संभावित हार से बचने के लिए हाईकोर्ट ने दिखाया रास्ता, यूपी में टाले जा सकते हैं चुनाव

उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव को लेकर अनिश्चितता के बादल मंडराने लगे हैं। जिस तरह के हालात बन रहे हैं, उसे देखते हुए लगता नहीं कि राज्य विधानसभा के चुनाव निर्धारित समय पर हो पाएंगे। हालांकि इस बारे में चुनाव आयोग अगले सप्ताह फैसला लेगा, लेकिन जिस तरह इलाहाबाद हाई कोर्ट ने कोरोना (ओमिक्रॉन) की तीसरी लहर की आशंका का हवाला देकर प्रधानमंत्री और चुनाव आयोग से चुनाव टालने की अपील की है, उससे भी इस आशंका को बल मिला है कि चुनाव टाले जा सकते हैं।

दरअसल उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी मौजूदा हालात में खुद को चुनाव का सामना करने की स्थिति में नहीं पा रही है। हालांकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पिछले करीब दो महीने से उत्तर प्रदेश में ताबड़तोड़ रैलियां कर रहे हैं। इस सिलसिले में वे आधी-अधूरी विकास परियोजनाओं का उद्घाटन और नई परियोजनाओं का शिलान्यास भी कर रहे हैं। उनके इन सभी कार्यक्रमों में तमाम सरकारी संसाधन झोंकने के बाद भी लोगों की अपेक्षित भीड़ नहीं जुट पाना भी भाजपा की चिंता का सबब बन रहा है।

दूसरी ओर समाजवादी पार्टी और उसके गठबंधन की रैलियों में जुट रही भारी भीड़ भी इस बात का संकेत दे रही है कि माहौल भाजपा के अनुकूल नहीं है। ऐसी स्थिति में कोई आश्चर्य नहीं कि कोरोना की तीसरी लहर और लॉकडाउन की आड़ लेकर सूबे में राष्ट्रपति शासन लगा दिया जाए और कुछ महीनों के लिए विधानसभा चुनाव टाल दिए जाएं। बस, इसमें दिक्कत यही है कि अगर उत्तर प्रदेश में ऐसा होता है तो फिर बाकी चार राज्यों में भी ऐसा ही करना पड़ेगा।

उत्तर प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लागू कर चुनाव टालने की आशंका भाजपा सांसद सुब्रह्मण्यम स्वामी ने भी कल एक ट्वीट के जरिए जाहिर की है। स्वामी ने अपने ट्वीट में कहा है, ”अगर लॉकडाउन लगाकर उत्तर प्रदेश में चुनाव टाल दिया जाए तो हैरानी नहीं होनी चाहिए। सितम्बर तक उत्तर प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लगाया जा सकता है। जिस काम को इस साल नहीं किया जा सका, उसे अप्रत्यक्ष रूप से अगले साल की शुरुआत में किया जा सकता है।’’

भाजपा की अंदरुनी राजनीतिक हालत बताने वाला स्वामी का यह ट्वीट इलाहाबाद हाई कोर्ट की टिप्पणी के एक दिन बाद आया है। इलाहाबाद हाई कोर्ट के जज शेखर कुमार यादव ने ओमिक्रॉन के खतरे पर चिंता जताते हुए गुरुवार को प्रधानमंत्री और चुनाव आयुक्त से अनुरोध किया था कि विधानसभा चुनाव में कोरोना की तीसरी लहर से जनता को बचाने के लिए राजनीतिक पार्टियों की चुनावी रैलियों पर रोक लगाई जाए। उन्होंने कहा था कि राजनीतिक दल चुनाव प्रचार दूरदर्शन और समाचार पत्रों के माध्यम से करें और प्रधानमंत्री चुनाव टालने पर भी विचार करें, क्योंकि कि जान है तो जहान है।

हाई कोर्ट ने चुनाव आयोग से चुनाव टालने का अनुरोध किया, यह तो एक बार समझ में आता है लेकिन हाई कोर्ट के माननीय न्यायाधीश का प्रधानमंत्री से इस तरह का अनुरोध किए जाने का औचित्य समझ से परे है। न्यायाधीश महोदय को यह तो जानकारी होगी ही कि किसी भी चुनाव को टालने या करवाने में प्रधानमंत्री की औपचारिक या संवैधानिक तौर पर कोई भूमिका नहीं होती है, क्योंकि यह मामला सिर्फ और सिर्फ चुनाव आयोग के अधिकार क्षेत्र में आता है।

