केजरीवाल की गिरफ्तारी को लेकर दुनिया भर की निगाह के मायने

आज दिल्ली की राउज एवेन्यू कोर्ट ने दिल्ली में शराब आबकारी नीति में बदलाव कर 100 करोड़ रुपये लेने के कथित आरोप में दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल की हिरासत की अविधि को 4 दिनों के लिए बढ़ा दिया है। बता दें, अरविन्द केजरीवाल को एक सप्ताह पूर्व 21 मार्च की रात को उनके आवास से ईडी के द्वारा हिरासत में ले लिया गया था। चूंकि आज उन्हें हिरासत में रखे जाने का अंतिम दिन था, इसलिए ईडी को उन्हें अदालत में पेश करना पड़ा। 

अरविन्द केजरीवाल की गिरफ्तारी ऐसे समय में की गई है, जब देश में आम चुनाव की औपचारिक घोषणा हो चुकी है। इसके अलावा ईडी की छापेमारी में यह पहला सबसे बड़ा हाई प्रोफाइल मामला है, जिसमें किसी राष्ट्रीय पार्टी के मुखिया को निशाना बनाया गया है। भाजपा, कांग्रेस के बाद आम आदमी पार्टी (आप) ही वह तीसरी पार्टी है, जो दो-दो राज्यों (दिल्ली, पंजाब) में सरकार चला रही है। 

कई लोग जर्मनी और अमेरिकी विदेश विभाग की ओर से अरविन्द केजरीवाल की गिरफ्तारी पर चिंता व्यक्त करने पर आपत्ति जता रहे हैं। भारतीय विदेश मंत्रालय की ओर से जर्मनी और अमेरिकी विदेश विभाग की टिप्पणी पर कड़ी आपत्ति दर्ज की जा चुकी है, और उनके राजनयिकों को दिल्ली में बुलाकर इसका सार्वजनिक प्रदर्शन भी देश देख चुका है। 

समचार एजेंसी रायटर्स के साथ अपनी बातचीत में अमेरिकी विदेश विभाग के प्रवक्ता ने दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को ईडी की हिरासत में लिए जाने पर अपनी टिप्पणी में उनके साथ निष्पक्ष, पारदर्शी एवं समयबद्ध क़ानूनी प्रकिया की उम्मीद जताई थी। जर्मनी के बाद अमेरिका से भी ऐसी प्रतिक्रिया आ सकती है, इसकी उम्मीद शायद भारत सरकार ने नहीं की होगी। बुधवार को विदेश मंत्रालय ने दिल्ली में अमेरिकी मिशन की कार्यवाहक उप प्रमुख ग्लोरिया बेर्बेना को तलब किया था और करीब 40 मिनट तक उनके साथ बातचीत का दौर चला। 

अमेरिकी विदेश विभाग की टिप्पणी के 24 घंटे बाद जाकर भारतीय विदेश मंत्रालय ने इस पर अपनी कड़ी प्रतिक्रिया व्यक्त की थी। इसमें कहा गया था कि कूटनीति में उम्मीद की जाती है कि किसी भी राष्ट्र को दूसरे देश की सार्वभौमिकता एवं आंतरिक मामलों का सम्मान करना चाहिए। विशेषकर मित्र लोकतांत्रिक देशों के मामले में तो यह जिम्मेदारी और अधिक बढ़ जाती है। भारत की कानून व्यवस्था स्वतंत्र न्यायपालिका पर आधारित है, जो निष्पक्ष एवं समयबद्ध फैसला देने के लिए प्रतिबद्ध है। इस पर संदेह जताना गलत है।

भारतीय विदेश मंत्रालय के द्वारा की गई इस कड़ी टिप्पणी पर राजनीतिक हलकों में चर्चा का बाजार गर्म रहा, और कुछ लोग इसे मोदी युग में भारत के बढ़ते प्रभाव से जोड़ रहे हैं। लेकिन इसके कुछ देर बाद ही कल अमेरिकी विदेश विभाग ने एक बार फिर भारत के घटनाक्रम पर टिप्पणी करते हुए फिर एक बार अपनी वचनबद्धता को दोहराकर भारतीय कूटनीति को सवालों के घेरे में खड़ा कर दिया है। इस बारे में एक-आध समाचारपत्रों को छोड़ दें तो किसी ने भी तवज्जो देना जरुरी नहीं समझा, जो बताता है कि मोदी सरकार की तरह भारतीय समाचारपत्रों के लिए भी चुनाव के मद्देनजर भाजपा के पक्ष में नैरेटिव बनाने में ही रूचि है।

कल शाम को खबर आई कि अमेरिकी विदेश विभाग भारत में अरविन्द केजरीवाल की गिरफ्तारी से जुड़े घटनाक्रम पर अपनी नजर बनाये रखने जा रहा है, और अमेरिका निष्पक्ष, पारदर्शी और समयबद्ध न्यायिक प्रक्रिया को बढ़ावा देता रहेगा। 

