रोडवेजकर्मियों की कुर्बानी भी नहीं बन सकी चुनावी मुद्दा!

क्या हरियाणा को एक साल पहले हुआ रोडवेज कर्मचारियों का शानदार आंदोलन याद होगा? हरियाणा रोडवेज को निजीकरण से बचाने के लिए रोडवेज कर्मचारियों ने 16 अक्तूबर से 2 नवंबर तक 18 दिनों की ऐतिहासिक हड़ताल की थी। सर्व कर्मचारी संघ से जुड़ी हरियाणा रोडवेज कर्मचारी यूनियन और दूसरी सहयोगी यूनियनों के पदाधिकारियों को इस दौरान हिंसा, मुकदमे और दूसरी अमानवीय कार्रवाइयों का सामना करना पड़ा था। क्या जनता को इस बात का मामूली भी ख़याल होगा कि उसके सवालों को लेकर चलाए गए इस आंदोलन में कर्मचारी नेताओं पर हत्या की प्रयास के आरोप की धारा 307 के झूठे मुकदमे भी चल रहे हैं?

भारतीय जनता पार्टी ने अपने पांच साल के कार्यकाल की उपलब्धियों और राज्य की जनता के वास्तविक मुद्दों पर बात करने के बजाय चुनाव को कश्मीर और अनुच्छेद 370 पर केंद्रित रखने की कोशिश की। लेकिन, विपक्ष भी जनता के सवालों को चुनाव के केंद्र में ला पाने में नाकाम रहा। विपक्ष लस्त-पस्त न होता तो हरियाणा रोडवेज भी एक बड़ा मुद्दा हो सकता था। सरकारी नौकरियां देने में ईमानदारी बरतने का प्रदेश सरकार का बहुचर्चित दावा भी इस मुद्दे से कसौटी पर होता। गौरतलब है कि कर्मचारियों का यह ऐसा आंदोलन था जिसमें वेतन, पेंशन, भत्तों जैसी उनके व्यक्तिगत हितों से जुड़ी कोई मांग थी ही नहीं।

हरियाणा की भाजपा सरकार ने देश के सबसे बेहतरीन रोडवेज बेड़े में करीब 700 प्राइवेट बसें घुसाने की प्रक्रिया शुरू की थी तो हरियाणा रोडवेज कर्मचारी यूनियन ने जबरदस्त विरोध किया था। जनता के संसाधन और उसकी यात्रा के इस बड़े जरिये और उसे रोजगार देने वाले इस बड़े इदारे को बचाने के लिए किए गए इस संघर्ष में सरकार के पास ट्रेड यूनियनों के सीधे सवालों का कोई जवाब नहीं था। पैसे की कमी के सरकार के बहाने के जवाब में रोडवेज और दूसरे महकमों के कर्मचारियों ने अपना वेतन उपलब्ध कराने का प्रस्ताव रखा था तो उनके साथ बहुत सी ग्राम पंचायतों ने भी खुले दिल से मदद की मुहिम छेड़ दी थी। बौखलाई सरकार ने प्रदेश में कई जगहों पर आंदोलनकारी कर्मचारियों पर दमनात्मक कार्रवाइयां की थीं। हिंसा के साथ ही करीब 1874 कर्मचारियों पर झूठे मुकदमे लाद दिए गए थे। 

क्लर्क की परीक्षा देने के बाद अंबाला छावनी में बस की छत पर बैठ व लटककर अपने घरों की ओर जाते परीक्षार्थी। फोटो – संदीप कुमार

नेतृत्व में शामिल कर्मचारियों को खासतौर से निशाना बनाया गया था। भिवानी में रोडवेज कर्मचारियों के आंदोलन में सहयोग करने के कारण हरियाणा राजकीय अध्यापक संघ के वरिष्ठ नेता वज़ीर सिंह घनघस और जनवादी महिला समिति की पदाधिकारी उनकी पत्नी बिमला घनघस को एक क्लीनिक से उठाकर जेल में डाल दिया गया था जहां उन्हें बेहद अपमानजनक कारगुजारियों का सामना करना पड़ा था। घनघस दंपती के मुताबिक, वे सामाजिक जन आंदोलनों में पहले भी जेल गए पर इस बार उन्हें गैरकानूनी ढंग से शत्रुतापूर्वक बर्ताव का सामना करना पड़ा। घनघस दम्पती उन कर्मचारियों में शामिल हैं जिन पर धारा 307 के तहत भी झूठे केस लादे गए हैं। इतने दमन के बावजूद कर्मचारी हर क़ुर्बानी के लिए अडिग थे तो सरकार ने कोर्ट का दरवाजा खटखटा कर हड़ताल ख़त्म करा दी थी।