गौरतलब है कि किसी ने भी हाई कोर्ट से चुनाव टालने की गुहार नहीं लगाई है इसके बावजूद जस्टिस शेखर कुमार यादव ने एक आपराधिक मामले में आरोपी को जमानत देते हुए प्रधानमंत्री और चुनाव आयोग से चुनाव टालने का अनुरोध किया है, जो कि हैरान करने वाला है। जस्टिस यादव इससे पहले भी गाय, गोबर, मांसाहार, अभिव्यक्ति की आजादी आदि मसलों पर अप्रासंगिक और अतार्किक टिप्पणियां कर चर्चा में आ चुके हैं। इसीलिए चुनाव टालने संबंधी उनके सुझाव में भी राजनीतिक निहितार्थ तलाशे जाना स्वाभाविक है।

जस्टिस यादव ने न सिर्फ प्रधानमंत्री से चुनाव टालने का अनुरोध किया बल्कि देश में कोरोना के मुफ्त टीकाकरण अभियान को लेकर प्रधानमंत्री की तारीफ भी की। उन्होंने कहा, ”देश के माननीय प्रधानमंत्री ने भारत जैसी बड़ी जनसंख्या वाले देश में कोरोना का मुफ्त टीकाकरण अभियान चलाया, वह काबिल-ए-तारीफ है”।

देश में टीकाकरण अभियान कैसे चल रहा है और टीके कितने कारगर हैं, इस पर बहुत विवाद है और यह एक अलग ही बहस का मुद्दा है लेकिन जस्टिस यादव के मुंह से निकली प्रधानमंत्री की यह तारीफ न सिर्फ अप्रासंगिक है बल्कि अशोभनीय और अमर्यादित भी है। इससे पहले सुप्रीम कोर्ट के जज रहते हुए जस्टिस अरुण मिश्र भी प्रधानमंत्री की ऐसी ही तारीफ कर चुके हैं। उन्होंने पिछले साल फरवरी महीने में न्यायाधीशों के अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में प्रधानमंत्री मोदी को अत्यंत दूरदर्शी और बहुमुखी प्रतिभा का धनी बताते हुए कहा था कि वे वैश्विक सोच रखते हुए भी अपने स्थानीय हितों को नहीं भूलते हैं। इसके कुछ ही दिनों बाद जस्टिस अरुण मिश्र सेवानिवृत्त हो गए थे और सरकार ने उन्हें राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग का अध्यक्ष बना दिया। जो भी हो, पदासीन न्यायाधीशों के मुंह से प्रधानमंत्री के इस तरह के प्रशस्ति गान से जाहिर होता है कि हमारी न्यायपालिका किस कदर राजनीतिक सत्ता की बंदी बन चुकी है।

बहरहाल सवाल है कि क्या केंद्र सरकार हाई कोर्ट की टिप्पणी का सहारा लेते हुए उत्तर प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लगाकर पहले योगी से छुटकारा पाएगी और फिर कुछ महीनों बाद भाजपा नई रणनीति के साथ विधानसभा चुनाव में उतरेगी?

संवैधानिक प्रावधानों के तहत केंद्र सरकार ऐसा कर सकती है। लेकिन उसके लिए कई नियम हैं। केंद्र सरकार संविधान के अनुच्छेद 356 के तहत किसी राज्य में अधिकतम 6 महीने तक ही राष्ट्रपति शासन लगा सकती है। विशेष परिस्थिति में राष्ट्रपति शासन और 6 महीने के लिए बढ़ाया जा सकता है लेकिन ऐसा करने के लिए संसद की अनुमति लेनी होती है। एक नियम यह भी है कि किसी आपदा और महामारी की हालत में जब चुनाव कराना मुमकिन न हो तो भी उस राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाया जा सकता है।

कुल मिलाकर नियम की मूल भावना यह है कि कोई बड़ा कारण होना चाहिए, जिसके चलते चुनाव कराना या चुनी हुई राज्य सरकार द्वारा राज्य का शासन चलाना मुश्किल हो जाए।

उत्तर प्रदेश में अभी भाजपा सत्ता में है। योगी आदित्यनाथ सरकार का कार्यकाल ठीक तीन महीने बाद 19 मार्च 2022 तक है। यानी उस समय तक नई विधानसभा का गठन हो जाना चाहिए। अन्यथा वहां राष्ट्रपति शासन लगाना पड़ेगा। लेकिन यहां तो हाई कोर्ट की टिप्पणी और कोरोना संक्रमण के नाम पर हालात पहले से ही बन रहे हैं।

(अनिल जैन वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल दिल्ली में रहते हैं।)

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