दूरगामी लक्ष्य से प्रेरित है ममता और मोदी का संघर्ष!

पूरे देश और खासकर मीडिया में पीएम मोदी के अपमान को लेकर हाय तौबा मचा हुआ है। ऐसा लग रहा है जैसे ममता ने पीएम मोदी के साथ बैठक न कर उनकी इज्जत उतार ली है। और इसकी सजा पश्चिमी बंगाल सरकार की बर्खास्तगी है। और केंद्र भी घटना के बाद जिस तरह से सक्रिय हुआ और उसने सारे नियम और प्रोटोकाल तोड़ते हुए बंगाल के चीफ सेक्रेटरी को वापस बुलाने का फैसला किया उससे लगता है अपमान का यह तीर बेहद गहरे तक चोट किया है। लेकिन इस स्थिति के लिए भला जिम्मेदार कौन है। पिछले सात सालों से देश में जो राजनीति हो रही है और उसे पाताल के स्तर तक ले जाने में पीएम मोदी, बीजेपी और केंद्र सरकार ने जो भूमिका निभायी है उसकी क्या कोई पिछले 70 सालों में दूसरी मिसाल मिलेगी। यह एक ऐसी सरकार आयी जिसने विपक्ष के पूरे वजूद को ही खारिज कर दिया। उसने कभी माना ही नहीं कि देश में विपक्ष नाम की भी कोई चीज होती है। उसकी कोई भूमिका होती है। और वह भी खासकर संसदीय लोकतंत्र में जहां पीएम का भी चुनाव संसदीय दल की बैठक में होता है।

70 सालों में संविधान और संसद समेत देश की सभी संवैधानिक संस्थाओं की गरिमा और मान मार्यादा के अनुकूल सरकारें आचरण करती रहीं। लेकिन यह पहली सरकार है जिसने अपने हितों के मुताबिक सबको तोड़ा-मरोड़ा और इस्तेमाल करके फेंक दिया। आज सभी संस्थाएं अपने वजूद की भीख मांग रही हैं। और इनके रहमोकरम पर जिंदा हैं। वह न्यायपालिका हो या कि संसद या फिर कोई दूसरी संस्था। उसकी कहानी बार-बार बतायी गयी है यहां फिर से दोहराने की कोई जरूरत नहीं है। और विपक्ष के नेताओं की तो खिल्ली उड़ाना जैसे इनका जन्मसिद्ध अधिकार बन गया था। पार्टी से लेकर नागपुर तक के निक्करधारी इस काम को बखूबी आगे बढ़ाते रहे। इस काम के लिए उन्होंने अलग से अपना आईटी सेल खोल रखा है। यहां तक कि कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी को पप्पू साबित करने के लिए संघ-बीजेपी ने दसियों हजार करोड़ रुपये का अलग से बजट बना रखा है। लेकिन कहते हैं कि जिस तरह से किसी नदी को बाधा नहीं जा सकता है उसी तरह से प्रतिभा भी अपना रास्ता ढूंढ ही लेती है।

पीएम मोदी अगर कोरोना के इस संकट काल में कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी की बातों पर अमल कर लेते तो आज देश की तस्वीर बिल्कुल दूसरी होती। पूरी दुनिया के सामने जो देश की थू-थू हो रही है उससे बचा जा सकता था। राहुल गांधी ने बहुत पहले ही कह दिया था कि कोरोना एक सुनामी है और उसे हल्के में नहीं लिया जाना चाहिए। और अगर सरकार लेती है तो यह उसकी सबसे बड़ी भूल होगी। राहुल ने फिर कहा है कि अभी भी सरकार कोरोना को समझ नहीं पा रही है। यह अपना रूप और रंग बदलने वाला विषाणु है। और इसके खिलाफ उससे तेज गति से हमले और बचाव की जरूरत है। लेकिन सरकार इस बात को समझ ही नहीं रही है।

