फैसला जनता को करना है, अवाक लोकतंत्र चाहिए या बोलता लोकतंत्र

3 मार्च, 2024 पटना का प्रसिद्ध गांधी मैदान एक फिर ऐतिहासिक बदलाव को हवा में तरंगित करने में कामयाब हो गया। निश्चित रूप से इस रैली का भारी प्रभाव भारत की चुनावी राजनीति पर पड़े बिना नहीं रह सकता है। जो राजनीतिक व्याख्याकार नीतीश कुमार के इंडिया गठबंधन को छोड़कर भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन में शामिल होने को विपक्ष की राजनीति आंधी में उड़ता तिनका लग रही थी, उन्हें अपनी व्याख्याओं और कहानियों पर फिर से विचार करना चाहिए। जिस तेजी और कारगर तरीके से बिहार की राजनीति में तेजस्वी यादव ने अपना स्थान बनाया है, निश्चित रूप से उसके परिणाम दूरगामी होंगे!

आदर्श आचार संहिता (Model Code of Conduct) जाग गई है। किसी भी समय 2024 के आम चुनाव की अधिसूचना केंद्रीय चुनाव आयोग दे सकता है। उस के बाद आचार संहिता पूरी तरह लागू हो जायेगी और उस का ‘आदर्श’ नागरिक कसौटी पर आ जायेगा। पर सभी राजनीतिक दल अपनी-अपनी रणनीति को लेकर चौकस हैं। राजनीतिक पैंतरों और उसके परिणामों का आकलन कर रहे हैं। हार कोई दल या गठबंधन नहीं रहा है, सवाल यह है कि ‘संविधान सापेक्ष लोकतंत्र’ और ‘संविधान निरपेक्ष लोकतंत्र’ में से कौन जीतेगा।

आम नागरिकों की नजर इस बात पर नहीं लगी हुई है कि कौन-सा दल या गठबंधन जीतेगा, बल्कि यह कि किस के जीतने से उस के लिए कौन-कौन-सी संभावनाएं जगेंगी और कौन-कौन-सी आशंकाएं समाप्त होंगी। बेरोजगारी का क्या होगा? महंगाई का क्या होगा? सामाजिक अन्याय और आर्थिक अन्याय का क्या होगा? संविधान प्रदत्त जन-अधिकारों का क्या होगा? महिलाओं के प्रति भेदभाव और अत्याचारों का क्या होगा? पिछड़ा, दलित और अल्पसंख्यकों से संबंधित मुद्दों का क्या होगा? सामाजिक समरसता और संसाधनिक संतुलन का क्या होगा?

बहु-स्तरीय भागीदारी और हिस्सेदारी का क्या होगा? सांप्रदायिक उन्मादों का क्या होगा? जनविद्वेषी बयानबाजी (Hate Speech) का क्या होगा? खेतीबारी और ग्रामीण अर्थव्यवस्था का क्या होगा? कुल मिलाकर सवाल यह है कि आम चुनाव के परिणाम से आम जनता के सवालों और समस्याओं के जवाबों और निदानों की संभावनाओं का क्या होगा! सत्ता तो किसी-न-किसी दल या गठबंधन को मिलेगी ही, आम जनता को क्या मिलेगा! फैसला आम जनता को अपना हित समझते हुए करना है।

एक बात साफ-साफ समझ में आ रही है कि 2024 का यह आम चुनाव सच और झूठ के बीच का भी है। जब कभी राजनीतिक झूठ की बात उठती है तो, गोएबल्स का नाम जरूर आता है। गोएबल्स की बहुचर्चित उक्ति है-एक झूठ को अगर कई बार दोहराया जाए तो वह सच बन‎ जाता है।‎ कौन था यह गोएबल्स! डॉ जोसेफ गोएबल्स पत्रकार था और 1933 से 1945 तक नाजी जर्मनी का मिनिस्टर ऑफ प्रोपेगेंडा ‎था।‎

बहुत संक्षेप में याद करने की जरूरत है। 1933 में हिटलर जर्मनी की सत्ता में‎ आया और उसने नस्लवाद को राजसत्ता से जोड़ दिया। उसने यहूदियों को अ-‎मानुष (Subhuman) करार दिया। 1939 में दूसरा विश्वयुद्ध भड़का।यहूदियों‎ के समूल नाश के लिए हिटलर ने “अंतिमहल- Final Solution” में लग‎ गया। हिटलर दुनिया के सभी यहूदियों को मार देने को “Holocaust- पूर्ण‎ आहुति” कहा।

