उत्तर प्रदेश; एक अदद नेता की ज़रूरत!

कांग्रेस और बीजेपी में बुनियादी फ़र्क़ यह है, कि कांग्रेस के पास संगठन नहीं है और बीजेपी के पास नेता नहीं हैं। अगर नरेंद्र मोदी और योगी आदित्य नाथ को माइनस कर दें तो बीजेपी के पास एक भी नेता ऐसा नहीं है, जो वोट खींच सके। लेकिन इस पार्टी का संगठन, ख़ासकर उसकी पितृ-संस्था आरएसएस उसे आक्सीजन देती रहती है। किसी भी पार्टी के पास जब नेता सीमित होते हैं तो उसके नेताओं के बीच अहम टकराने लगता है। आज मोदी-योगी के बीच यही रस्सा-कशी हो रही है। दोनों वोट खींचते हैं, दोनों ध्रुवीकरण कराने में माहिर हैं और दोनों की कार्य-शैली भी एक जैसी। और न मोदी खुले दिमाग़ से और लोकतांत्रिक माहौल में काम करने के हामी हैं न योगी। ज़ाहिर है, ऐसी स्थिति में दोनों के बीच एक-दूसरे को पटकनी देने के हरसम्भव प्रयास होंगे। और वही हो रहे हैं।

बुधवार को कांग्रेस नीत यूपीए सरकार में केंद्रीय मंत्री रहे जितिन प्रसाद का बीजेपी जॉयन करना ऊपरी तौर पर तो कांग्रेस को झटका है, लेकिन अंदरखाने माना जा रहा है कि जितिन को बीजेपी में लाकर मोदी टोली ने योगी के पर कतरने का दाँव चला है। दर असल उत्तर प्रदेश में योगी से ब्राह्मण नाखुश चल रहे हैं, लेकिन प्रदेश में बीजेपी के अंदर कोई भी ब्राह्मण चेहरा ऐसा नहीं है जो योगी को चुनौती दे सके। न तो किसी की लोकप्रियता है न कोई बड़ा प्रोफ़ाइल। कलराज मिश्र उम्र सीमा पार कर चुके हैं और वे 49 साल के योगी जैसी फुर्ती नहीं दिखा सकते। दिनेश शर्मा और श्रीकांत शर्मा पिछले चार वर्षों में कोई कौशल नहीं दिखा सके। मोदी पाले से प्रदेश विधान परिषद में भेजे गए अरविंद शर्मा नौकरशाह चाहे जैसे रहे हों लेकिन योगी के समक्ष वे कहीं नहीं टिकते। ऐसे में कांग्रेस के पूर्व मंत्री जितिन को लाकर एक शातिराना खेल खेला गया है।

उत्तर प्रदेश में जाति एक कड़वी सच्चाई है। वह धार्मिक एकता से ऊपर है। अगड़ी जातियों में यहाँ ब्राह्मणों और राजपूतों में भारी टकराव रहता है। एक तो संख्या भी आस पास और ताक़त भी बराबर की। कोई किसी का दबैल नहीं। यह सच है कि मुलायम-अखिलेश और मायावती के समय ये ठाकुर-ब्राह्मण पावर बैलेंसिंग का खेल खेलते हैं। उस समय में वे अपनी संख्या के हिसाब से हिस्सा माँग कर इधर या उधर सेट हो जाते हैं। किंतु कांग्रेस व भाजपा के समय इन जातियों को लगता है कि ये अपने दबाव से सत्ता पा सकती हैं। 1989 के बाद से यहाँ कांग्रेस साफ़ हो गई और भाजपा ने पाँच बार सरकार बनाई।

