मुलायम सिंह यादव: अलग-अलग दौर में अलग-अलग मुलायम

चौधरी चरण सिंह के बाद उत्तर प्रदेश के किसानों और पिछड़ों के बीच जिस नेता ने सर्वाधिक लोकप्रियता हासिल की, वह मुलायम सिंह यादव ही थे। सन् साठ और सत्तर के दशक में उन्होंने सोशलिस्ट कार्यकर्ता के तौर पर पश्चिम और मध्य यूपी में खूब काम किया। गांव-गांव घूमकर लोगों से संपर्क करते रहे। उनके दुख-सुख में भागीदार बनते रहे। तब इटावा क्षेत्र के बड़े नेता नत्थू सिंह उनके राजनीतिक गुरु थे। उन्होंने मुलायम को पहली बार विधायक का टिकट दिलवाया। सन् 1967 में इस युवा सोशलिस्ट को शिकोहाबाद के जसवंत नगर के लोगों ने अपना विधायक बना दिया। अपने पहले चुनाव से उन्होंने दो रिकार्ड बनाये। एक तो उन्होंने मध्य-पश्चिम यूपी के बड़े कांग्रेसी नेता लाखन सिंह को हराया, जो अपनी संघर्षशील-वामपंथी पृष्ठभूमि के कारण लोगों में बहुत लोकप्रिय थे। दूसरा कि इस चुनाव में वह यूपी में सबसे कम उम्र के विधायक थे। 

बाद के दिनों में वह इमरजेंसी के दौरान जेल में रहे। निकले तो प्रदेश के कुछ प्रमुख नये नेताओं में शुमार किये जाने लगे थे। यूपी के किसानों, खासकर पिछड़ी जातियों के बीच वह काफी पसंद किये जाने लगे। चौधरी साहब की तर्ज पर ही वह यूपी में पश्चिम से पूरब तक के जिलों के गांवों-कस्बों में लगातार लोगों से मिलते-जुलते रहे। उनके संघर्षों में उतरते रहे। विपक्ष की राजनीति करते हुए लाठी-गोली-जेल जैसी हर चुनौती का उन्होंने सामना किया। बाद में जब वह सत्ता में आये तो लंबे समय तक आम लोगों से जुड़े रहे। यूपी की राजनीति में वह अपने ढंग के अलग राजनीतिज्ञ थे। वह सरकार में हों या विपक्षी खेमे में, पूरे सूबे में उनका जबर्दस्त असर था। तीन बार वह मुख्यमंत्री रहे। उन दिनों समाजवादी पार्टी के कार्यक्रमों और जलसों में लोगों के बीच अक्सर एक नारा लगता था और यह नारा किसी ‘विज्ञापन एजेंसी’ ने नहीं, कार्यकर्ताओं ने बनाया थाः 

जिसका जलवा कायम है

उसका नाम मुलायम है।

उन्हीं मुलायम सिंह का आज निधन हो गया। 82 वर्षीय श्री यादव पिछले कुछ दिनों से गंभीर रूप से अस्वस्थ थे और गुड़गांव स्थित मेदांता अस्पताल में उनका इलाज चल रहा था। श्री यादव संयुक्त मोर्चा सरकार में देश के रक्षामंत्री भी रहे। इटावा के एक साधारण किसान परिवार में 22 नवम्बर, 1939 को जन्मे मुलायम सिंह ने कठिन परिस्थितियों का मुकाबला करते हुए अपने संघर्ष और काबिलियत से राज्य और देश की राजनीति में अपना महत्वपूर्ण स्थान बनाया। 

एक पत्रकार के रूप में हमने मुलायम सिंह के कुछ खास दौर और मुकाम देखे हैं। हालांकि उत्तर प्रदेश में कार्यरत ज्यादातर पत्रकारों की तरह हमने उनके राजनीतिक जीवन के अलग-अलग दौर को नहीं देखा। जहां तक याद आ रहा है, हमने पहली बार उनका इंटरव्यू सन् 1987 या 88 में पटना के राज्य अतिथि गृह में और आखिरी इंटरव्यू उनके रक्षा मंत्री रहते हुए एयरफोर्स के एक विमान में किया था।

उनसे मेरी ज्यादातर मुलाकातें संयुक्त मोर्चा दौर की ही हैं, जब मैं ‘हिन्दुस्तान’ अखबार के नेशनल ब्यूरो में काम करता था..अमर सिंह से भी उन्हीं दिनों परिचय हुआ था। 