हिटलर यह भूल गया कि किसी एक समुदाय पर किये‎ जाने वाले अत्याचार का असर दुनिया के अन्य समुदायों पर भी पड़ा है। ‎विभिन्न कारणों से दुनिया जरूर राष्ट्रों में बंटी है। मनुष्य के मनुष्य बनने का ‎इतिहास बताता है कि पूरी दुनिया में मनुष्य के विकास की क्रम-बद्धता मूल‎रूप से एक ही रही है। मनुष्य की एकता ने ही विश्व-नागरिकता या अपने-‎पराये की परिधि के पार उदार-चरित वसुधैव कुटुंब की आकांक्षा को बल‎ दिया।

झूठ को बार-बार कहकर सच मनवा लेने के विश्वास ने दुनिया पर क्या कहर ढाया। यह इतिहास में दर्ज है। 1933 से 1945 तक नाजी जर्मनी का मिनिस्टर ऑफ प्रोपेगेंडा रहते हुए गोएबल्स ‘झूठ’ को ‘सच’ बनाने के खेल में लगा रहा। गोएबल्स का खेल तो खत्म हो गया लेकिन वह दुनिया भर के ‘राजनीतिक झूट्ठों’ को जनविद्वेषी बयानबाजी (Hate Speech) का राह दिखला गया‎।

गोएबल्स ने भले ही ‎‘झूठ’ को ‘सच’ बनाने‎ की बात भले ही की और उसका कड़वा फल चखा हो, लेकिन दुनिया की राजनीति में छुप-छुप के यह खेल तो गोएबल्स के पहले से ही विश्व राजनीति में जारी था। इसे परख कर ही महात्मा गांधी ने राजनीति में सत्य अहिंसा पर जोर देना शुरू किया था। तब विश्व सत्ता को महात्मा गांधी की राजनीति में सत्य अहिंसा के महत्व की बात समझ में आने लगी। सीधी सी बात है-सत्य का अनिवार्य संबंध हित से है। हितों के टकराव की स्थिति में ‘सच और झूठ’ का बहुरंगी खेल शुरू होता है।

भारत में मुंडक उपनिषद में उल्लिखित है-सत्यमेव जयते नानृतंसत्येन पन्था विततो देवयानः। येना क्रमंत्यृषयो ह्याप्तकामो यत्र तत्सत्यस्य परमं निधानम्॥ सत्य की जय होती है,अनृत (मिथ्या) की नहीं। यहीं से हमें ‘सत्यमेव जयते’ का पाठ मिला जो हमारे लोकतंत्र के राज-चिह्न पर अंकित हुआ है। ‎‎महात्मा बुद्ध ने अपने विचारों को आर्य सत्य कहा-चार आर्य सत्य तो विश्वविख्यात ‎हैं। आर्य का एक अर्थ श्रेष्ठ भी होता है।

सत्य पर भारत में तो बहुत चर्चा रही है। भारत में ही क्यों पूरी दुनिया में सत्य के स्वरूपों पर चर्चा रही है। आज-कल रामानंद की भी बहुत चर्चा है। उन्हीं की परंपरा के रामानुज ‎ने सत्य को व्यवहार योग्यता से जोड़ा। अनुरूपता, अविरोध और व्यवहार योग्यता सत्य के जितने भी सैद्धांतिक स्वरूप हैं, वे एक‎‎ दूसरे के पूरक जरूर हैं और उन सभी में हित का खयाल अवश्य है।‎‎‎‎‎

‘सत्यमेव जयते’ ‎दुहराते हुए जीत के लिए झूठ का सहारा लेना कभी कम‎ नहीं हुआ। राहुल गांधी की भारत जोड़ो न्याय यात्रा में मुद्दों के दुहराव पर ‘कुछ लोगों’ को एतराज हो रहा है। उन्हें लगता है, उनके भाषणों में दुहराव से उसके प्रति आकर्षण कम हो रहा है। इस बात में कितना दम है! इस पर सोचे जाने की जरूरत है। एक बात तो यह है कि सच का एक ही संस्करण होता है, झूठ कई होते हैं।