कोरोना के इस महासंकट के दौरान भी बीजेपी-संघ का सूबों में येन-केन प्रकारेण अपनी सत्ता बनाने का ही जोर रहा। मध्य प्रदेश की सरकार कैसे बनी पूरा देश जानता है। और लॉकडाउन के लिए सत्ता के गठन तक का इंतजार किया गया। पश्चिम बंगाल समेत पांच राज्यों के चुनावों के लिए कोरोना के खतरे को देश से छुपाया गया। जिसका नतीजा अब पूरा देश भुगत रहा है। और उसी बीच यूपी के पंचायत चुनावों और हरिद्वार के कुंभ के जरिये इसे घर-घर पहुंचाने की व्यवस्था कर दी गयी। जबकि सरकार चाहती तो इन सारे आयोजनों को रद्द कर सकती थी। और इसे रद्द करने का उसके पास वाजिब कारण था। कोरोना की वह रिपोर्ट जिसे विशेषज्ञों और वैज्ञानिकों ने सरकार को दी थी। लेकिन सरकार ने उसको दबा कर रखा। 

बहरहाल बात हो रही थी नेताओं के मान-सम्मान और अपमान की। पश्चिम बंगाल के मामले में तो मोदी ने सारी सीमाएं ही लांघ दी। उन्हें मान-अपमान का कोई ज्ञान ही नहीं रहा। और पूरे विधानसभा चुनाव के दौरान वह कितनी बार इस लक्ष्मण रेखा को पार किए होंगे वह किसी के लिए भी गिन पाना मुश्किल है। अमूमन तो देश का प्रधानमंत्री इस तरह के किसी विधानसभा के चुनाव में इतना प्रचार करता ही नहीं है। चलिए आपको कुर्सी से इतना मोह है कि आप अपने आप को रोक ही नहीं पाते। लेकिन अगर मैदान में उतरते हैं तो उसकी भी अपनी एक गरिमा होती है उसको बनाए रखने की जिम्मेदारी आपकी है। लेकिन क्या पीएम मोदी पश्चिम बंगाल का चुनाव प्रचार करते हुए पीएम पद की गरिमा को बनाए रखने में सफल रहे।

चुनाव में उनका सबसे मशहूर जुमला दीदी-ओ-दीदी रहा। क्या किसी सभ्य समाज का आदमी किसी सार्वजनिक मंच से किसी महिला को इस तरह से पुकार सकता है। आप तो देश के प्रधानमंत्री थे। ऐसा करके आप देशवासियों को क्या संदेश देना चाहते थे। सड़क और गली के शोहदे भी जिस भाषा में बात करना न पसंद करें आप वो सारी बातें सार्वजनिक मंच से कर रहे थे। और इस पूरे चुनाव के दौरान और फिर चुनाव के बाद जिस तरह से आपने पश्चिम बंगाल सरकार के खिलाफ उसे उखाड़ फेंकने का अभियान छेड़ा है उसमें दोनों के बीच क्या रिश्ते सामान्य रहने की कोई गुंजाइश बचती है? यह एक अपवाद की स्थिति है। जिसमें दोनों पक्ष एक दूसरे को खत्म कर देना चाहते हैं। ऐसी असामान्य स्थितियों में इस तरह की घटनाओं का होना कोई आश्चर्यजनक बात नहीं है।

लेकिन बंगाल के मामले को जिस तरह से खींचा जा रहा है। चुनाव बाद जिस तरह से केंद्र सक्रिय हुआ वह किसी दूसरी ही कहानी की तरफ इशारा कर रही है। पीएम मोदी को अब 2024 दिख रहा है। और देश के जो हालात बन गए हैं उनमें अगर कोई पुलवामा या बालाकोट नहीं होता है तो सामान्य तरीके से होने वाले चुनावों में बीजेपी की फिर से वापसी हो पाना मुश्किल है। ऐसे में मोदी एक दूसरे ही राजनीतिक गेम प्लान में जुट गए हैं। जिसमें उनकी पूरी कोशिश होगी कि अगर विपक्ष की सरकार बनती भी है तो सत्ता किसी भी रूप में कांग्रेस के पास न जाए। विपक्ष के नाम पर कोई लूली-लंगड़ी सरकार बने और फिर वह अपने ही बोझ के नीचे दब कर खत्म हो जाए। जिससे पुरानी कांग्रेस की तर्ज पर स्थायी सरकार देने और उसे चलाने के तर्क के साथ बीजेपी की फिर से वापसी की जा सके।

