यह मुद्रास्फीति नहीं है, बल्कि कॉरपोरेट की लोभस्फीति है

महंगाई आसमान छू रही है। मध्यवर्ग के बड़े हिस्से में भी रोजमर्रा के घरेलू इस्तेमाल की वस्तुओं की बेतहाशा बढ़ती क़ीमतों का दबाव बढ़ गया है। खाद्य पदार्थों की बढ़ी हुई क़ीमतों के कारण मेहनतकश और ग़रीबों का तो जीना मुहाल हो गया है।

ऐसे में मुद्रास्फीति पर चर्चा भी तेज हो गयी है। मुद्रास्फीति की दर का अर्थ होता है सामान्य क़ीमतों में वृद्धि की दर। मुद्रास्फीति दो कारणों से होती है। उत्पादन की लागत बढ़ने से, या बाजार में मांग बढ़ने से। किसी वस्तु की क़ीमत में तीन चीजें शामिल होती हैं,

मजदूरी पर किया गया खर्च, कच्चे माल व उत्पादन के ढांचे की लागत और पूंजीपति का मुनाफा। मजदूरी बढ़ने या कच्चे माल व अन्य लागतों पर व्यय के बढ़ने से क़ीमत का बढ़ना सामान्य बात है। इससे क़ीमतें तो बढ़ती हैं, लेकिन कंपनियों का मुनाफा नहीं बढ़ता है। लेकिन आंकड़े बता रहे हैं कि कोविड महामारी के बाद से क़ीमतों में मजदूरी का प्रतिशत लगातार घटा है, जबकि मुनाफे के प्रतिशत में बेतहाशा वृद्धि हुई है। इस तरह से भारी-भरकम मुनाफा कमाने की इस कॉरपोरेट हवस के कारण होने वाली मुद्रास्फीति को ही आजकल “लोभस्फीति” यानि “ग्रीडफ्लेशन” कहा जाने लगा है। हालांकि यह एक वैश्विक प्रवृत्ति बनी हुई है, लेकिन भारत में तो इसने ग़रीब और मेहनतकश लोगों की कमर को तोड़कर रख दिया है।

‘सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी’ (सीएमआईई) के आंकड़े बताते हैं कि 4,293 सूचीबद्ध कंपनियों ने मार्च 2023 वाली तिमाही में 3900 अरब रुपये का शुद्ध मुनाफा कमाया है। यह रकम 2020 की महामारी से पहले कंपनियों द्वारा कमाये जा रहे प्रति तिमाही औसत मुनाफे से 3.5 गुना ज्यादा है। दिसंबर 2017 की तिमाही से दिसंबर 2019 तक की कुल 9 तिमाहियों में सूचीबद्ध कंपनियों का औसत मुनाफा प्रति तिमाही केवल 830 अरब रूपये था।

दरअसल कॉरपोरेट क्षेत्र के लिए महामारी “आपदा में अवसर” साबित हुई है। वे असामान्य मुनाफा कमाने की होड़ में लगे हुए हैं। ऐसी स्थिति में मजदूरी और उत्पादन की लागत घटने के बावजूद जान-बूझकर क़ीमतों में कमी नही आने दी जाती है, और उस अंतर को भी मुनाफे मे तब्दील कर लिया जाता है।

अमरीकी मुद्रास्फीति के आंकड़ों के एक विश्लेषण में बताया गया है कि 1979 से 2019 के बीच जहां बढ़ी हुई क़ीमतों में मजदूरी का हिस्सा 60% होता था और कंपनियों का मुनाफा केवल 11% होता था, वहीं कोविड के बाद कंपनियों के मुनाफे का हिस्सा बढ़कर 53.9% हो गया है, जबकि मजदूरी का हिस्सा घटकर केवल 8% रह गया है।

मुनाफे की यह निर्लज्ज लूट भारत में भी इसी तरह जारी है। वहीं दूसरी तरफ मेहनतकश की आमदनी लगातार गिर रही है। 

‘लेबर ब्यूरो’ कई साल से हर महीने सभी भारतीय राज्यों में अलग-अलग व्यवसायों में मिल रही मजदूरी के आंकड़े एकत्र करता है और ‘इंडियन लेबर जर्नल’ में आंकड़ों के सारांश प्रकाशित करता है। भारतीय रिजर्व बैंक ने भारतीय राज्यों पर सांख्यिकी की अपनी नवीनतम पुस्तिका में भी 2014-15 से 2021-22 तक के ‘लेबर ब्यूरो’ के आंकड़ों के आधार पर ही वार्षिक मजदूरी के अनुमान प्रस्तुत किये हैं। 