हमारे समय में पुराना मुहावरा बहुत कारगर हो रहा है-बार-बार दुहराने से झूठ, सच हो जाता है। सच हो जाना विश्वास योग्य हो जाना है। ऐसा लगता है, भारतीय राजनीति में यह समय झूठ के दहाड़ने और सच के हकलाने का समय है। राहुल गांधी सच की हकलाहट को दूर करते हुए झूठ की दहाड़ की पोल खोल रहे हैं। न्याय यात्रा में मुद्दों के दुहराव पर‎ जो लोग चिंतित हैं, उन्हें इस बात पर गौर करना होगा कि झूठ को जितनी बार दुहराया जायेगा, दुहराव की परवाह किये बिना सच उस से अधिक बार मुहं खोलकर अपनी हकलाहट दूर करने की कोशिश करेगा।

लोकतंत्र में सरकार का मतलब जनता होता है। सरकार के हाथ में उत्पादन के साधनों का मालिकाना न हो तो उत्पादों के वितरण में सम्यक संतुलन का अभाव होना लाजिमी है। वितरण काअ संतुलन अंतत: सामाजिक विषमता में परिणत होता है।आर्थिक ही नहीं, सामाजिक विषमता पूंजी और वर्चस्व के अतिकेंद्रण से पैदा है और बाद में पूंजीवाद को दूध पिलाकर पोसती रहती है।

भारतीय परिप्रेक्ष्य में सामाजिक और आर्थिक विषमता का एक बड़ा और गहरा कारण जाति व्यवस्था की पदानुक्रमिकता और उसमें श्रेष्ठ-हीन होने का भाव और संसाधनिक वर्चस्व भी है। कहना न होगा कि विषमताओं को प्रोत्साहन पूंजीवाद से तो मिलता ही है, जातिवाद से भी मिलता है। एक बात और जिसका ध्यान रखना जरूरी है, जातिवाद को आज के समय में ‘हिंदुत्व की राजनीति’ से भी बल मिलता है। हालांकि, ‘हिंदुत्व की राजनीति’ अपने को जातिवाद से ऊपर दिखाने कोशिश करती रहती है। उन का इरादा संतुलन के लिए समकारक उपायों के निषेध और वोटाकर्षण के व्यायाम से ज्यादा कुछ नहीं है।

सामाजिक परिवर्तन के लिए किया गया कोई भी हितकर प्रयास श्रम और संपत्ति के संबंधों में बदलाव, संसाधनों के वितरण, चिरंतन विकास को भूमंडलीय पर्यावरण के संदर्भों से जोड़कर ही संभव होता है; राजकीय उपकरणों के उपयोग के बिना यह संभव नहीं हो सकता है।

सत्ता का भ्रष्ट होना मनुष्य जीवन और सार्वजनिक व्यवस्था के अपार दुख का कारण होता है। सत्ता के भ्रष्टाचार को समझना जरूरी होता है। इसके विभिन्न रूपों को पहचानना मुश्किल और उससे पार पाना लगभग असंभव होता है। इससे बचने का यही एक उपाय है, व्यवस्था में सम्यक संतुलन बनाये रखने के लिए आशंकित त्रुटियों की पहचान और निवारण के लिए कारगर तंत्र को सतत सक्रिय बनाये रखना। पोसुआ पूंजीवाद (क्रोनी कैपटलिज्म) राजसत्ता को समाज विमुख बना देता है। परम न्याय और नैसर्गिक न्याय की बात तो अपनी जगह, आम नागरिकों के लिए सापेक्षिक न्याय के मिलने का भी रास्ता निरापद नहीं रह जाता है।

चुनावी राजनीति का संघर्ष राजसत्ता पर अधिकार के लिए होता है। शक्ति और नैतिकता की पारस्परिकता के संबंधों को परखने वालों के अनुसार शक्ति नैतिक जनाकांक्षाओं के प्रति लापरवाह बनाती है। निरंकुशता सत्ता की अंतर्निहित आकांक्षा होती है। निरंकुशता की पूर्णता में सत्ता अपनी पूर्णता अर्जित करती है। कहावत के रूप में दार्शनिक कथन प्रचलित है कि सत्ता भ्रष्ट करती है, पूर्ण सत्ता पूर्ण रूप से भ्रष्ट करती है। निरंकुशता पूर्णता की तरफ न बढ़े इसके लिए संसदीय लोकतंत्र में मजबूत विपक्ष का अंकुश जरूरी होता है। सत्ता के झूठ का दहाड़ना और विपक्ष के सच का हकलाना लोकतंत्र को अवाक कर देता है! फैसला जनता को करना है, अवाक लोकतंत्र चाहिए या बोलता लोकतंत्र!

(प्रफुल्ल कोलख्यान स्वतंत्र लेखक और टिप्पणीकार हैं)

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