बंगाल के चुनावों में होने वाली हिंसा के पीछे क्या है असली वजह

नई दिल्ली। पश्चिम बंगाल में आज हो रहे पंचायत चुनाव ने राज्य के कानून-व्यवस्था के सामने सवालिया निशान लगा दिया है। मतदान शुरू होने के साथ ही जगह-जगह हिंसा, आगजनी और बैलेट पेपर लूटे जाने और बैलेट बॉक्स में पानी डाल देने की खबरें आ रही हैं। बमबारी, गोलीबारी और चाकूबाजी की घटनाओं में अब तक  12 लोगों के मारे जाने की खबर है। शाम तक ये संख्या और बढ़ सकती है, वहीं प्रशासन हिंसा का ये सिलसिला मतगणना के बाद भी जारी रहने की आशंका व्यक्त कर चुका है। तभी तो कलकत्ता हाईकोर्ट ने निर्देश दिया है कि “लोगों और निर्वाचित पंचायत सदस्यों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए” 11 जुलाई को परिणाम घोषित होने के बाद 10 दिनों तक पूरे पश्चिम बंगाल में केंद्रीय बल तैनात रहेंगे।

हर जिले से हिंसा और आगजनी की खबर

पंचायत चुनाव में सुबह मतदान शुरू होते ही हिंसा की खबरें आना लगीं। कहीं पर बैलेट पेपर लूट लिए गए तो कहीं पर मतदाताओं के ऊपर बम से हमला कर मतदान से भगाने की कोशिश हुई। सूचना के मुताबिक राज्य के कूच बिहार, नदिया, 24 परगना, वर्दवान, माल्दा, दक्षिण 24 परगना जिलों में भारी हिंसा औऱ आगजनी की सूचना है।  

नदिया जिले के छपरा में टीएमसी और कांग्रेस कार्यकर्ताओं के बीच झड़प के दौरान तृणमूल कांग्रेस के एक कार्यकर्ता की कथित तौर पर मौत हो गई। वहीं सुबह 7 बजे मतदान शुरू होते ही कूच बिहार और मालदा में हिंसा की दो अलग-अलग घटनाओं में क्रमशः एक भाजपा और एक अन्य तृणमूल कार्यकर्ता की मौत हो गई।

उत्तर 24 परगना के कदंबगाची में एक झड़प में एक स्वतंत्र उम्मीदवार का एक अन्य समर्थक कथित रूप से गंभीर रूप से घायल हो गया। उसके परिवार ने दावा किया कि उस व्यक्ति की पीट-पीटकर हत्या कर दी गई। पुलिस ने बाद में कहा कि उसे गंभीर चोटों के कारण अस्पताल में भर्ती कराया गया है।

इस बीच, टीएमसी ने दावा किया कि रेजीनगर, तूफानगंज और खारग्राम में उनकी पार्टी के तीन कार्यकर्ताओं की हत्या कर दी गई है और डोमकोल में दो लोग गोली लगने से घायल हो गए हैं।  

नदिया जिले के छपरा में सत्तारूढ़ पार्टी और कांग्रेस कार्यकर्ताओं के बीच कथित झड़प के दौरान तृणमूल कांग्रेस के एक कार्यकर्ता की मौत हो गई है। झड़प के दौरान एक टीएमसी कार्यकर्ता की मौत हो गई और 9 अन्य घायल हो गए। टीएमसी का आरोप है कि कांग्रेस कार्यकर्ताओं ने उनके कार्यकर्ताओं पर धारदार हथियारों से हमला किया, जिससे उनके कार्यकर्ता की मौत हो गई।

पूर्वी बर्दवान जिले में सीपीएम और टीएमसी कार्यकर्ताओं के बीच झड़प के बाद कल शाम गंभीर रूप से घायल हुए सीपीएम कार्यकर्ता रजीबुल हक ने शनिवार सुबह कोलकाता के एक अस्पताल में दम तोड़ दिया। दक्षिण 24 परगना के भांगर में टीएमसी और आईएसएफ कार्यकर्ताओं के बीच झड़प के दौरान कथित गोलीबारी में आईएसएफ के दो कार्यकर्ता घायल हो गए हैं।

8 जून को हुई थी पंचायत चुनाव की घोषणा

8 जून को चुनावों की घोषणा के पहले ही पश्चिम बंगाल के विभिन्न हिस्सों में व्यापक हिंसा शुरू हो गयी और हिंसक हमलों में 17 लोगों की मौत हो गई। हिंसा की आशंका के बीच लगभग 65,000 सक्रिय केंद्रीय पुलिस कर्मी और 70,000 राज्य पुलिस कर्मियों को तैनात कर चुनाव को शांतिपूर्ण तरीके से संपन्न कराने की कोशिश की गई, जो कि नाकाम साबित हुई।

