रेडिकल रप्चर है कांग्रेस का यह फैसला

मंदिर उद्घाटन के निमंत्रण को ससम्मान अस्वीकार करके कांग्रेस ने एक बेहद साहसिक फैसला लिया है। यह मौजूदा दौर की राजनीति और खास कर कांग्रेस के लिहाज से मील का पत्थर साबित हो सकता है। यह कांग्रेस के लिए नेहरू के बाद से शुरू हुई राजनीति में भी एक रेडिकल बदलाव का संकेत है। वह कांग्रेस जो इंदिरा गांधी के बाद राजीव गांधी के रास्ते और नरसिंहराव और मनमोहन तक नरम हिंदुत्व के सहारे राजनीति कर रही थी और कमोबेश इस मामले में आरएसएस और बीजेपी की पिछलग्गू बनी हुई थी। उसमें यह फैसला एक रेडिकल रप्चर साबित होने जा रहा है। यह इस दौर की कांग्रेस की जरूरत भी बन गयी थी। क्योंकि कांग्रेस के लिए अब नरम हिंदुत्व में कुछ बचा नहीं था। और उसके नाम पर अब एक फासीवादी जमात की राजनीति को आगे बढ़ाने के अलावा उसको कुछ नहीं मिल रहा था।

यह कैसे हुआ और कांग्रेस इसको कैसे कर पाई यह समझना बेहद जरूरी है। कोई भी आंदोलन हो या कि पार्टी या फिर कोई संगठन इस बात में कोई शक नहीं कि उसमें उसके नेतृत्व की भूमिका बेहद निर्णायक होती है। और यह बात अब किसी से छुपी नहीं है कि मौजूदा समय में कांग्रेस को वैचारिक नेतृत्व देने का काम राहुल गांधी कर रहे हैं। और जिस तरह से उन्होंने अपने पहले के नेताओं से अलग जाकर आरएसएस को निशाने पर लिया है वह अपने आप में अभूतपूर्व है। इस बात का साहस कांग्रेस में नेहरू के बाद का कोई नेतृत्व नहीं कर सका था। और जिसका नतीजा रहा कि कांग्रेस सिकुड़ती गयी और संघ के नेतृत्व में बीजेपी समेत दक्षिणपंथी फासीवादी जमात आगे बढ़ती गयी। और आज देश के एक बड़े हिस्से में फैलकर कांग्रेस मुक्त भारत का नारा दे रही है।

राहुल गांधी इस बात को समझ गए कि इस देश के भीतर भड़कने वाले सांप्रदायिक दंगे और देश में होने वाले हर तरह के अन्याय और उत्पीड़न के पीछे संघी सोच और उसकी कारगुजारियां शामिल रही हैं। लिहाजा समस्या की जड़ आरएसएस है। यह न केवल देश के लोकतंत्र के खिलाफ है। बल्कि किसी भी लोकतंत्र को सफल करने के लिए जरूरी सेकुलर सोच से भी इसका छत्तीस का रिश्ता है। और जिस देश में लोकतंत्र और सेकुलरिज्म नहीं रहेगा वहां फिर कुछ भी नहीं बचेगा। अगर कुछ होगा तो वह तानाशाही होगी। राजशाही होगी। दक्षिणपंथी ताकतों का फासीवादी वर्चस्व होगा। और भारत में यह जमात अगर सफल हुई तो वह अपनी पुरानी ब्राह्मणवादी चिंतन, गैरबराबरी की सोच के साथ फिर से पूरे समाज पर काबिज हो जाएगी। संसद समेत सारी संस्थाओं को बारी-बारी से पंगु करने की मौजूदा दौर की घटनाएं इसी तरफ इशारा करती हैं। जो आखिरी उम्मीद न्यायपालिका से थी उसकी भी सीमाएं उजागर हो चुकी हैं और उसका असली चेहरा भी सामने आ चुका है।

ऐसे में इन संस्थाओं के बल पर इन फासीवादी ताकतों को रोकना दिन में सपने देखने जैसा है। कांग्रेस में कम से कम एक व्यक्ति ने इस बात को समझ लिया है। वह है राहुल गांधी। अपनी पहली ‘भारत जोड़ो यात्रा’ के जरिये उन्होंने यह बात बताने की कोशिश की कि इन अंधेरे की इन ताकतों को चुनौती दी जा सकती है। और समाज में एक बड़ा हिस्सा है जो इनके खिलाफ है। वह नफरत और घृणा नहीं बल्कि प्रेम और भाईचारे में विश्वास करता है। और किसी भी देश की समृद्धि और विकास का रास्ता नफरत की राजनीति के जरिये नहीं बल्कि भाईचारे के सूत्र में बंधकर ही आगे बढ़ सकता है। 

