर पूरा देश एकजुट होकर ज्योति पर्व मना रहा है। 

कहने या बताने की जरूरत नहीं कि जिन इलाकों में लाइटें बंद नहीं होगी और दीया, मोमबत्ती, टार्च या मोबाइल की फ्लैश लाइट की रोशनी नहीं होगी या जो लोग इस प्रहसन में शामिल नहीं होंगे उन्हें देशद्रोही करार दे दिया जाएगा।

(अनिल जैन वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल दिल्ली में रहते हैं।)

अनिल जैन
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