पश्चिम बंगाल में त्रिस्तरीय पंचायत चुनावों में ग्राम पंचायत (ग्राम स्तर), मंडल परिषद या ब्लॉक समिति या पंचायत समिति (ब्लॉक स्तर), और जिला परिषद (जिला स्तर) है। राज्य में 3,317 ग्राम पंचायतें हैं और कुल 63,283 पंचायत सीटें हैं। ग्राम पंचायत चुनाव केंद्रों की संख्या 58,594 है। पूरे पश्चिम बंगाल में पंचायत चुनावों के कुल 5 करोड़, 60 लाख, 70 हजार ग्रामीण मतदाता हैं। 

पश्चिम बंगाल का पंचायत चुनाव ही नहीं विधानसभा और लोकसभा चुनाव में भी जमकर हिंसा होती है। एक तरह से कह सकते हैं कि हिंसा पश्चिम बंगाल की राजनीति का अंग बन गया है। ऐसे में सवाल उठता है कि ऐसा क्यों हुआ? अतीत के पन्नों को पलटने से हमें इसका जवाब मिल सकता है।

पश्चिम बंगाल लंबे समय से सीपीएम और कांग्रेस की राजनीति का मंच था। सत्तर के दशक में राज्य के कई हिस्सों में भारी संख्या में बांग्लादेशी शरणार्थी बस गए। सत्तर के दशक में उन्हीं क्षेत्रों में नक्सलबाड़ी आंदोलन का उभार हुआ, इस आंदोलन के दमन में सत्तारूढ़ पार्टी और वैचारिक विरोधियों ने जो तरीका अपनाया, उससे राज्य की राजनीति में विरोधी स्वर के दमन में हिंसा का सूत्रपात हुआ।

सत्ता का विकेंद्रीकरण और राजनीतिक हिंसा

लेकिन अभी यह सवाल बना हुआ है कि पंचायत चुनाव में इस कदर हिंसा का बोलबाला कैसे हुआ? इसका जवाब वहां का सामाजिक, राजनीतिक और प्रशासनिक ढांचा है। यह सही बात है कि राज्य में गरीबों की संख्या अधिक है। सीपीएम सरकार ने गरीबों के कल्याण और सत्ता के विकेंद्रीकरण के लिए जो नियम-कानून लागू किए उससे स्थानीय स्तर यानि गांवों तक सत्ता से सीधे तौर पर जुड़ा एक तंत्र तैयार हुआ। वाममोर्चा ने भूमि सुधारों और पंचायत व्यवस्था को मजबूत करके सत्ता के विकेंद्रीकरण के जरिए ग्रामीण इलाक़ों में अपनी जो पहुंच और पकड़ बनाई थी उसी ने उसे यहां कोई 34 साल तक सत्ता में बनाए रखा था।

सरकारी योजनाओं को गांव और परिवार स्तर तक लागू करने में इस तंत्र का उपयोग होता रहा। सीपीएम के शासन में एक तरह से गांव पंचायत गांव की सरकार के रूप में काम करने लगी। गांव की छोटी-मोटी जरूरतों को पूरा करने से लेकर आपसी झगड़ों तक को ये तंत्र सुलझाता रहा है। किसी भी काम के लिए पहले पार्टी संगठन और पंचायत के पास ले जाया जाता था, उसके बाद लोग पुलिस-थाना और कोर्ट कचहरी जाते थे। राजनीतिक दल इस तंत्र का उपयोग चुनावी लाभ के लिए भी करते रहे। ऐसे में स्थानीय स्तर पर विकसित इस तंत्र पर हर राजनीतिक दल नियंत्रण चाहने लगे। क्योंकि इस पर नियंत्रण किए बिना कोई भी राजनीतिक दल राज्य की सत्ता की कमान अपने हाथों में नहीं ले सकता है।

दरअसल, राज्य के विभिन्न इलाक़ों में बालू, पत्थर और कोयले के अवैध खनन और कारोबार पर वर्चस्व भी पंचायत चुनाव में होने वाली हिंसा की एक प्रमुख वजह है। यह तमाम कारोबार पंचायतों के ज़रिए ही नियंत्रित होते हैं।

बंगाल में राजनीतिक हिंसा का अतीत

नेशनल क्राइम रिकार्ड्स ब्यूरो (एनसीआरबी) ने 2018 की अपनी रिपोर्ट में कहा था कि पूरे साल के दौरान देश में होने वाली 54 राजनीतिक हत्याओं के मामलों में से 12 बंगाल से जुड़े थे। लेकिन उसी साल केंद्रीय गृह मंत्रालय ने राज्य सरकार को जो एडवाइज़री भेजी थी उसमें कहा गया था कि पश्चिम बंगाल में राजनीतिक हिंसा में 96 हत्याएं हुई हैं और लगातार होने वाली हिंसा गंभीर चिंता का विषय है। उसी रिपोर्ट में कहा गया था कि वर्ष 1999 से 2016 के बीच पश्चिम बंगाल में हर साल औसतन 20 राजनीतिक हत्याएं हुई हैं। रिपोर्ट के मुताबिक 2009 में सबसे ज्यादा 50 हत्याएं हुईं। उसी साल अगस्त में मार्क्सवादी कम्यूनिस्ट पार्टी (माकपा) ने एक पर्चा जारी कर दावा किया था कि दो मार्च से 21 जुलाई के बीच तृणमूल कांग्रेस ने 62 कैडरों की हत्या कर दी है।

