गांव नहीं, ये ब्राह्मणवादी वर्चस्व के सामंती किले हैं!

हाथरस में पीड़िता के गांव में कल दो तस्वीरें देखने को मिलीं। एक तरफ पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह के पोते जयंत चौधरी को पुलिस घेर कर मार रही थी।कार्यकर्ता अगर बचाते नहीं तो शायद उनकी हड्डी-पसली एक हो जाती। इसी तरह से पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव द्वारा पीड़िता के परिजनों से मिलने के लिए भेजे गए सपा के प्रतिनिधिमंडल के साथ गए कार्यकर्ताओं पर चुन-चुन कर लाठियां भाजी जा रही थीं। लाठीचार्ज का कारण पूछने पर स्थानीय प्रशासन ने धारा 144 का उल्लंघन बताया। लेकिन ठीक उसी समय, उसी स्थान पर इलाके के दो गुंडे पीड़ितों से मिलने गए भीम आर्मी चीफ चंद्रशेखर सिंह आजाद को खुलेआम बाहर निकलने पर देख लेने की चुनौती दे रहे थे। और वह भी ऊंची-ऊंची और तकरीबन चीखने के अंदाज में। और उनके ठीक पीछे पुलिसकर्मी निजी सुरक्षाकर्मी होने के अंदाज में खड़े थे।

कुर्सी पर बैठे इनमें से एक शख्स ने चश्मा पहन रखा था जबकि दूसरा अपने माथे पर त्रिपुंड लगाए हुए था। इस शख्स का एक दूसरा वीडियो भी वायरल हुआ था जिसमें ठाकुरों की एक पंचायत में यह आरोपियों के पक्ष में बोलते दिखा था और लोगों को उनके पक्ष में सड़कों पर उतरने के लिए उकसा रहा था। बहरहाल, पुलिस जब इन नेताओं और कार्यकर्ताओं पर लाठियां भाज रही थी तो उसी वक्त, उसी जगह पर सवर्णों की एक पंचायत भी चल रही थी जिसमें हर तरीके से आरोपियों को बचाने के लिए रणनीति बन रही थी। लेकिन पुलिस की निगाह में उनका कार्यक्रम धारा 144 के दायरे में नहीं आता था। 

यह भारतीय लोकतंत्र का नया चेहरा है। यहां सांसद पीटे जा रहे हैं। जैसा कि टीएमसी सांसद डेरेक ओ ब्रायन के साथ हुआ। महिला प्रतिनिधियों तक को नहीं बख्शा जा रहा है। टीएमसी की महिला सांसद के साथ पुरुष पुलिसकर्मी की की गयी बदसलूकी को पूरे देश ने देखा। विपक्ष के नेता राहुल गांधी और प्रियंका गांधी के साथ पुलिस की बदतमीजियां तो अब इतिहास के काले पन्नों का ही हिस्सा बन चुकी हैं। यानी संविधान और संसद सब कुछ ठेंगे पर हैं। यह काम अगर वहां की अनपढ़ और अशिक्षित जनता कर रही होती तो कोई बात नहीं थी। लेकिन जिस संविधान की शपथ लेकर और जिसके बल पर लोग सत्ता में बैठे हैं वही उसको अब पलटने की कोशिश कर रहे हैं।

हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि कोई भी अपराध का मामला स्टेट बनाम आरोपी चलता है। यानी हर पीड़ित की तरफ से सरकार खड़ी होती है। और उसकी अंतिम दम तक कोशिश होती है कि किसी भी मामले के आरोपी को कानून के मुताबिक अधिक से अधिक दंड दिलवाया जाए। लेकिन यहां उल्टी गंगा बहायी जा रही है। संविधान को सिर के बल खड़ा कर दिया गया है। और कानून को घर की जूती समझ ली गयी है। सरकार और सत्ता खुलेआम आरोपियों का बचाव कर रही है। एडीजी लॉ एंड आर्डर प्रशांत कुमार खुलेआम कह रहे हैं कि पीड़िता के साथ बलात्कार नहीं हुआ है। पीड़िता के साथ हुई हैवानियत की घटना के खिलाफ सूबे और देश में जो गम और गुस्सा है उसे शांत करने के लिए योगी सरकार को तो चाहिए था कि वह सबको इस बात का भरोसा दिलाती कि दोषियों को कत्तई नहीं बख्शा जाएगा और राज्य किसी भी कीमत पर उनको कड़ी से कड़ी सजा दिलवाने के लिए प्रतिबद्ध है। लेकिन हो रहा है इसका ठीक उल्टा। योगी सरकार इस बात का संदेश दे रही है कि वह आरोपियों के साथ खड़ी है। 