अमेरिकी विदेश विभाग के प्रवक्ता मैथ्यू मिलर ने भारत में दिल्ली के मुख्यमंत्री की गिरफ्तारी और कांग्रेस के बैंक खाते सीज कर दिए जाने पर अमेरिकी प्रतिकिया पर टिप्पणी करते हुए कहा, “हम दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल की गिरफ्तारी के साथ जुड़े घटनाक्रमों पर नजदीकी निगाह बनाये हुए हैं। हम कांग्रेस पार्टी के उन आरोपों से भी परिचित हैं, जिसमें उनके कुछ बैंक खातों को भारत की टैक्स अथॉरिटी के द्वारा लेन-देन से प्रतिबंधित कर दिया गया है, जिसके कारण कांग्रेस पार्टी के लिए आगामी चुनावों में अपना प्रभावी तरीके से चुनाव अभियान चला पाना एक चुनौती बना हुआ है।” 

मिलर ने अपने वक्तव्य में आगे कहा, “हम इन सभी मुद्दों पर निष्पक्ष, पारदर्शी और समयबद्ध क़ानूनी प्रक्रिया को प्रोत्साहित करते हैं। आपके पहले प्रश्न के संबंध में कहना चाहता हूं कि मैं इसके लिए किसी भी निजी कूटनीतिक वार्ता के पक्ष में नहीं हूं। हमने सार्वजनिक स्तर पर जो कहा, वह वही कहा है जो मैंने अभी यहां पर कहा है कि हम निष्पक्ष, पारदर्शी और समयबद्ध न्यायिक प्रक्रिया के पक्ष में हैं। हमें नहीं लगता किसी को भी इस बात से आपत्ति होगी।”

अमेरिकी विदेश विभाग के द्वारा दो दिनों में इस विषय पर दूसरी टिप्पणी पर आज विदेशी मामलों के प्रवक्ता रंधीर जायसवाल ने एक बार फिर दोहराया है कि, “देश के बाहर से किये जाने वाले कोई भी आरोप “पूरी तरह से अस्वीकार्य” हैं। कल भारत ने अमेरिकी दूतावास की एक वरिष्ठ अधिकारी को तलब कर अमेरिकी विदेश मंत्रालय की टिप्पणियों पर कड़ा एतराज जताया था। अमेरिकी विदेश मंत्रालय की ओर से हालिया टिप्पणी गैर-जरुरी है। हमारी चुनावी और क़ानूनी प्रकिया पर ऐसी कोई भी विदेशी आरोप पूरी तरह से अस्वीकार्य है। भारत में क़ानूनी प्रक्रिया पूरी तरह से कानून के राज के तहत है। जिस किसी नही देश में ऐसी परंपरा है, विशेषकर निष्पक्ष लोकतांत्रिक देशों में, उन्हें इस सच्चाई की सराहना करने से कोई परहेज नहीं होना चाहिए। भारत को अपने स्वतंत्र लोकतांत्रिक संस्थाओं पर गर्व है।”

भारतीय विदेश मंत्रालय की कड़ी टिप्पणी के बाद भी अमेरिका क्यों अड़ा हुआ है?

यह वह रोचक प्रश्न है, जिसको लेकर कई सवाल खड़े हो रहे हैं। हाल के वर्षों में भारत-अमेरिका संबंध नई ऊंचाइयों को छू रहे हैं। रूस-यूक्रेन युद्ध में नाटो देशों का नेतृत्व करने वाले अमेरिका ने भारत के द्वारा रूस से अंधाधुंध तेल आयात को नजरअंदाज किया। दरअसल अमेरिका की निगाह में भारत न सिर्फ एक बड़ा बाजार बनकर उभर रहा है, बल्कि चीन-ताइवान मुद्दे पर वह भारत को अपनी भू-राजनैतिक हितों के लिए नया साझीदार बनते देखना चाहता है। दक्षिण एशिया में चीन के बढ़ते प्रभाव और भारत-चीन सीमा विवाद के चलते भारत के पास विकल्पहीनता की स्थिति उत्पन्न हो चुकी है। चीन-रूस के बीच तेजी से बढ़ते मित्रतापूर्ण संबंध आज एक नई ऊंचाई पर जा चुके हैं। भारतीय कॉर्पोरेट और उच्च मध्य वर्ग तो शुरू से ही अमेरिका-परस्त रहा है, और अमेरिका-चीन रिश्तों में आई खटास में उसे अपने लिए नई संभावना नजर आती है।