बीबीसी की रिपोर्ट के अनुसार चार दशक से बंगाल की राजनीति को क़रीब से देखने वाले वरिष्ठ पत्रकार तापस घोष बताते हैं कि 1980 और 1990 के दशक में जब बंगाल के राजनीतिक परिदृश्य में तृणमूल कांग्रेस और भाजपा का कोई वजूद नहीं था, वाममोर्चा और कांग्रेस के बीच अक्सर हिंसा होती रहती थी।

1989 में तत्कालीन मुख्यमंत्री ज्योति बसु की ओर विधानसभा में पेश आंकड़ों में कहा गया था कि 1988-89 के दौरान राजनीतिक हिंसा में 86 राजनीतिक कार्यकर्ताओं की मौत हो गई है। इनमें से 34 सीपीएम के थे और 19 कांग्रेस के। और शेष मरने वालों में वाममोर्चा के घटक दलों के कार्यकर्ता शामिल थे।

राजनीतिक रूप से स्थिर इस राज्य में हिंसा की संस्कृति कैसे लगातार बरकरार है? कहा जाता है कि बंगाल में सत्ता की राह ग्रामीण इलाकों से ही निकलती है। यही वजह है कि देश के कई राज्यों के विधानसभा चुनावों के मुकाबले पश्चिम बंगाल में होने वाले पंचायत चुनावों को ज्यादा सुर्खियां और अहमियत मिलती रही है।

राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि स्थानीय स्तर पर इस तंत्र को साध लेने का मतलब है कि बंगाल के ग्रामीण इलाकों पर पूरी तरह से नियंत्रण। ऐसे में जिसकी लाठी उसकी भैंस की तर्ज पर पंचायतों पर काबू पाने के लिए तमाम राजनीतिक पार्टियां अपनी पूरी ताकत झोंक देती हैं।

पिछले पंचायत चुनाव में क्या थी स्थिति?

2018 में, टीएमसी ने 95 प्रतिशत से अधिक ग्राम पंचायतें जीतीं, जिनमें से 34 प्रतिशत सीटें निर्विरोध थीं, जो बंगाल पंचायत चुनावों के इतिहास में एक रिकॉर्ड है। तब भी विपक्ष ने आरोप लगाया था कि उन्हें नामांकन जमा करने की अनुमति नहीं दी गई। बड़े पैमाने पर हिंसा और चुनाव में धांधली के आरोपों को लेकर टीएमसी को आलोचना का सामना करना पड़ा था। पुलिस की भूमिका पर भी सवाल उठाए गए थे।

अगले वर्ष, 2019 में, लोकसभा चुनावों में सत्तारूढ़ पार्टी के प्रदर्शन में गिरावट आई, जिसमें भाजपा ने 18 संसदीय निर्वाचन क्षेत्रों में जीत हासिल की। पश्चिम बंगाल में भाजपा का प्रदर्शन बहुत अच्छा रहा।

पंचायत चुनाव क्यों महत्वपूर्ण हैं?

2024 के लोकसभा चुनाव से पहले, पंचायत चुनाव सभी प्रमुख राजनीतिक खेमों-तृणमूल कांग्रेस, भाजपा और वाम-कांग्रेस गठबंधन के लिए एक लिटमस टेस्ट होगा। 2021 के विधानसभा चुनावों में, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह के नेतृत्व में भाजपा के प्रचंड अभियान के बावजूद टीएमसी प्रचंड बहुमत के साथ सत्ता में लौट आई। हालांकि, तब से सत्तारूढ़ दल पर भ्रष्टाचार के बड़े पैमाने पर आरोप लगे हैं।

टीएमसी नेताओं को एसएससी घोटाला मामले, कोयला तस्करी और पशु तस्करी मामलों में गिरफ्तार किया गया है। केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) ने भी कथित नगरपालिका भर्ती घोटाले की जांच शुरू कर दी है। अभिषेक बनर्जी कोयला चोरी मामले और एसएससी घोटाले में सीबीआई की पूछताछ का सामना कर रहे हैं। ऐसे में पंचायत चुनाव इस बात का अहम संकेतक होंगे कि बंगाल में राजनीतिक हवा किस तरफ बह रही है।

(प्रदीप सिंह जनचौक के राजनीतिक संपादक हैं।)

प्रदीप सिंह
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