आखिर एडीजी प्रशांत कुमार किस बिना पर आरोपियों को बलात्कार संबंधी क्लीन चिट दे रहे हैं? उनके पास एक एफएसएल की रिपोर्ट है जिसकी सच्चाई यह है कि उसका सैंपल 25 सितंबर को लिया गया है। जो 14 सितंबर को घटित घटना से 11 दिन बाद का समय है। अब कोई अंधा भी जिसे कानून की न्यूनतम समझ हो इसे एकबारगी खारिज कर देगा। क्योंकि 11 दिनों बाद भला पीड़िता के स्वैब में क्या बचेगा? इस बीच वह कितनी बार बाथरूम गयी होगी। कितनी बार उसने कपड़े बदले होंगे। हां क्लीन चिट देनी हो तो जरूर इसका इस्तेमाल किया जा सकता है। और आज तो अलीगढ़ अस्पताल के सीएमओ ने भी एफएसएल रिपोर्ट को अप्रासंगिक बता दिया।

उन्होंने सीधे-सीधे कहा कि 11 दिन बाद लिए गए सैंपल से कुछ भी हासिल नहीं किया जा सकता है। और अगर कुमार इतने ही ईमानदार हैं तो उन्होंने अलीगढ़ अस्पताल की एमएलसी यानी मेडिकल रिपोर्ट का हवाला क्यों नहीं दिया? जिसमें साफ-साफ उसके साथ बलात्कार की बात लिखी गयी है। पीड़िता के मरने के पहले के वीडियो से लेकर धारा 164 के तहत मजिस्ट्रेट के सामने दिए गए बयान को वह क्यों हजम कर गए? ये सारी चीजें बताती हैं कि प्रशासन ने हाथरस मामले में आरोपियों को किसी भी कीमत पर बचाने का मन बना लिया है।

योगी सरकार किस हद तक निर्लज्ज हो सकती है उसकी एक और बानगी कल दिखी। जब सूबे के प्रशासन का बयान आया कि बलरामपुर बलात्कार मामले में आरोपियों के खिलाफ एनएसए लगाया जाएगा तथा मामले को फास्ट ट्रैक कोर्ट के तहत सुनवाई के लिए भेजा जाएगा। किसी भी अपराध के मामले में अपराधी को सजा मिले, अधिक से अधिक सजा मिले और वह भी जल्दी मिले। भला किसी को इस पर क्यों एतराज हो सकता है? लेकिन इंसान तो इंसान जब सरकार भी धर्म, जाति और लिंग के आधार पर भेदभाव करना शुरू कर दे तो मामला बेहद गंभीर हो जाता है। और सरकार का यह पक्षपात किसी को कहीं का नहीं छोड़ेगा।

बलरामपुर के बलात्कारी मुस्लिम हैं इसलिए योगी उनको किसी भी कीमत पर सजा दिलाने के लिए प्रतिबद्ध हैं। लेकिन हाथरस के बलात्कारी उनकी जाति से आते हैं इसलिए उतनी ही ताकत से वह उन्हें छुड़ाने की कोशिश करेंगे। अगर यही संदेश सूबे और देश की जनता को दिया जा रहा है तो यह बेहद खतरनाक है। इस हमारे बलात्कारी और तुम्हारे बलात्कारी के खेल में सारे बलात्कारी बच जाएंगे लेकिन समाज गड्ढे में चला जाएगा। और एकबारगी समाज जब पतित होता है तो पूरी इंसानियत पतित हो जाती है। फिर उसे पटरी पर लाना बेहद मुश्किल हो जाता है।

दरअसल देश में लोकतंत्र की असली परीक्षा इन्हीं गांवों में ही है। ये कोई गांव नहीं बल्कि जातीय कबीलाई आधार पर संगठित सामंती किले हैं। जहां का समाज पुरातनपंथी ब्राह्मणवादी व्यवस्था के हिसाब से चलता है। और उसमें किसी भी तरह के हस्तक्षेप का मतलब है सवर्ण सत्ता और उसके वर्चस्व को चुनौती। इस तरह की स्थितियों को वे कभी बर्दाश्त नहीं करते। और फिर उसे अपने जातीय मान-सम्मान और गौरव बोध से जोड़कर अपना सब कुछ कुर्बान करने के लिए तैयार हो जाते हैं। इसलिए देश में अगर सचमुच में कानून का राज स्थापित करना है। या सही मायने में लोकतंत्र की बहाली करनी है तो गांव के इन सामंती टीलों को ध्वस्त करना होगा। और किसी भी लोकतंत्र और व्यवस्था के सफल होने की पहली शर्त यही है कि वह जमीन पर भी उतनी ही ताकत के साथ लागू हो।