मुलायम सिंह यादव के बारे में एक बात मैं ज़रूर कह सकता हूं कि वह गजब के साहसी थे। कुछ खास मौकों पर उनका साहस मैंने स्वयं देखा है। एक वाकया आज भी याद है और उसे याद करते हुए शरीर में सिहरन सी पैदा होती है। हम कई पत्रकार रक्षामंत्री के विशेष सैन्य-विमान में बैठे हुए राजस्थान के सरहदी इलाकों से जयपुर होते हुए दिल्ली लौट रहे थे। संयुक्त मोर्चा की सरकार थी और रक्षामंत्री मुलायम सिंह यादव थे। उन्हें जयपुर स्थित राजभवन में राज्यपाल के किसी निजी कार्यक्रम में कुछ देर के लिए रूकना था। वहां से वह जल्दी ही लौट आये और फिर हम लोग सर्किट हाउस से फिर हवाई अड्डे से दिल्ली के लिए उड़ गये। कुछ ही देर बाद उक्त विमान(संभवतः वह ए एन-32 था) में कुछ तकनीकी समस्या आने लगी।

समस्या क्या थी, क्यों थी और उसका क्या हश्र हो सकता था, इस बारे में विमान में बैठे हम पत्रकारों को कुछ भी मालूम नहीं था। लेकिन आगे के सोफेनुमा बड़ी कुर्सी पर बैठे रक्षामंत्री को मालूम थी। उनके निजी सचिव ने हम लोगों के पास आकर बताया कि नेता जी आप लोगों को बुला रहे हैं, कुछ बातें करेंगे। उदयन शर्मा, मैं और कुछ अन्य पत्रकार फौरन रक्षामंत्री के पास पहुंच गये। उदयन सामने थे और मैं रक्षामंत्री की बगल में। कुछ अन्य मित्र-पत्रकार अगल-बगल की कुर्सियों पर थे। रक्षामंत्री हम लोगों से न जाने क्या सोचकर देश की राजनीति से ज्यादा विदेश पर बतियाते रहे। ईरान के किसी तात्कालिक प्रकरण पर वह कुछ बोलने लगे। अमेरिका की भी चर्चा होने लगी। उन घटनाओं का भारत या आसपास के देशों पर क्या असर पड़ेगा, इस पर कुछ कहते रहे। ऐसा लगा जैसे उन्हें मंत्रालय की तरफ से उस मुद्दे पर किसी ने अच्छी तरह ब्रीफ किया है। उस बातचीत के बीच कई बार वायु सेना या मंत्रालय के कुछ अधिकारी बार-बार मुलायम सिंह के पास आते और उनके कान में कुछ ब्रीफ करके चले जाते रहे। 

बिल्कुल अंत में हम पत्रकारों को बताया गया कि जिस विमान पर हम बैठे हुए थे, वह दुर्घटना का भी शिकार हो सकता था। हम सबके बचने की संभावना कम होती जा रही थी। विमान के ह्वील-कैरियर खुल नहीं रहे थे। इसलिए कहीं किसी खाली जगह फोर्स लैंडिंग से पहले इंजन को तेल से पूरी तरह खाली किया जा रहा था। तभी न जाने क्या चमत्कार हुआ कि विमान के पहिये खुल गये और हम लोगों को कुछ ही देर बाद दिल्ली एयरपोर्ट के तकनीकी-क्षेत्र वाले टर्मिनल पर उतारा गया। वहां तमाम इंतजामात किये जा चुके थे। बड़े-बड़े फायर फाइटिंग इक्यूपमेंट्स, अस्पतालों की एंबुलेंसें और बड़े-बड़े डाक्टर आदि। नीचे उतरने पर रक्षामंत्री ने बताया कि उन्हें विमान की गड़बड़ी के बारे में सब कुछ मालूम पड़ गया था। पत्रकार-मित्र घबरायें नहीं, इसलिए आप लोगों को पास बुलवाया और भारत-ईरान-अमेरिका आदि पर बतियाने लगा। उस दौरान विमान में जिस तरह का माहौल था, उसमें मुलायम सिंह का साहस और धैर्य देखने लायक था।  

