घाटी के गांवों में हर तरफ छाया है फौजी बूटों का खौफ

दक्षिण कश्मीर के शार, ख्रेव, और मंदंक्पल जैसे गांव इस बात के संकेत देते हैं कि क्यों कश्मीर की घाटी में इस बार विरोध-प्रदर्शन पहले हुए आन्दोलनों जैसा विस्फ़ोटक नहीं है। 5 अगस्त को राज्य को प्राप्त विशेष दर्जे के निरस्त होने के बाद, कश्मीर के अन्य ग्रामीण क्षेत्रों से जुड़े गाँवों में भी क्रूरतापूर्ण कार्रवाई हुई। 

स्थानीय लोगों का कहना है कि सुरक्षा बलों ने दर्जनों ‘संभावित पत्थरबाज़ों’ को घेरा है। उनके पिताओं या भाईयों को गिरफ़्तार किया गया है ताकि वे आत्मसमर्पण कर दें – कश्मीर से आने वाली ख़बरों पर लगी बंदिशों की वजह से वहां की जा रही कड़ी कार्रवाई का यह पहलू उभर कर नहीं आ पा रहा है।

स्वास्थ्य विभाग के एक कर्मचारी का कहना था कि वहां बहुत कम विरोध प्रदर्शन हुए हैं क्योंकि लोग डरे हुए हैं।

“द टेलीग्राफ” के रिपोर्टर ने यात्रा की और उसने सम्बूरा से शार तक की 10 किलोमीटर लम्बी सड़क पर एक भी सुरक्षा कर्मी को नहीं पाया। शुक्रवार से पाबंदियों में ढील होने के बावजूद सड़कें एकदम खाली थीं और सारी दुकानें बंद।

एक सरकारी कर्मचारी ने बताया, “उन्होंने लोगों को गिरफ़्तार कर राज्य से बाहर बंदी गृहों में रखा है ताकि खौफ़ पैदा कर सकें। ऐसे कानून बनाए गए हैं जिनके इस्तेमाल से वह किसी को भी उग्रवादी घोषित कर सकते हैं। और इन सब के ऊपर से, ये दर्जनों गिरफ़्तारियां”।

शुक्रवार तक सैकड़ों सुरक्षा कर्मी इन गांवों में तैनात थे, जो दिन के वक़्त कर्फ्यू जैसी पाबंदियों को लागू करते हैं और रात के समय ‘संभावित पत्थरबाज़ों’ को खोजते हैं।

इन गांवों से अभी तक करीब दो दर्जन युवकों को गिरफ़्तार किया गया था, जिसमें से कुछ की रिहाई हुई है। जो अभागे हैं वे अभी भी जेल में हैं, उनमें से कुछ को पब्लिक सेफ्टी एक्ट (सार्वजनिक सुरक्षा अधिनियम) लगाकर गिरफ़्तार किया गया है जिसके तहत बिना किसी मुक़दमे व जांच के उन्हें दो साल तक हिरासत में रखा जा सकता है।

शबीर अहमद भट ने बताया कि शार में पिछले सप्ताह सुरक्षा बल के लोग उसके छोटे भाई, मुख़्तार, को ढूंढते हुए आए थे। मुख़्तार 6 साल सऊदी अरब में काम करने के बाद पिछले ही साल वापस लौटा था और बेकरी चलाने लगा था। जब सुरक्षा कर्मी उसे नहीं ढूंढ पाए तो उन्होंने उसके दूसरे भाई, रफ़ीक, को गिरफ़्तार कर लिया। भट बताते हैं कि मुख़्तार को आत्मसमर्पण करना पड़ा ताकि उसका भाई रिहा हो सके।

“उसने (मुख़्तार) कभी किसी विरोध प्रदर्शन में भाग नहीं लिया और अगले महीने उसकी शादी है। पुलिस ने हमें यह आश्वासन दिया है कि उसे छोड़ देंगे।”

पास ही के ख्रेव गांव में, सुरक्षा बल के जवान समीर अहमद को ढूंढते हुए आए पर उसके पिता मंज़ूर को हिरासत में ले लिया। “उस रात समीर अपने रिश्तेदार के घर पर था। उन्होंने उसके पिता को गिरफ़्तार कर लिया पर अगले दिन जब समीर ने आत्मसमर्पण किया तो उन्हें छोड़ दिया,” एक रिश्तेदार ने बताया।

“6 दिन तक हमारे पास उसकी कोई खबर नहीं थी। कल (शनिवार) वह हमें केन्द्रीय जेल में मिला। उसे पी.एस.ए लगाकर गिरफ़्तार किया गया है। उसने बताया कि उसे ख़ूब मारा गया और जेल में अभी भी सैकड़ों कैदी हैं।”

सरकार के प्रवक्ता रोहित कंसल ने कहा कि गिरफ़्तारी और रिहाई की प्रक्रिया ‘गतिशील’ एवं स्थानीय है, जिसकी वजह से संख्या बता पाना मुश्किल है। हालांकि उन्होंने इस बात पर ज़ोर दिया कि जिन रिपोर्टों के अनुसार ‘हज़ारों’ गिरफ़्तार हुए हैं, वे रिपोर्टें चीज़ों को बढ़ा-चढ़ा कर प्रस्तुत कर रही हैं।

एक रिपोर्टर ने जब यह सवाल किया कि क्यों प्रशासन गिरफ़्तार होने वालों की संख्या नहीं बता पा रहा है जबकि उन्हें इसकी संख्या पता थी कि कितने लोगों ने ईद की नमाज़ पढ़ी तो कंसल के पास कोई जवाब न था, वे चुप रहे।

ईद के समय अधिकारियों का दावा था कि भारी संख्या में लोगों ने नमाज़ अदा की – जबकि प्रमुख मसजिदों और ईदगाहों में नमाज़ पढ़ने की अनुमति ही नहीं थी।

सरकार ने सालों नहीं तो कम से कम महीनों पहले ही तैयारी शुरू कर दी थी ताकि लोगों के आक्रामक प्रतिरोध को टाला जा सके। हिज्ब कमांडर बुरहान वानी की हत्या के बाद 2016 की गर्मी में हुए आन्दोलन – जिसमें लगभग 100 लोगों की जाने गयीं और हज़ारों घायल हुए – को कुचलने के बाद से प्रशासन ने एक बार भी अपनी कड़ी पकड़ में ढिलाई नही बरती।

राज्य को प्राप्त विशेष दर्जे को निरस्त करने के इस निर्णय के कई महीनों पहले ही क़रीब 70,000 अतिरिक्त सेना राज्य में तैनात किये जा चुके थे।

स्थानीय लोगों ने बताया कि अज्ञात सुरक्षा एजेंसियों द्वारा कई जगहों पर पोस्टर लगाए गए हैं जिससे लोगों के अन्दर और डर बैठ गया है। इन पोस्टरों में कश्मीर की स्वायत्तता को निरस्त करने के फ़ायदे जैसे कि ज़मीन की कीमतों में इज़ाफ़ा, आदि का विवरण है।


एक निवासी ने कहा, “इसका मतलब यह है कि वो हमारी ज़मीन बाहर के लोगों को बेचना चाहते हैं और यहां की जनसांख्यिकी को बदल देना चाहते हैं।”

(दी टेलीग्राफ़ में 19 अगस्त 2019 को छपी पुलवामा से मुज़फ्फर रैना की रिपोर्ट। अंग्रेजी में प्रकाशित इस रिपोर्ट का अनुवाद कल्याणी ने किया है।)

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