और इसके साथ ही उन्होंने यह भी समझ लिया कि यह लड़ाई संस्थाओं के जरिये नहीं बल्कि अब सड़क पर लड़ी जानी है। लिहाजा सड़क की ताकत को मजबूत करना फासीवाद से लड़ने वाली ताकतों का पहला कार्यभार हो जाता है। और ‘भारत जोड़ो यात्रा’ की सफलता का ही नतीजा था कि अब वह ‘भारत जोड़ो न्याय यात्रा’ निकालने जा रहे हैं। और यह यात्रा पिछली यात्रा से इस रूप में अलग होगी कि इसमें जनता के बुनियादी मुद्दे भी शामिल होंगे। इसमें रोजगार, महंगाई से लेकर सबको न्याय दिलाने की गारंटी शामिल होगी। बहरहाल हम एक दूसरी दिशा में आगे बढ़ गए। तो मैं बात कर रहा था कांग्रेस के इस साहसिक फैसले की। इस फैसले को लेने के पीछे ऊपर मैंने एक कारण बताया। अब दूसरा कारण जो है वह है तो तात्कालिक लेकिन इस फैसले तक पहुंचने में उसने बेहद प्रभावी भूमिका निभायी है।

दरअसल बीजेपी-संघ को लग रहा था कि वह राम मंदिर के जरिये न केवल 24 के चुनाव का एजेंडा सेट कर देंगे बल्कि इसी कड़ी में तमाम विपक्षी दलों की घेरेबंदी कर उन्हें हाशिये पर फेंक देंगे। इस मामले में दक्षिणपंथी जमात और उसका भोंपू मीडिया लगातार कांग्रेस को निशाने पर रखे हुए था। और शुरू से ही यह बहस चलायी जा रही थी कि कांग्रेस इसमें शामिल होगी या नहीं? उसके कौन नेता इस समारोह में जाएंगे? लेकिन कांग्रेस अभी कोई फैसला लेती उससे पहले ही पूरा एजेंडा बैकफायर करने लगा। हिंदू खेमे में ही इस आयोजन को लेकर तमाम तरह के अंतरविरोध खड़े हो गए और एक-एक कर जब वह सामने आने लगे तो अब बीजेपी हमलावर होने की जगह खुद रक्षात्मक भूमिका में जाने के लिए मजबूर हो गयी है।

शुरुआत पुरी के शंकराचार्य निश्चलानंद से हुई जिन्होंने पूरे आयोजन पर ही प्रश्न चिन्ह खड़ा कर दिया। उन्होंने कहा कि एक राजनेता उद्घाटन करेगा और हम साधु-संत सामने खड़े होकर ताली बजाएंगे? ऐसा नहीं होने जा रहा है। और इस तरह से उन्होंने कार्यक्रम में शामिल होने से ही इंकार कर दिया। उसके बाद शंकराचार्य अविमुक्तानंद सरस्वती ने मोर्चा संभाला। उन्होंने पूरे आयोजन को ही राजनीतिक आयोजन करार दे दिया। इसी बीच राम मंदिर न्यास के मुख्य कर्ताधर्ता चंपत राय के एक बयान ने तो आग में घी डाल दिया। जब उन्होंने कहा कि शैव, शाक्त और वैष्णवों का इस मंदिर से कुछ लेना देना नहीं है। यह मंदिर रामानंदियों का है। और वही इसमें भाग लेंगे। यह बयान आते ही अविमुक्तानंद ने चंपत राय पर निर्णायक हमला बोल दिया।

उन्होंने कहा कि अगर ऐसा है तो फिर आप वहां क्या कर रहे हैं? प्राण प्रतिष्ठा से पहले मंदिर छोड़िए और उसे रामानंदियों के हवाले कर दीजिए। इसी के साथ ही बाकी दो शंकराचार्यों ने भी कार्यक्रम में हिस्सा लेने से इंकार कर दिया। अब जिस हिंदू धर्म में ये चारों पीठें सबसे महत्वपूर्ण मानी जाती हों और उनके शंकराचार्य उससे जुड़े किसी कार्यक्रम से खुद को दूर कर लें। उस कार्यक्रम की भला क्या साख रह जाएगी?