सवाल है कि जनता के लिए किए गए कर्मचारियों के इस ऐतिहासिक आंदोलन की जनता के बीच क्या स्मृति है। एक महीना पहले ही हरियाणा में क्लर्क भर्ती के लिए आयोजित की गई प्रवेश परीक्षा के दौरान बसों के अभाव में परीक्षार्थियों की जो गत बनी, उससे भी यह मुद्दा अहम हो जाना चाहिए था। इस परीक्षा के लिए जैसे-तैसे अवैध वाहनों में लदे-लटके युवाओं की मौतों ने प्रदेश को झकझोर दिया था पर अफ़सोस कि विपक्ष इसे गंभीरता से मुद्दा नहीं बना सका। शायद इसकी वजह इन पार्टियों का निजीकरण के मसले पर खुद भी पाक-साफ़ न होना हो।

हरियाणा रोडवेज कर्मचारी यूनियन के महासचिव शरबत सिंह पूनिया कहते हैं कि कई पार्टियों ने कई तरह के वादे तो किए हैं पर निजीकरण के मसले पर स्पष्ट रूप से मुखर होने से पल्ला झाड़ लिया है जबकि यह जनता से जुड़ा बहुत बड़ा मसला है। उन्होंने बताया कि प्रदेश की जनसंख्या और उसकी ज़रूरतों को देखते हुए हरियाणा रोडवेज को 14 हजार बसों की जरूरत है। 1992-93 में हरियाणा रोडवेज में 3884 बसें थीं। तब प्रदेश की जनसंख्या लगभग एक करोड़ थी। आज प्रदेश की जनसंख्या करीब तीन करोड़ है तो रोडवेज बसों की संख्या महज 3500 है। पांच साल पहले भाजपा सत्ता में आई थी तो इन बसों की संख्या 4507 थी। इस सरकार के दौरान रोडवेज में प्राइवेट बसें घुसाने और निजीकरण के इरादे ज़्यादा भयानक ढंग से सामने आए।

सवाल यही है कि जनता की मूलभूत जरूरतों से जुड़े मसले क्या अप्रासंगिक हो गए हैं। क्या जनता अपने मसलों पर रिस्पॉन्ड नहीं करती है? शरबत पूनिया कहते हैं कि ऐसा नहीं है। रोडवेज कर्मचारियों की हड़ताल को जनता का भारी समर्थन मिल रहा था जिससे सरकार परेशान हो उठी थी। दिक्कत यह है कि मीडिया जिस तरह लगातार सरकार के भोंपू की तरह काम कर रहा है, उससे जनता पर साम्प्रदायिक और जातिवादी उन्माद का असर पड़ता है। विपक्ष भी जनपक्षधर भूमिका निभाने में ईमानदार नहीं रहता।

फोटो – साभार HR 97

पुनिया की बात में दम है। जाट-गैर जाट के इर्द-गिर्द घुमाई जाती रही हरियाणा की राजनीति पिछले पांच सालों में व्यापक जातीय हिंसा और सरकार की संदिग्ध भूमिका की साक्षी रही है। भाजपा के लिए यह सबसे ज़्यादा दुधारू रहा है। ऐसे में बिजली, पानी रोजगार जैसे मसलों को तो भाजपा के एक सीनियर नेता रामविलास शर्मा ने सार्वजनिक रूप से पिटे हुए मुद्दे कहने में भी झिझक नहीं दिखाई। हद तो यह है कि गाय को मुद्दा बनाने वाली भाजपा ने हरियाणा में आते ही जो कड़ा कानून बनाया था और एक साल के भीतर सड़कों पर ‘गौवंश’ घूमता न दिखाई देने का वादा किया था, वह भी पूरी तरह खोखला साबित हुआ।

सड़कें और किसानों के खेत ही इन पशुओं के अभ्यारण्य बने रहे। जहां तक वादापरस्ती की बात है तो भाजपा अपने लोगों को सेट करने के लिहाज से ज़रूर पास रही। प्रदेश में सरकारी खर्च पर एक समानांतर ढांचा खड़ा कर दिया गया। वरिष्ठ पत्रकार सतीश त्यागी की एक पंक्ति ही इसे समझने के लिए काफ़ी है। वे कहते हैं कि यह समझने के लिए वेबसाइट के सहारे हरियाणा के सीएम ऑफिस के प्राइवेट स्टाफ की उत्तर प्रदेश जैसे विशाल राज्य के सीएम ऑफिस की तुलना ही ही काफी है। हरियाणा विधान सभा चुनाव जिन परिस्थितियों में हो रहे हैं, कहना चाहिए कि राजनीतिक दलों से ज़्यादा जनता के विवेक का इम्तिहान हैं।

लेकिन क्या ईवीएम का भी इम्तिहान है? दिलचस्प यह है कि जिस ईवीएम को लेकर भाजपा के विपक्षी दल सेटिंग का आरोप लगाते रहे हैं, उसकी सेटिंग का दावा हरियाणा का एक भाजपा उम्मीदवार और निवर्तमान विधायक ख़ुद एक चुनाव प्रचार कार्यक्रम में करने के बाद सुर्खियों में है। बख्शीस सिंह विर्क का यह वीडियो मतदान से एक दिन पहले सोशल मीडिया पर वायरल हो रहा है।

(धीरेश सैनी जनचौक के रोविंग एडिटर हैं।)

   
धीरेश सैनी
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