कॉलेजियम सिस्टम केंद्र के अत्याचार के खिलाफ बड़ी गारंटी:लोकसभा में टीएमसी सांसद

राज्यसभा में भारत के उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ द्वारा सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बारे में आलोचनात्मक टिप्पणी करने के बाद लोकसभा में अखिल भारतीय तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) के सांसद सौगत रॉय ने लोकसभा में सार्वजनिक मंचों पर कॉलेजियम सिस्टम की आलोचना करने वाले केंद्रीय कानून मंत्री किरेन रिजिजू की हाल की टिप्पणियों का विरोध किया और उन्होंने चुनौती दी।

रॉय ने कॉलेजियम सिस्टम का बचाव करते हुए कहा कि ऐसा नहीं है कि यह सही है, लेकिन सुप्रीम कोर्ट का कॉलेजियम सिस्टम वास्तव में केंद्र सरकार द्वारा सत्ता के अत्याचार के खिलाफ बड़ी गारंटी है। सरकार न्यायपालिका सहित हर जगह अपनी शक्ति का विस्तार करने की कोशिश कर रही है। रॉय ने यह कॉलेजियम सिस्टम को खत्म करने लिए उच्च पदस्थ व्यक्ति का उपयोग कर रही है।

पूर्व केंद्रीय कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने सुझाव दिया कि रॉय की टिप्पणी को सदन की कार्यवाही से हटा दिया जाना चाहिए।

उल्लेखनीय है कि हाल ही में कम से कम 3 मौकों पर केंद्रीय कानून और न्याय मंत्री किरेन रिजिजू ने कॉलेजियम सिस्टम को अपारदर्शी और गैर-जवाबदेह, भारत के संविधान से अलग और नागरिकों द्वारा समर्थित नहीं कह कर इसके खिलाफ हमले शुरू किए हैं।

हालांकि, केंद्रीय कानून मंत्री की टिप्पणी सुप्रीम कोर्ट को रास नहीं आई। उदाहरण के लिए न्यायिक नियुक्तियों के लिए समय-सीमा का उल्लंघन करने के लिए केंद्र के खिलाफ बंगलुरू एडवोकेट्स एसोसिएशन द्वारा दायर अवमानना याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कॉलेजियम सिस्टम के खिलाफ सरकारी अधिकारियों द्वारा की गई टिप्पणियों को अस्वीकार कर दिया। सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार से यह भी कहा कि कॉलेजियम सिस्टम “भूमि का कानून” है, जिसका “सख्ती से पालन” किया जाना चाहिए।

कोर्ट ने कहा, “सिर्फ इसलिए कि समाज के कुछ वर्ग हैं, जो कॉलेजियम सिस्टम के खिलाफ विचार व्यक्त करते हैं, यह देश का कानून नहीं रहेगा।” गौरतलब है कि पिछली सुनवाई में भी यानी 28 नवंबर को कोर्ट ने कॉलेजियम सिस्टम के खिलाफ कानून मंत्री की टिप्पणियों पर नाराजगी जताई थी। कोर्ट ने अटॉर्नी जनरल और सॉलिसिटर जनरल से न्यायिक नियुक्तियों के संबंध में कोर्ट द्वारा निर्धारित कानून का पालन करने के लिए केंद्र को सलाह देने का भी आग्रह किया था।

सुप्रीम कोर्ट ने याद दिलाया कि कॉलेजियम द्वारा दोहराए गए नाम केंद्र के लिए बाध्यकारी हैं और नियुक्ति प्रक्रिया को पूरा करने के लिए निर्धारित समय सीमा का कार्यपालिका द्वारा उल्लंघन किया जा रहा है।

गौरतलब है कि रॉय की यह टिप्पणी राज्यसभा के सभापति, भारत के उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ द्वारा सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बारे में आलोचनात्मक टिप्पणी करने के एक दिन बाद की गई, जिसने राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (एनजेएसी) लाने के लिए पारित संवैधानिक संशोधन को पलट दिया।