इस लिहाज से राहुल गांधी से इतर विपक्ष की किसी एक नेता का मजबूती के साथ सामने आना उसकी पहली शर्त बन जाती है। पीएम मोदी वह संभावना ममता बनर्जी में देख रहे हैं। और उसी के लिहाज से बार-बार वह पश्चिम बंगाल पर फोकस किए हुए हैं। जिसे ममता बनाम मोदी का यह संघर्ष सामने आता रहे। और मोदी के खिलाफ गुस्से का ममता केंद्र बन जाएं। अनायास नहीं राहुल गांधी कुछ भी कह रहे हैं या तो उसे दरकिनार कर दिया जा रहा है या फिर हंसी में उड़ाने की कोशिश हो रही है। सत्ता संरक्षित मीडिया की यह पूरी कोशिश है कि राहुल बनाम मोदी होने ही नहीं दिया जाए। जिस दिन बंगाल की यह घटना हुई उसी दिन राहुल गांधी ने प्रेस कांफ्रेंस की थी और पीएम मोदी पर अब तक का सबसे बड़ा हमला किया था। इसके साथ ही उन्होंने कई बेहद महत्वपूर्ण सुझाव दिए थे लेकिन मीडिया ने उसे तवज्जो देना ही उचित नहीं समझा। उसका पूरा फोकस मोदी बनाम ममता पर ही केंद्रित रहा। 

इसके साथ ही एक दूसरा कारण और भी है जिसमें केंद्र के लिए इस मुद्दे को बनाए रखना बेहद मुफीद है। दरअसल मोदी सरकार के लिए देश में कोरोना के दौरान हुई मौतें और फिर लाशों के अंतिम संस्कार को लेकर होने वाली अनियमितताओं ने पूरे देश को झकझोर दिया। मोदी नहीं चाहते कि देश में यह एजेंडा बने। इस लिहाज से सत्ता पक्ष द्वारा कई दूसरे गैर जरूरी मुद्दों को बार-बार उछालने की कोशिश की जा रही है। उसमें रामदेव का एलोपैथी संबंधी बयान हो या फिर चक्रवात का जायजा लेने के बहाने पीएम मोदी का प्रभावित इलाकों का दौरा हो या फिर उसी से इस तरह के विवादों को पैदा करने की कोशिश। सब कुछ उसी सोची-समझी रणनीति का हिस्सा है।

और हां आखिरी बात। जो लोग इसे पीएम पद की गरिमा से जोड़ कर देख रहे हैं खासकर वह हिस्सा जो मोदी और बीजेपी समर्थक है, उसे ज़रूर एक बार अपने गिरेबान में झांकना चाहिए। और खुद से पूछना चाहिए कि क्या वह सचमुच में पीएम के पद की गरिमा को लेकर चिंतित है? अगर ऐसा होता तो पूर्व प्रधानमंत्रियों की भी गरिमा होती है। उनके परिवारों की भी होती है। लेकिन बीजेपी-संघ के इन समर्थकों ने उनके साथ क्या किया? शायद ही कोई ऐसा मौका हो जिसमें संघ और उसके लगुओं-भगुओं ने पूर्व प्रधानमंत्री और आधुनिक भारत के निर्माता पंडित जवाहर लाल नेहरू के अपमान का कोई मौका छोड़ा हो। ह्वाट्सएप फारवर्ड उनके इस तरह के अपमानों से भरे पड़े हैं। जिनमें 99 फीसदी बातें तथ्यात्मक रूप से झूठी हैं या फिर बिल्कुल मनगढ़ंत। ऐसे लोगों को पीएम पद की गरिमा के बारे में बात करने का तो कतई कोई नैतिक अधिकार नहीं है जिन्होंने नेहरू को उनकी भांजी नयन तारा सहगल द्वारा चूमे जाने की फोटो को नेहरू की प्रेमिका के तौर पर पेश किया है। या फिर नेहरू के खानदान की उत्पत्ति को कश्मीर की बजाय मुस्लिम परिवार से जोड़ने की कोशिश की है। और इतना ही नहीं एक पूर्व प्रधानमंत्री की पत्नी के खिलाफ अश्लीलतम स्तर पर उतर कर अभियान संचालित किया हो या फिर उसमें हिस्सा लिया हो।

(महेंद्र मिश्र जनचौक के संस्थापक संपादक हैं।)

महेंद्र मिश्र
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