पहले 1991 में, तब विधान सभा में भाजपा को बहुमत मिला लेकिन सोशल इंजीनियरिंग के फ़ार्मूले के तहत पिछड़े समुदाय के कल्याण सिंह मुख्यमंत्री बने। इसके बाद तीन बार मायावती के साथ मिली-जुली सरकार बनी, उसमें एक बार कल्याण सिंह, एक बार रामप्रकाश गुप्ता और फिर एक बार राजनाथ सिंह मुख्यमंत्री बने। 2017 में जब भाजपा प्रचंड बहुमत से विधानसभा में आई तब योगी आदित्यनाथ मुख्यमंत्री बने। इस तरह से पिछले 32 वर्षों से उत्तर प्रदेश में कोई ब्राह्मण मुख्यमंत्री नहीं बना। उसके आख़िरी मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी थे, जो कांग्रेस सरकार में थे।

हालाँकि योगी आदित्य नाथ जब मुख्यमंत्री बने थे, तब ब्राह्मणों में यह खुन्नस नहीं थी, कि बीजेपी आलाकमान ने एक राजपूत को मुख्यमंत्री बनाया है। इसकी दो वजह थीं। एक तो योगी आदित्य नाथ एक मठ के महंत थे, उनकी छवि एक संन्यासी की ज़्यादा थी उनकी जाति की कम। दूसरे बीजेपी में कोई ब्राह्मण चेहरा सामने था नहीं। उस समय योगी के समक्ष प्रबल दावेदार पिछड़ी जाति के केशव प्रसाद मौर्य थे अथवा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पसंद कहे जाने वाले मनोज सिन्हा। दोनों लो-प्रोफ़ाइल थे और ख़ुद ही किनारे लग गए। योगी की प्रबल हिंदूवादी छवि ने उन्हें प्रदेश में बीजेपी का एकछत्र नेता बना दिया। लेकिन भाषण देना, आग उगलना और हिंदू-मुस्लिम दो-फाँक करना एक अलग विधा है, शासन चलाना उससे एकदम भिन्न। योगी शासन चलाने में कमजोर रहे।

पहले तो यादव और जाटव (दलित) तथा मुस्लिम अफ़सर किनारे किए गए और फिर शासन तंत्र में हावी ब्राह्मण अफ़सरों में भी कार्य कुशल अफ़सरों की छुट्टी की गई। योगी के पहले राजनाथ सिंह भी भाजपा की तरफ़ से राजपूत मुख्यमंत्री हुए थे किंतु वे राजनीतिक थे। इसलिए उन्होंने बैलेंस बना कर रखा। लेकिन योगी आदित्य नाथ यह बैलेंस नहीं बना सके। यादवों, दलितों और मुसलमानों के साथ उन्होंने ब्राह्मणों को भी नाराज़ कर लिया। प्रदेश में रोज़गार सृजन के लिए उद्योगपतियों के सम्मेलन में करोड़ों रुपए फूंके गए पर एक भी उद्योग नहीं लाया जा सका। कल्याण सिंह ने अपने पहले कार्यकाल में अपराध पर काफ़ी हद तक क़ाबू पा लिया था। और वह भी उन्हीं अफ़सरों के भरोसे, जो उन्हें कांग्रेस से विरासत में मिले थे।

उनके पहले मुलायम सिंह यादव की सरकार तो एक साल भी नहीं चल पाई थी इसलिए उन्होंने अफ़सरशाही में कोई ख़ास फेर-बदल नहीं किया था। इसके अतिरिक्त कल्याण सिंह तब उत्तर प्रदेश भाजपा के अध्यक्ष थे इसलिए राजनीति से वे वाक़िफ़ थे। किंतु योगी आदित्य नाथ को न तो सरकार चलाने का अनुभव था न किसी संगठन से जुड़ कर राजनीति को क़रीब से समझने का। इसलिए सरकार कुछ अफ़सरों के भरोसे चलने लगी। एक तरह से योगी जी न अपने विधायकों से तारतम्य स्थापित कर सके न अफ़सरों को उनकी योग्यता से परख सके।