पर इन्हीं मुलायम सिंह यादव को बाद के दिनों में हमने तरह-तरह के बदलावों से गुजरते हुए देखा। समाजवादी पार्टी के अंदरुनी मामलों में उनसे ज्यादा उनके खास सहयोगी अमर सिंह को सक्रिय और महत्वपूर्ण भूमिका में देखा गया। अमर सिंह ने एक बार मुझ से साफ शब्दों में कहाः ‘नेता जी जो तीसरी बार मुख्यमंत्री बने हैं, वह सिर्फ दो लोगों के कारण बने हैं। दक्षिण दिल्ली की एक कोठी में देर रात चली डिनर बैठक में सब कुछ तय हुआ।’ अमर सिंह ने और भी ढेर सारे ब्योरे दिये, जिनके बारे में मैं बाद में कभी लिखूंगा। उस घटना के बाद मुझे लगा कि समाजवादी पार्टी में अब अमर सिंह बहुत बड़ी ताकत बन गये हैं। 

कैसा संयोग है, समाजवादी पार्टी में अमर सिंह का उभार यूपीए-दौर से लेकर एनडीए दौर तक जारी रहता है। सपा के कॉरपोरेट-कनेक्शन और बॉलीवुड-दोस्ताना में अमर ही असल कुंजी का काम करते रहे। एनडीए-2 दौर में अमर सिंह फीके पड़ने लगे। प्रधानमंत्री मोदी की सत्ता के दौर में मुलायम सिंह यादव को भले ही निजी या पारिवारिक तौर पर ‘मुसीबतें’ न झेलनी पड़ी हों पर परिवार का राजनीतिक रूप से विभाजित होना और दो-दो बार समाजवादी पार्टी का विधानसभा चुनाव हारना राजनीतिक रूप से बड़ी दुर्दशा है। निश्चित रूप से एनडीए-2 के दौर में यूपी या देश की राजनीति में मुलायम सिंह का वह पुराना वाला जलवा नहीं कायम रह सका। 

इसमें शायद ही किसी को संदेह हो कि एक व्यक्ति और एक राजनीतिज्ञ के तौर पर मुलायम सिंह यादव की ढेर सारी उपलब्धियां हैं। पर विफलताएं भी कुछ कम नहीं हैं। ज्यादातर विफलताएं उनकी गलतियों के वजह से उनके पल्ले पड़ीं। ऐसी कुछ गलतियों के चलते उन्हें राजनीति और निजी जीवन में कुछेक ऐसे समझौते करने पड़े, जिनसे सिर्फ उनके राजनीतिक जीवन को ही नहीं, यूपी और समूचे  हिन्दी-भाषी क्षेत्र में किसानों और पिछड़ों की राजनीति को भी धक्का लगा। 

हमने वह दौर भी देखा जब मुलायम सिंह यादव प्रधानमंत्री बनते-बनते रह गये। लेकिन निराश हुए बगैर वह सियासत के मैदान में नयी संभावनाएं तलाशते रहे। उस समय तक अमर सिंह समाजवादी पार्टी में ‘महाबली’ नहीं बने थे। मुलायम सिंह अपनी रणनीति अपने राजनीतिक सहयोगियों से बातचीत करके स्वयं बनाते थे। अपने बाद के राजनीतिक सफर में उन्होंने अमर सिंह को अपना ‘सबसे मूल्यवान सहयोगी’ मान लिया। लेकिन हमारा आकलन है कि मुलायम सिंह यादव के राजनीतिक सफर और जीवन को उनके इस ‘मूल्यवान सहयोगी’ ने जितना नुकसान पहुंचाया, उतना शायद ही किसी और ने पहुंचाया हो! यह बात मैंने अमर सिंह के जीवन काल में ही लिखी थी। इसलिए कोई ये नहीं कह सकता कि जब दोनों दिवंगत हो चुके हैं तो आज क्यों कह रहा हूं! 

आज के नये नेताओं, खासकर दलित-पिछड़े समुदाय की पृष्ठभूमि के नेताओं के लिए मुलायम सिंह यादव के जीवन और कर्म में बहुत कुछ सीखने और समझने लायक है। 

दिवंगत ‘नेता जी’ यानी मुलायम सिंह यादव को हमारी श्रद्धांजलि और उनके पुत्र अखिलेश यादव व समूचे परिवार के प्रति शोक संवेदना।

(उर्मिलेश वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल दिल्ली में रहते हैं।)

उर्मिलेश
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