किसान आंदोलन का समाधान राजनीतिक दृष्टि से ही मुमकिन न कि पुलिस के जोर पर

किसान आंदोलन अब एक नए फेज में आ गया है। लाल किला की घटना के बाद, इस आंदोलन के नेताओं को अब अपनी रणनीति पर नए सिरे से विचार करना होगा। राजनीतिक दलों को जनहित के इस मुद्दे पर आगे आना होगा और उनसे जुड़ना होगा। हर आंदोलन किसी न किसी राजनीतिक निर्णय से ही उपजता है, चाहे वह उक्त निर्णय के समर्थन में उपजे या विरोध में। इस किसान आंदोलन का समाधान भी राजनीति से ही होगा न कि, पुलिस या प्रशासनिक तंत्र द्वारा। पुलिस और प्रशासनिक तंत्र भी राजनीतिक तंत्र का एक विस्तार की तरह हो रहा है। पहले अब एक नज़र इस आंदोलन की क्रोनोलॉजी पर डालते हैं।

यह आंदोलन 26 नवंबर को नहीं शुरू हुआ है। यह आंदोलन 5 जून को जब आपदा में अवसर ढूंढते हुए कुछ चहेते पूंजीपतियों के लिए तीन कृषि कानून अध्यादेश के रूप में लाए गए तब से शुरू हुआ है। तब भी किसान नाराज़ थे, उनकी कुछ शंकाएं थीं। पर सरकार न तो उन शंकाओं के निराकरण के लिए कुछ सोच रही थी और न ही, उसने किसानों से कोई बात की।

20 सितंबर को राज्यसभा में हंगामे के बीच अवसर तलाशते हुए सरकार ने यह तीनों कानून, उपसभापति के दम पर पारित करा दिए। तभी इनका व्यापक विरोध पंजाब में हुआ और किसान संगठनों ने कहा कि वे 25 नवंबर 2020 को दिल्ली कूच करेंगे। पंजाब में यह आंदोलन चलता रहा। पर दिल्ली आराम से थी। क्या आंदोलन की गंभीरता के बारे में इंटेलिजेंस ने नहीं बताया था?

तब भी सरकार ने इसे गंभीरता से नहीं लिया और न ही इन कानूनों के बारे में किसानों को आश्वस्त किया। यह कहा कि यह तो पंजाब के मुट्ठी भर आढ़तियों का आंदोलन है। जब कि ऐसी बात बिल्कुल नहीं थी। फिर इसमें हरियाणा के किसान जुड़े और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसान संगठन भी जुड़ने लगे। बाद में राजस्थान, मध्य प्रदेश और अन्य जगहों से भी खबरें आने लगीं कि वहां भी किसानों में असंतोष है।

26 नवंबर को किसान दिल्ली की सीमा पर आ गए और वे सरकार द्वारा बुराडी मैदान में जाने की पेशकश ठुकरा कर सिंघु सीमा पर जम गए। फिर यह जमावड़ा, टिकरी, ग़ाज़ीपुर और शाहजहांपुर सीमा पर भी फैल गया। आंदोलन मजबूत हो रहा था, पर सरकार को लग रहा था कि यह मुट्ठी भर फर्जी किसान हैं। विपक्ष द्वारा भड़काए गए और टुकड़े-टुकड़े गैंग वाले खालिस्तानी लोग हैं।

सरकार और भाजपा आईटी सेल के अतिरिक्त कोई भी इस आंदोलन की गंभीरता को लेकर भ्रम में नहीं था। तब भी सरकार के मंत्री, भाजपा आईटी सेल इसे खालिस्तान समर्थक और विभाजनकारी बताते रहे। किसान यह कहते रहे कि वे जब तक मांगें नहीं मानी जाएंगी तब तक वापस नहीं जाएंगे। पर सरकार तब तक यह समझाने में नाकाम रही कि कैसे यह तीनों कृषि कानून किसानों के हित में हैं।

फिर शुरू हुआ बातचीत का दौर और कुल दर्जन भर बातचीत का दौर चला। एक बार सबसे ताकतवर मंत्री अमित शाह ने भी बातचीत की। पर वे भी नहीं समझा पाए। सरकार यह तो बार-बार कह रही है कि कानून किसान हित में है पर वह यह समझा नहीं पा रही है कि किस क्लॉज से किसानों का क्या हित है। 22 जनवरी की अंतिम बातचीत तक उहापोह और गतिरोध बना रहा और सरकार इन कानूनों के किसान हितैषी बिंदु, तब तक समझा नहीं पाई।