यूँ भी जब कोई ग़ैर राजनीतिक व्यक्ति सरकार चलाएगा तो वह उन्हीं लोगों से घिरेगा, जो उसकी बिरादरी के होंगे। योगी उन लोगों से घिरते रहे, जिनके लिए बिरादरी के अतिरिक्त और कुछ नहीं। नतीजा यह हुआ कि ब्राह्मण अभी बीजेपी के साथ है लेकिन योगी से उसका मोह भंग हुआ है। अब भले ऊपरी तौर पर उत्तर प्रदेश में मुख्य सचिव और डीजीपी ब्राह्मण हो लेकिन सब को पता है कि सूत्रधार कोई और है। सच बात यह है कि शासन को नीचे तक ले जाने का काम डीएम-एसपी का होता है और उसमें अधिकतर संख्या एक ख़ास बिरादरी के अफ़सरों की है। यह अफ़सरशाही का फ़ेल्योर है कि अलीगढ़ में ज़हरीली शराब से 117 लोगों के मरने की सूचना है किंतु कोई प्रभावी कदम नहीं उठाया गया। इसी तरह गंगा में जब लाशें मिलीं तो गंगा तटवर्ती ज़िलों के अधिकारियों से पूछताछ नहीं हुई।

जितिन प्रसाद दो बार से लगातार लोकसभा का चुनाव हार रहे हैं। उधर उत्तर प्रदेश कांग्रेस की कमान जब से प्रियंका गांधी के पास आई है, तब से प्रदेश अध्यक्ष अजय सिंह लल्लू का महत्त्व बढ़ा है और जितिन कांग्रेस में छटपटा रहे थे। गत वर्ष जब विकास दुबे को प्रदेश पुलिस ने पकड़ कर मार दिया था तब जितिन ने कहा था वे सभी मारे गए ब्राह्मणों का डाटा इकट्ठा कर उनके घर जाएँगे इसलिए योगी उन्हें पसंद नहीं करते थे। मोदी-शाह और पीयूष गोयल की टोली ने उन्हें योगी को काउंटर करने के लिए भाजपा में ले कर आए। किंतु क्या यह इतना सरल है? नरेंद्र मोदी ने जिस तरह के केंद्रीकरण की राजनीति शुरू की थी उसकी अनिवार्य फसल के रूप में योगी जैसे लोग ही फलने थे। योगी अब उनके लिए गुड़ भरा हँसिया हैं, जो न निगलते बन रहे न उगलते।

अगर उत्तर प्रदेश में कुछ करना है तो सरकार और संगठन दोनों में फेरबदल करना होगा जो संभव नहीं दिख रहा। उग्र हिंदुत्त्व की राजनीति के माहिर खिलाड़ी योगी आदित्यनाथ को आरएसएस जाने नहीं देगा और योगी मोदी की पसंद अरविंद शर्मा को कैबिनेट में लेंगे नहीं। उधर केशव प्रसाद मौर्य सिर्फ़ अध्यक्षी के लिए अपना मंत्री पद नहीं गँवाएँगे, वह भी पीडब्लूडी जैसा मंत्रालय। वे भी मुख्यमंत्री पद के बड़े दावेदार हैं। यूँ भी उनके सपा में जाने की अटकलें तेज होने लगी हैं। ऐसे में जितिन प्रसाद भाजपा में उसी गति को प्राप्त होंगे जिस गति को जगदंबिका पाल या ज्योतिरादित्य सिंधिया प्राप्त हैं। बीजेपी अब एक अंधे कुएँ की तरफ़ बढ़ रही है। वह जितिन प्रसाद को तो ला रही है, लेकिन क़द्दावर ब्राह्मण नेता लक्ष्मी कांत वाजपेयी को गर्त में धकेल रही है। उत्तर प्रदेश आने वाले समय में और भी नए-नए खेल दिखाएगा।

(शंभूनाथ शुक्ल वरिष्ठ पत्रकार हैं और आप जनसत्ता और अमर उजाला के कई संस्करणों के संपादक रहे हैं।)

शंभूनाथ शुक्ल
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