राज्‍यसभा में अपने पहले दिन उप राष्‍ट्रपति ने न्‍यायपालिका को ‘लक्ष्‍मण रेखा’ की याद दिलाई और कहा कि हमें इस बात को ध्यान में रखने की जरूरत है कि लोकतांत्रिक शासन में किसी भी संवैधानिक ढांचे की बुनियाद संसद में परिलक्षित होने वाले जनादेश की प्रमुखता को कायम रखना है। यह चिंताजनक बात है कि इस बहुत ही महत्वपूर्ण मुद्दे पर संसद का ध्यान केंद्रित नहीं है।

राज्यसभा में बतौर सभापति अपने पहले संबोधन में उपराष्ट्रपति धनखड़ ने राष्ट्रीय न्यायिक आयोग (एनजेएसी ) कानून का जिक्र किया। एनजेएसी बिल के लिए 99वां संवैधानिक संशोधन विधेयक संसद के दोनों सदनों से पारित किया गया था। इसे 2015 में सुप्रीम कोर्ट ने खारिज कर दिया था। उपराष्ट्रपति ने इसे संसदीय संप्रभुता के साथ गंभीर समझौता करार दिया। उन्होंने कहा, ‘ये उस जनादेश का असम्मान है, जिसके संरक्षक उच्च सदन (राज्यसभा) और लोकसभा है।

उपराष्ट्रपति ने कहा कि लोकतांत्रिक इतिहास में ऐसी कोई मिसाल नहीं मिलती, जहां नियमबद्ध तरीके से किए गए संवैधानिक उपाय को इस तरह न्यायिक ढंग से निष्प्रभावी कर दिया गया हो। 2015 में पारित विधेयक ने सरकार को न्यायिक नियुक्तियों में एक भूमिका दी, जो दो दशकों तक कॉलेजियम प्रणाली के माध्यम से सर्वोच्च न्यायालय का उद्गम था।

जगदीप धनखड़ ने कहा कि हमें इस बात को ध्यान में रखने की जरूरत है कि लोकतांत्रिक शासन में किसी भी संवैधानिक ढांचे की बुनियाद संसद में परिलक्षित होने वाले जनादेश की प्रमुखता को कायम रखना है। यह चिंताजनक बात है कि इस बहुत ही महत्वपूर्ण मुद्दे पर संसद का ध्यान केंद्रित नहीं है।

इसके पहले उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने शुक्रवार को सरकार के किसी एक अंग के दूसरों के अनन्य संरक्षण में दखलंदाजी के बारे में चेतावनी दी थी। सुप्रीम कोर्ट द्वारा प्रस्तावित राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (एनजेएसी) की अस्वीकृति पर स्पष्ट प्रतिक्रिया देते हुए उपराष्ट्रपति ने पूछा कि क्या लोगों के जनादेश को एक वैध तंत्र के माध्यम से संवैधानिक प्रावधान में परिवर्तित किया गया है। यानी विधायिका और “सबसे पवित्र तरीके” में, जो कि इस मुद्दे पर व्यापक रूप से बहस करने और दोनों सदनों द्वारा पारित होने के बाद न्यायपालिका द्वारा “पूर्ववत” किया जा सकता है।

धनखड़ ने कहा कि प्रस्तावना में ‘हम लोग’ ने संकेत दिया है कि शक्ति लोगों में निवास करती है और यह उनका जनादेश और ज्ञान है और उनकी इच्छा के प्रतिबिंब के रूप में संसद सर्वोच्च संस्था है। एनजेएसी से संबंधित संशोधन का स्पष्ट रूप से उल्लेख किए बिना राष्ट्रपति ने कहा कि “भारतीय संसद 2015 से संवैधानिक संशोधन से निपट रही है”।

उपराष्ट्रपति ने याद किया, “रिकॉर्ड के रूप में पूरी लोकसभा ने संवैधानिक संशोधन के लिए सर्वसम्मति से मतदान किया। कोई अनुपस्थिति नहीं था, कोई असंतोष नहीं था। राज्यसभा में एक ही अनुपस्थिति था, लेकिन कोई विरोध नहीं था। इसलिए लोगों के संवैधानिक प्रावधान के अध्यादेश को परिवर्तित कर दिया गया। लोगों की शक्ति सबसे प्रमाणित तंत्र में परिलक्षित हुई।”