सरकार शुरू से ही इस आंदोलन में विपक्ष की राजनीतिक साज़िश खोजती रही और दूसरी तरफ इसके प्रशासनिक समाधान के भरोसे रही। सरकार ने अपने सांसदों विधायकों आदि को क्यों नहीं भेजा, जब 5 जून के अध्यादेश के बाद किसानों में असंतोष उपज रहा था, तभी, इस कानून की खूबियां बताने के लिए सक्रिय कर दिया? कम से कम इससे सरकार को भी ज़मीनी फीडबैक मिल सकता था और यह भी हो सकता था कि किसानों की कुछ शंकाओं का समाधान भी हो जाता।

26 जनवरी को जो कुछ भी लाल किले पर हुआ, वह निंदनीय है और सबसे शर्मनाक तथ्य यह है कि उस हंगामे का मास्टर माइंड दीप सिद्धु नामक एक युवक है, जो भाजपा के गुरदासपुर से सांसद, सन्नी देओल का बेहद करीबी है। उसकी प्रधानमंत्री और गृह मंत्री के साथ मिलने वाली फ़ोटो उसकी सत्ता के बेहद उच्च स्तर संपर्कों को बताती हैं। पर यह बात अलग है कि अब उससे भाजपा के लोग किनारा कर चुके हैं।

संप्रभुता का प्रतीक लाल किला अब डालमिया ग्रुप के पास रख रखाव के लिए है। अर्थव्यवस्था खराब होने से, तमाम सरकारी कंपनियां इन गिरोहबंदी पूंजीपतियों को बेची ही जा रही हैं, क्योंकि सरकार इतनी कमज़ोर और कुप्रबंधन से ग्रस्त है कि वह अपनी कंपनियां भी ढंग से नहीं चला पा रही हैं। कम से कम लाल किला, जो देश के राजनीतिक शक्ति और संप्रभुता का प्रतीक है उसे तो इन पूंजीपतियों से बचाए रखा जाए। लाल किला केवल लाल पत्थरों से बनी एक भव्य इमारत ही नहीं है। 1857 के पहले विप्लव के समय जब मेरठ छावनी से सैनिकों ने कूच किया तो उन्होंने लाल किला आकर अंतिम मुग़ल सम्राट बहादुरशाह जफर को अपनी क्रांति का नेता चुना।

जब आज़ाद हिंद फौज का ट्रायल शुरू हुआ तो इसी किले के एक अंश में सलीमगढ़ में अदालत लगी और आईएनए के बहादुर योद्धाओं का कोर्ट मार्शल हुआ। यहीं से वह समवेत स्वर गूंजा था,
लाल किले से आई आवाज़,
सहगल ढिल्लों शाहनवाज!

इसी मुकदमे में देश के ख्याति प्राप्त वकीलों ने आईएनए की तरफ से पैरवी की। जवाहरलाल नेहरू ने वकालत छोड़ने के सालों बाद काला कोट और गाउन पहना और वे अदालत के सामने बहैसियत वकील उपस्थित हुए।

इसी लाल किले पर हर साल स्वाधीनता दिवस को प्रधानमंत्री ध्वजारोहण करते हैं। ऐसे संप्रभुता और गौरव के प्रतीक को एक निजी कंपनी को रखरखाव के लिए देने का निर्णय स्वाभिमान को आहत करना है। सरकार के पास, केंद्रीय पीडब्ल्यूडी, आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया, मिलिट्री इंजीनियरिंग सर्विस, पर्यटन मंत्रालय और म्यूजियम निदेशालय आदि विभाग हैं और सरकार सिर्फ इसलिए डालमिया को यह किला सौंप दे कि यह सारे विभाग, खुद को, इस महान धरोहर को संरक्षित करने में सक्षम नहीं हो पा रहे हैं, यह दुःखद और शर्मनाक दोनों है।

लाल किला का वर्तमान झंडा विवाद किसान आंदोलन और तीनों कृषि कानूनों से ध्यान हटाने की साज़िश है। हमें फिर से उन कानूनों की खामियों और उनके पीछे छिपे कॉरपोरेट की सर्वग्रासी अजदहेपन की चर्चा शुरू कर देनी चाहिए।