और पूरे आयोजन को जिस तरह से संघ और बीजेपी नियंत्रित कर रहे हैं और उसे 2024 के चुनावी लाभ-हानि के हिसाब से निर्धारित कर रहे हैं। उससे यह बात साफ हो गयी थी कि यह कोई धार्मिक नहीं बल्कि शुद्ध रूप से एक राजनीतिक आयोजन है। और इसका संज्ञान किसी और ने नहीं बल्कि संघ-बीजेपी के खेमे से ही लिया जाने लगा। जब मंदिर आंदोलन की फायरब्रांड नेता उमा भारती को यह कहना पड़ा कि रामभक्ति पर केवल हमारा कॉपीराइट नहीं है। और दूसरों का भी उतना ही अधिकार है जितना हमारा।

यह सिलसिला बढ़ता ही जा रहा है। ताजा मामला मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान का आया है जिन्होंने कहा है कि 22 तारीख को वह भी मंदिर के उद्घाटन में हिस्सा लेने नहीं जा रहे हैं। इसके साथ ही उन्होंने यह भी बताया है कि पार्टी के नेतृत्व ने उन्हें ऐसा करने के लिए कहा है। इससे पहले पार्टी आडवाणी और जोशी को उद्घाटन में आने से मना कर चुकी है। अब किसी के लिए यह अंदाजा लगाना मुश्किल है कि एक तरफ उन विपक्षी दलों की बीजेपी घेरेबंदी कर रही है जो कार्यक्रम में हिस्सा नहीं ले रहे हैं। और दूसरी तरफ जो खुद कारसेवक रहे हैं और मंदिर निर्माण में जिनकी निर्णायक भूमिका रही है उनको जाने से वह रोक रही है।

लेकिन शंकराचार्यों के फैसले और बीजेपी-संघ के भीतर उपजे इन अंतरविरोधों ने कांग्रेस को इस फैसले पर पहुंचने में मदद पहुंचायी। जैसा कि बयान में कांग्रेस ने खुद कहा है कि यह आयोजन बीजेपी-और संघ का है। और धार्मिक न होकर बिल्कुल राजनीतिक है। इसके साथ ही कांग्रेस इस बात को कह सकती है कि जिस आयोजन में देश के चारों पीठों के शंकराचार्य ही नहीं हिस्सा ले रहे हैं उसे कोई हिंदू आयोजन कैसे कहा जा सकता है? लिहाजा संघ और बीजेपी जो कल तक अयोध्या के बहाने कांग्रेस समेत दूसरी विपक्षी पार्टियों की घेरेबंदी करने की कोशिश कर रहे थे अब वही सवालों के घेरे में आ गए हैं। और इसके पहले सीपीएम ने सीधे तौर पर इस निमंत्रण को खारिज कर दिया था।

टीएमसी प्रमुख ममता बनर्जी ने कल ही इसे नौटंकी करार दिया है। सपा मुखिया अखिलेश यादव ने यह कह कर कि किसी ऐसे नेता के निमंत्रण पर भला वह क्यों जाएंगे जिसे वह जानते तक नहीं। दरअसल वीएचपी के कुछ अज्ञात नेता उनके घर जाकर निमंत्रण पत्र छोड़ आए थे। जिसके बाद सपा मुखिया अखिलेश की यह प्रतिक्रिया आयी थी। इसके साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि उनको किसी बुलावे की जरूरत नहीं है। और उनके आराध्य राम जब उन्हें बुलाएंगे तो वह खुद ही उनके दर्शन करने चले जाएंगे। इस तरह से विपक्षी खेमे का एक-एक कर इस आयोजन के बायकॉट का सिलसिला शुरू हो गया है। और अगर यही सिलसिला जारी रहा तो एक दिन ऐसा आएगा जब यह पूरा आयोजन संघ और बीजेपी का बन कर रह जाएगा और वही लोग इसमें शामिल होंगे जो या तो उनके प्रभाव में होंगे या फिर दबाव में। 

(महेंद्र मिश्र जनचौक के फाउंडिंग एडिटर हैं।)

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