हालांकि ये अनुमान केवल पुरुष श्रमिकों से संबंधित हैं, और केवल सामान्य कृषि मजदूरों, निर्माण क्षेत्र के मजदूरों, गैर-कृषि मजदूरों और बागवानी का काम करने वाले मजदूरों के ही बारे में हैं। बागवानी श्रमिकों की मजदूरी के आंकड़े केवल कुछ ही राज्यों के हैं।

‘कृषि क्षेत्र के उपभोक्ता मूल्य सूचकांक’ (सीपीआईएएल) का उपयोग करके वास्तविक मजदूरी में बदलने के बाद निष्कर्ष चौंकाने वाले हैं। 2014-15 और 2021-22 के बीच की कृषि क्षेत्र में वास्तविक मजदूरी की वृद्धि दर प्रति वर्ष 1 प्रतिशत से भी कम थी। दरअसल कृषि क्षेत्र की वास्तविक मजदूरी वृद्धि दर 0.9%, गैर-कृषि क्षेत्र की 0.3% और निर्माण क्षेत्र की (-0.02%) थी। निर्माण क्षेत्र में तो मजदूरी वृद्धि दर ऋणात्मक हो गयी। यानि मजदूरी बढ़ने की बजाय घट गयी। इसकी बजाय ‘सामान्य उपभोक्ता मूल्य सूचकांक’ का इस्तेमाल करने पर तो ये दरें और भी कम हो जाती हैं।

इसी तरह से ‘सेंटर फॉर लेबर रिसर्च एंड एक्शन’ द्वारा एकत्र किए गए मजदूरी के आंकड़ों से पता चलता है कि पिछले 10 वर्षों में ईंट-भट्ठा श्रमिकों की वास्तविक मजदूरी में लगातार गिरावट आई है। यह बहुत खतरनाक बात है, क्योंकि ईंट-भट्ठा का काम भारत के कुछ चरम गरीब समुदायों के लिए रोजी-रोटी की अंतिम शरणस्थली है। बहुत लंबे समय से ऐसी हालत कभी नहीं हुई थी।

कुल मिलाकर, तथ्य यह है कि देश में वास्तविक मजदूरी आज भी उतनी ही है जितनी 2014-15 में थी।

एक तरफ कॉरपोरेट क्षेत्र द्वारा मुनाफे की बेतहाशा लूट और दूसरी तरफ वास्तविक मजदूरी में गिरावट ने भारत में अमीरी-ग़रीबी के बीच पहले से ही बरक़रार गहरी खाई को महामारी के बाद और भी गहरा कर दिया है। कोविड से पहले जहां भारत में 102 खरबपति थे, कोविड के दौरान उनकी संख्या बढ़कर 2022 में 166 हो चुकी है।

कोविड के बाद नीचे की आधी आबादी की राष्ट्रीय आय में हिस्सेदारी घटकर 13% और राष्ट्रीय संपदा में हिस्सेदारी मात्र 3% रह गयी है। ‘ऑक्सफेम’ की रिपोर्ट के हिसाब से आज भारत में ऊपर के 30% लोगों के हाथ में देश की 90% संपदा केंद्रित हो चुकी है। 10% लोगों के हाथ में 72% और 5% लोगों के हाथ में 62% संपदा का मालिकाना आ चुका है। अर्थव्यवस्था K आकार में चल रही है। इसका अमीरी का हिस्सा ऊपर उठता जा रहा है, जबकि ग़रीबी का हिस्सा नीचे गिरता जा रहा है।

नतीजा यह है कि जहां आबादी का एक विशाल हिस्सा रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा, स्वास्थ्य जैसी जीवन की बुनियादी जरूरियात से भी महरूम है, वहीं एक छोटा सा हिस्सा ऐसा भी है, जो करोड़ों रुपये की महंगी कारों, रिज़ॉर्टों, थीम पार्कों, शॉपिंग मालों, विदेशी शराबों, विदेश यात्राओं और भोग-विलास में अपने धन का निर्लज्ज प्रदर्शन कर रहा है। दरअसल, भारतीय अर्थव्यवस्था आज ग़रीबी और वंचना का विशाल महासागर और उसके बीच समृद्धि और विलासिता के चंद टापू तैयार करने में लगी हुई है।

(शैलेश स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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