किसान कानूनों में सबसे मौलिक सवाल है कि किसानों को उनके उपज का उचित मूल्य मिलना चाहिए या नही। हर व्यक्ति यह कहेगा यह मूल्य मिलना चाहिए। किसानों को उचित मूल्य मिले, इसीलिये एपीएमसी सिस्टम और न्यूनतम समर्थन मूल्य की व्यवस्था सरकार ने की है। एमएसपी की दर को लेकर बराबर यह विवाद होता रहा है कि यह दर कम है। इसी विवाद को हल करने के लिए सरकार ने डॉ. एमएस स्वामीनाथन की अध्यक्षता में एक आयोग का गठन किया। डॉ. एमएस स्वामीनाथन ने अपनी संस्तुति में एमएसपी को लागू करने का एक सूत्र दिया जिसे सी-2+50% कहते हैं।

इसे अब तक किसी भी सरकार ने लागू नहीं किया और न ही यह बताया कि इसे क्यों नहीं लागू किया जा रहा है या लागू नहीं किया जा सकता है। साल 2014 और 2019 के चुनाव घोषणापत्र में भाजपा ने, जो इसे संकल्पपत्र कहते है, में यह वादा किया था कि वह इसे लागू करेंगे, लेकिन बाद में सुप्रीम कोर्ट में इसी सरकार ने, यह हलफनामा दे दिया कि इसे लागू करना संभव नही है। इसे लागू करना संभव क्यों नहीं है यह बात भी सरकार को बताना चाहिए।

अब नए कृषि सुधार के अंतर्गत यह तीन कानून आए हैं, जिनमें समानांतर मंडी सिस्टम लाया गया है। पर सरकारी और निजी मंडी सिस्टम में निम्न अंतर हैं,
● सरकारी सिस्टम में अनाज एमएसपी पर खरीदा जाता है और खरीदा जाएगा।
● इस मंडी सिस्टम में 6% मंडी टैक्स भी  लगता है।
जबकि निजी मंडी सिस्टम, जो समानांतर मंडी सिस्टम के रूप में नए कानून में लाया जा रहा है में,
● फसल की कीमत बाजार तय करेगा।
● एमएसपी पर खरीद की कोई बाध्यता नहीं रहेगी।
● निजी मंडी पर कोई टैक्स नहीं रहेगा।
● कोई भी व्यक्ति जिसके पास पैनकार्ड है वह उपज खरीद सकता है।

अब अगर फसल की कीमत जब बाजार तय करेगा तो, जिसका बाजार पर वर्चस्व या प्रभाव रहेगा वही कीमतों को नियंत्रित भी करेगा। बाजार की मनमानी से ही तो किसानों को बचाने के लिए एपीएमसी सिस्टम और एमएसपी की व्यवस्था की गई है। अब इन नए कानूनों में, उसे ही कमजोर कर दिया जा रहा है।

इसके अलावा इन तीन कृषि कानूनों में एक कानून जमाखोरी को वैध बनाने का है। उक्त कानून के अनुसार, कोई भी कंपनी, कॉरपोरेट या व्यक्ति असीमित संख्या में अपनी आर्थिक हैसियत के अनुसार, फसल खरीद सकता है और उसका भंडारण असीमित समय तक के लिए कर सकता है। यानी चाहे जिस दाम पर तय हो खरीदो और जब तक चाहो गोदाम में भरे रहो। दाम का उतार चढ़ाव बाजार तय करेगा। खरीदने में किसान को कम कीमत मिलेगी यह उसका नुकसान है, और जब यही माल बाजार में बिकेगा तो महंगी दर पर उसे उपभोक्ता खरीदेंगे तो यह उपभोक्ता का नुकसान है।