परोक्ष रूप से सुप्रीम कोर्ट के फैसले का जिक्र करते हुए, जिसने एनजेएसी के फैसले को अमान्य कर दिया, उन्होंने कहा, “वह शक्ति पूर्ववत थी। दुनिया ऐसे किसी उदाहरण के बारे में नहीं जानती”। पूर्व में पश्चिम बंगाल के राज्यपाल रह चुके धनखड़ और सुप्रीम कोर्ट में सीनियर एडवोकेट भी रह चुके हैं।

उन्होंने कहा कि संविधान का अनुच्छेद 145 (3) सुप्रीम कोर्ट को केवल संविधान की व्याख्या करने की शक्ति देता है। उन्होंने कहा “कहीं भी यह संवैधानिक प्रावधान को चलाने की शक्ति नहीं देता है”।

जिंदल ग्लोबल यूनिवर्सिटी द्वारा आयोजित 8वें एलएम सिंघवी स्मृति व्याख्यान में उपराष्ट्रपति धनखड़ को मुख्य अतिथि के रूप में आमंत्रित किया गया था। चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया (सीजेआई) धनंजय चंद्रचूड़ भी उपस्थित थे, जिन्होंने स्मारक व्याख्यान दिया।

इस मौके पर उपराष्ट्रपति ने कहा कि इस फैसले के बाद संसद में कोई चर्चा नहीं हुई। हमें अपनी न्यायपालिका पर गर्व है, जिसने लोगों के अधिकारों के विकास में व्यापक योगदान दिया है। अस्सी के दशक में अभिनव तंत्र का सहारा लिया गया, जहां न्यायिक कार्रवाई को पोस्टकार्ड गैल्वनाइज कर सकता है। हालांकि, शक्तियों के पृथक्करण का सिद्धांत हमारे शासन के लिए मौलिक है।

धनखड़ ने कहा कि अगर जीवंत लोकतंत्र में बड़े पैमाने पर लोगों के अध्यादेश का संवैधानिक प्रावधान पूर्ववत हो जाता है, तो क्या होगा? मैं सभी से अपील करता हूं, ये ऐसे मुद्दे नहीं हैं जिन्हें पक्षपातपूर्ण तरीके से देखा जाना चाहिए। धनखड़ ने कहा कि सरकार के एक अंग के क्षेत्र में दूसरे द्वारा किसी भी दखलंदाजी “चाहे वह कितना भी सूक्ष्म”, हो पूरे सरकारी सिस्टम को “अस्थिर” करने की क्षमता रखती है।

उन्होंने कहा कि हर संस्थान की अच्छी तरह से परिभाषित भूमिका होती है और सभी लोगों के अंतिम आदेश के अधीन होते हैं। इसके लिए केवल एक सिस्टम है, जो कि संसद है।

उपराष्ट्रपति की टिप्पणी ऐसे समय में आई है जब सरकार ने सुप्रीम कोर्ट की कॉलेजियम प्रणाली पर हमला करने के अपने प्रयासों को तेज कर दिया है। इसके घोर आलोचकों में से एक वर्तमान केंद्रीय कानून मंत्री किरेन रिजिजू हैं, जिनकी टिप्पणी हाल ही में न्यायिक जांच के दायरे में आई है।

कॉलेजियम द्वारा सुझाए गए नामों को मंजूरी नहीं देने के लिए केंद्र के खिलाफ एक अवमानना याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट के सीनियर सदस्यों में से एक और कॉलेजियम के सदस्य जस्टिस संजय किशन कौल ने कानून मंत्री की टिप्पणी के खिलाफ प्रतिवाद किया। जस्टिस कौल ने भारत के एटॉर्नी जनरल आर. वेंकटरमणि से कहा, “कानून के बारे में कई लोगों को आपत्ति हो सकती है। लेकिन जब तक यह खड़ा है, यह देश का कानून है। मैंने सभी प्रेस रिपोर्टों को नजरअंदाज कर दिया है, लेकिन यह उच्च स्तर से की गई टिप्पणी है। ऐसा नहीं होना चाहिए”।

(वरिष्ठ पत्रकार जेपी सिंह की रिपोर्ट।)

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