भारत में पिछले 70 सालों में जिस हद तक लोकतंत्र जमीन पर उतर पाया था उस हद तक संसद और संविधान की प्रासंगिकता थी। लेकिन अब जिस पैमाने पर बीजेपी और संघ की सत्ता जमीन से उसे उखाड़ने में सफल हो रही है उसी के अनुपात में संसद की गौरव और गरिमा भी धूल-धूसरित हो रही है। संसद के संचालन से लेकर उसमें पेश बिलों का हश्र इसका जीता-जागता उदाहरण है। ऐसा कभी नहीं होगा कि बगैर जमीन पर पैर रखे आप आसमान में खड़े हो जाएंगे। इसलिए संसद और उसकी सत्ता को अगर बरकरार रखना है तो जमीन पर लोकतंत्र की इस लड़ाई को उसके अंजाम तक पहुंचाना ही होगा।

निर्भया मामले की तरह बलात्कार के खिलाफ पूरा देश एक साथ तो नहीं खड़ा हो पाया। बलात्कारियों को बचाने की मुहिम में योगी सरकार के साथ खड़े होकर उसके एक हिस्से ने अपने उस आंदोलन की आत्मा को भी मार दिया। भक्तों की एक जमात राजस्थान या फिर कांग्रेस शासित किसी दूसरे सूबे में हुए बलात्कारों का हवाला देकर इस मामले पर पर्दा डालने की कोशिश कर रही है। लेकिन दिमाग से पैदल इस हिस्से को यह नहीं समझ में आ रहा है कि उनमें से किसी मामले में सत्ता आरोपियों के पक्ष में नहीं खड़ी है। और कानून के मुताबिक जो भी मामले बनते हैं उसको वहां संचालित किया जा रहा है। भला यहां भी किसी को क्या लेना-देना था अगर सब कुछ कानून के मुताबिक होता और आरोपी न केवल सींखचों के पीछे होते बल्कि राज्य उनके खिलाफ कठोर से कठोर दंड के लिए प्रतिबद्ध होता। लेकिन क्या ऐसा हो पाया? वह पीड़िता और उसके परिजनों के साथ किए गए व्यवहार से अब बिल्कुल साफ हो गया है।

और हां आखिरी बात। मामले को सीबीआई को देना कोई हल नहीं है। सीबीआई किसकी है और किसके लिए काम करती है यह बात अब इस देश में किसी से छुपी नहीं है। योगी के बजाय उनके ही दल के मोदी की एजेंसी को जांच देकर कभी भी पीड़िता के लिए न्याय की गारंटी नहीं की जा सकती है। अगर सचमुच में किसी न्याय को संभव बनाने के लिए प्रयास करना है तो वह हाईकोर्ट या फिर सु्प्रीम कोर्ट के न्यायाधीश के नेतृत्व में न्यायिक जांच या फिर दोनों संस्थाओं में से किसी एक की निगरानी में इसको संचालित किया जाना चाहिए।

हालांकि फिर भी कितना न्याय मिल पाएगा कह पाना मुश्किल है। क्योंकि कई मामलों में किए गए ऐसे प्रावधानों का कोई नतीजा नहीं निकला है। लेकिन एक बात बिल्कुल सत्य है कि न्याय के पक्ष में खड़ी हुई आवाजों की लगातार मज़बूती ही उसको हासिल करने का आखिरी विकल्प है। और इसकी जरूरत को महसूस करने वालों को अपनी हर कुर्बानी के लिए तैयार रहना होगा। इस तरह के लोगों की गोलबंदी ही आखिर में इस समाज को अन्याय के अंधकार से मुक्ति दिलाएगी। और आखिर में जब समाज का संतुलन उसके पक्ष में हो जाएगा तब इसके लिए अलग से प्रयास करने की जरूरतें भी खत्म हो जाएंगी।

(महेंद्र मिश्र जनचौक के संपादक हैं।)   

महेंद्र मिश्र
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