इस सबके बावजूद अमेरिका की दिलचस्पी भारतीय लोकतंत्र पर बनी हुई है। दुनिया के विभिन्न देशों में लोकतंत्र को बचाने की अमेरिकी मुहिम से आज अधिकांश लोग परिचित हैं। इजराइल के द्वारा फिलिस्तीनियों के जघन्य नरसंहार में परोक्ष साथ देने वाले अमेरिका को भारत के लोकतंत्र में इतनी दिलचस्पी यूँ ही नहीं पैदा हो रही है। इसके पीछे उसका खुद का स्वार्थ है। सबसे पहली बात, अमेरिकी सरकार को अपने देश में मौजूद लोकतांत्रिक शक्तियों के प्रति औपचारिक जवाबदेही बनती है, जिसके लिए उसके विदेश मंत्रालय को ज्वलंत मुद्दों पर टिप्पणी करनी पड़ती है। इसके अलावा, सबसे महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि भारत सहित विश्व के विभिन्न देशों के शासकों पर दबाव डालकर अपने मनमाफिक नीतियों के लिए उन्हें तैयार करने का काम। 

अमेरिका जानता है कि आज चुनाव के ऐन मौके पर भारतीय विदेश मंत्रालय भले ही जवाबी टिप्पणी में अमेरिका को ही खरी-खोटी सुना रहा है, लेकिन ऐसा करके दोनों ही देश अपने-अपने घरेलू मतदाताओं को संतुष्ट करने में सफल रहने वाले हैं। इसी वर्ष अमेरिका में भी राष्ट्रपति पद के लिए चुनाव होने हैं, और डेमोक्रेटिक उम्मीदवार के तौर पर मौजूदा राष्ट्रपति जो बाइडेन के लिए इस बार का चुनाव एक टेढ़ी खीर साबित होने जा रहा है। ऐसे में, अमेरिकी सरकार अपने एक-एक वोट की चिंता कर रही है। सभी जानते हैं कि अमेरिका और पश्चिमी मीडिया अपनी पर आ जाये तो पलक झपकते ही किसी भी देश के निजाम के खिलाफ विषाक्त माहौल बना सकता है। लेकिन यहां पर वह टिप्पणी के जवाब में अपने पूर्व बयान को ही दोहराकर भारतीय न्यायालय और विपक्ष से उम्मीद कर रहा है।

ईडी को हासिल असीमित अधिकार और पूंजीवादी लोकतंत्र की सीमा  

अब देश ही नहीं दुनिया भी भारत में प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) को हासिल असीमित शक्तियों से धीरे-धीरे परिचित हो रहे हैं। दिल्ली में कथित शराब घोटाले में आम आदमी पार्टी (आप) के लगभग सभी शीर्ष नेतृत्व को ईडी अपनी गिरफ्त में ले चुकी है। इतना ही नहीं, इस मामले में बीआरएस सुप्रीमो की बेटी कविता तक को हिरासत में ले लिया गया है। 

लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने जबसे एसबीआई को इलेक्टोरल बांड मामले में खुलासा करने के लिए दबाव बनाया, और आज सारा घोटाला उजागर हो चुका है, उसने बहुसंख्यक भारतीयों को भले ही अभी तक अपनी जद में न लिया हो, लेकिन तमाम बुद्धिजीवी, न्यायिक प्रकिया से जुड़े लोग और कार्यपालिका तक चौकन्ना हो चुकी है। लोगों को साफ़ कहते सुना जा सकता है कि आप पार्टी को तो कथित शराब घोटाले में आरोपी शरत रेड्डी के बयान के आधार पर ईडी के द्वारा धर-पकड़ की जा रही है। लेकिन इलेक्टोरल बांड्स के खुलासे में तो साफ़-साफ़ दिख रहा है कि कैसे उक्त आरोपी से पहले भाजपा ने ही इलेक्टोरल बांड में जमकर चंदा वसूला और ऊपर से आप पार्टी के नेताओं पर एक के बाद एक इल्जाम लगाकर गिरफ्तार करवाया। 

अरविन्द केजरीवाल और उनके सहयोगियों ने 100 करोड़ रूपये की रिश्वत ली है या नहीं, इस तथ्य को तो अभी भारत की अदालत में साबित करना बाकी है। लेकिन इसी शराब लाइसेंस हासिल करने वाले आरोपी ने इलेक्टोरल बांड्स खरीद कर खुद को ईडी के चंगुल से कैसे छुड़ाया, इसका सुबूत तो खुद एसबीआई द्वारा जारी इलेक्टोरल बांड्स चीख-चीखकर दे रहा है। जर्मनी, अमेरिका सहित सारी दुनिया भारतीय लोकतंत्र के इस पतन की कहानी में भरपूर दिलचस्पी ले रहा है। उसके सामने 1947 और भारत-पाकिस्तान विभाजन के बाद का इतिहास है। पाकिस्तान और बांग्लादेश में चुनावी लोकतंत्र के प्रहसन के बाद दक्षिण एशिया में भारत भी क्या उसी राह पर चल निकला है, सभी की दिलचस्पी इसी तथ्य पर लगी है। चूंकि सभी देशों के दूतावास देश की राजधानी दिल्ली में हैं, इसलिए स्वाभाविक रूप से दुनियाभर की दिलचस्पी में झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन नहीं अरविन्द केजरीवाल हैं।

(रविंद्र पटवाल जनचौक संपादकीय टीम के सदस्य हैं)

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