कमाई बिचौलियों की होगी, जिसे हटाने की बात सरकार कह रही है। पर वे हट नहीं रहे हैं। उनकी जगह एक आधुनिक और कॉरपोरेट बिचौलिए का तंत्र खड़ा हो जाएगा। वर्तमान आढ़तिया गांव कस्बे या आसपास का ही कोई गल्ला व्यापारी होता है, जिससे किसान के पुराने सामाजिक संबंध और तालमेल रहता है। शोषण, कम कीमत वहां भी एक समस्या है। पर उस समस्या का निदान नहीं किया जा रहा है, शोषक का स्वरूप बदल रहा है। शोषण का कॉरपोरेटीकरण किया जा रहा है। स्थानीय आढ़तिया जहां किसानों के सामाजिक और ताल्लुकाती दबाव में रहता है वहां वह कॉरपोरेट किसी न किसी नेशनल या मल्टीनेशनल कंपनी का कोई गुर्गा होगा, जो किसानों के लिए अंजान भी होगा और कुछ हद तक अमानुष भी।

अब यहीं एक सवाल उठता है कि,
● जब सरकार खुद एमएसपी पर किसान की उपज खरीद रही है तो वह निजी मंडियों को भी एमएसपी पर खरीदने के लिए कानूनन बाध्य क्यों नहीं कर सकती है?
● निजी मंडियों को टैक्स से छूट क्यों है?
● एमएसपी न्यूनतम समर्थन मूल्य है। इससे कम कीमत पर खरीद को दंडनीय कानून बनाने में सरकार को क्या दिक्कत है?

किसानों की कांट्रैक्ट फार्मिंग की आशंकाएं हैं। उसे अगर दरकिनार कर दिया जाए तो फिलहाल सबसे बड़ी समस्या है किसानों को उनकी उपज का उचित मूल्य मिले। इसके लिए सरकार क्या कर रही है यह सवाल उठाना न तो गलत है और न ही देशद्रोह।

सरकार यह तो कह रही है कि वह न्यूनतम समर्थन मूल्य एमएसपी की व्यवस्था बरकरार रखेगी। पर कैसे? यह किसी मित्र को पता हो तो बताएं।

6 साल से देश में सारी अव्यवस्था भाजपा आईटी सेल के अनुसार चीन और पाकिस्तान द्वारा फैलाई जा रही हैं। अब उसमें खालिस्तान का एंगल और शामिल हो गया है। क्या सरकार इतनी निकम्मी और कमज़ोर है कि इसे यह सब पता है कि कौन अराजकता फैला रहा है फिर भी, अराजकता फैलाने वालों के खिलाफ वह कुछ कर नहीं पा रही है? इस आंदोलन और किसान असंतोष को राजनीतिक रूप से हैंडल न कर पाने का दोष सरकार पर है, पर जैसी तस्वीरें, 26 जनवरी को सुबह दिल्ली के कुछ इलाक़ों से आ रही थीं वे बेहद चिंतित करने वाली थीं।

राजनीतिक निर्णयों के खिलाफ उठा जन आंदोलन राजनीतिक सूझबूझ और दृष्टि से ही हल किया जा सकता है, न कि उसे कानून व्यवस्था का सवाल बनाकर सुरक्षा बलों और पुलिस के बल पर। प्रधानमंत्री जी को चाहिए कि अब वे इस जटिल समस्या के समाधान के लिए खुद हस्तक्षेप करें। उनके मंत्री, इस समस्या के समाधान के लिए या तो अनुपयुक्त हैं, या बेबस हैं या वे नाकाबिल हैं।

अब बहुत देर हो चुकी है। 26 जनवरी को जो कुछ भी दिल्ली में हुआ है, उससे साफ-साफ लग रहा है कि यह आंदोलन बिना अपने मकसद को प्राप्त किए समाप्त नहीं होगा। सरकार को, जो इस कानून को होल्ड करने पर सहमत है, तो उसे चाहिए कि वह, इसे वैधानिक प्रक्रिया के अंतर्गत वापस ले ले और यदि सरकार के पास सच में कृषि सुधार के ऐसे कार्यक्रम हैं, जिनसे किसानों के हित सध रहे हैं तो उसे पुनः विचार विमर्श के बाद लाए। आज तटस्थ रहने का समय नहीं है। तटस्थता एक शातिर अपराध है। दांते का यह उद्धरण पढ़ें, “नर्क की सबसे यातनापूर्ण जगह उनके लिए सुरक्षित रखी रहेगी, जो नैतिकता के इस संकट काल में, तटस्थता की तरफ हैं।”

(विजय शंकर सिंह रिटायर्ड आईपीएस अफसर हैं और कानपुर में रहते हैं।)

विजय शंकर सिंह
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विजय शंकर सिंह