अब अमेरिका के खिलाफ मोर्चा खोलेगा भारत?

कनाडा में खालिस्तानी कार्यकर्ता हरदीप सिंह निज्जर की हत्या के मामले में अब भारत और पूरे पश्चिम के बीच टकराव की स्थिति खड़ी होती नजर आ रही है। कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो ने बीते 18 सितंबर को भारत पर कनाडा की जमीन पर कनाडाई नागरिक निज्जर की हत्या कराने का आरोप लगाया था। उसके बाद से दोनों देशों के एक दूसरे के खिलाफ रुख में आक्रामकता बढ़ती चली गई है। 

इस सिलसिले में कनाडा की तरफ से ताजा बयान वहां की विपक्षी न्यू डेमोक्रेटिक पार्टी के नेता जगमीत सिंह का आया है। उन्होंने कहा है कि भारत पर आरोप लगाने के पहले प्रधानमंत्री ट्रूडो ने अन्य विपक्षी नेताओं के साथ उन्हें भी भारत के खिलाफ जुटाए गए सबूतों को दिखाया था। सिंह ने कहा- वे सबूत ठोस और विश्वसनीय हैं। 

अमेरिका की तरफ से दो टूक कहा जा चुका है कि वह इस मामले में पूरी तरह से कनाडा के साथ है। बल्कि यह खबर अमेरिकी मीडिया ने ब्रेक की कि राष्ट्रपति जो बाइडेन ने जी-20 शिखर सम्मेलन के दौरान नई दिल्ली में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सामने यह मसला उठाया था और उनसे कनाडा की जांच में सहयोग करने को कहा था। बहरहाल, बात सिर्फ यहीं तक नहीं है। ऐसा लगता है कि अमेरिका ने अब भारत पर दबाव बनाने की रणनीति अपना ली है। इसके लिए सबसे पहले उसने अपनी समझ के मुताबिक भारत की कमजोर नस को दबाने की चाल चली है।      

मंगलवार को भारत में अमेरिका के राजदूत एरिक गार्सेटी ने कश्मीर मसले पर टिप्पणी की। उन्होंने कहा कि इस विवाद को भारत और पाकिस्तान को आपस में हल करना है। गार्सेटी से यह सवाल पाकिस्तान स्थित अमेरिकी राजदूत डॉनल्ड ब्लोम की पाकिस्तान कब्जे वाले कश्मीर (पीओके) की यात्रा के सिलसिले में पूछा गया था। ब्लोम इस समय पीओके के दौरे पर हैं। वहां उन्होंने पीओके को ‘आजाद जम्मू एवं कश्मीर’ कह कर संबोधित किया। 

ब्लोम और गार्सेटी दोनों के बयान महत्त्वपूर्ण हैं। दरअसल, लंबे समय बाद अमेरिका के किसी इस स्तर के अधिकारी ने कश्मीर मसले पर इस तरह की टिप्पणी की है। 

इसलिए स्वाभाविक रूप से यह प्रश्न उठा है कि ब्लोम का पीओके जाना और उस क्षेत्र को पाकिस्तान की भाषा के अनुकूल संबोधित करना क्या भारत को कोई संदेश देने का प्रयास है? और क्या गार्सेटी ने उस टिप्पणी में अपनी बात जोड़ कर उस संदेश को और स्पष्ट किया? गार्सेटी का कश्मीर को द्विपक्षीय विवाद बताना- जिसका समाधान अभी बाकी है, वर्तमान भारत सरकार के रुख के खिलाफ जाता है। नरेंद्र मोदी सरकार यह नहीं मानती कि इस विवाद को हल करने में पाकिस्तान की कोई भूमिका है। जहां तक विवाद का प्रश्न है, तो वह सिर्फ पीओके पर है। 

जबकि अमेरिकी राजदूतों ने जिस रूप में कश्मीर विवाद का जिक्र किया है, उससे नहीं लगता कि वे भारत के रुख से सहमत हैं। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हर घटना के महत्व को उसके खास संदर्भ में देखा और समझा जाता है। स्पष्टतः कनाडा के साथ भारत के बढ़े विवाद के बीच जब भारत और पश्चिमी देश एक दूसरे के खिलाफ खड़े होते नजर आ रहे हैं, अमेरिकी राजदूतों के कश्मीर पर बोलने का एक खास संदर्भ बन जाता है। 

उधर अमेरिका में सत्ताधारी डेमोक्रेटिक पार्टी की सांसद इल्हान उमर ने कहा है कि वे जो बाइडेन प्रशासन से यह पूछेंगी कि क्या अमेरिका में रहने वाले सिखों की जान भी खतरे में है और इस सिलसिले में प्रशासन ने क्या कदम उठाए हैं? जाहिर है, अमेरिका में इस मामले को गरम रखने की पूरी कोशिश की जा रही है। 

इस सिलसिले में यह भी उल्लेखनीय है कि भारत को लेकर खासकर अमेरिकी और ब्रिटिश अखबारों की भाषा तल्ख हो गई है। ब्रिटिश पत्रिका द इकॉनमिस्ट ने मंगलवार को प्रकाशित एक टिप्पणी में भारत को यह याद रखने को कहा है कि वॉशिंगटन में भारत से संबंध बेहतर करने को लेकर जो द्विपक्षीय सहमति रही है, वह अब टूट सकती है। इसी पत्रिका ने पिछले हफ्ते भारत को यह याद दिलाया था कि उसकी उतनी ताकत नहीं है, जितना वह समझ रहा है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की राजनीति और उनकी सरकार की अनेक घरेलू नीतियों को लेकर पश्चिमी मीडिया के अचानक आलोचनात्मक स्वर काफी तीखे हो गए हैं। मसलन, न्यूयॉर्क टाइम्स में प्रकाशित एक टिप्पणी में मोदी को तानाशाह बताया गया है। इसी टिप्पणी में कहा गया है कि ट्रूडो निज्जर हत्याकांड में भारत सरकार का हाथ होने के बारे में मौजूद साक्ष्य के सही होने को लेकर आत्म-विश्वास से भरे हुए हैं। ब्रिटिश अखबार फाइनेंशियल टाइम्स ने एक टिप्पणी में मोदी को पश्चिम की समस्या बताया है।

जाहिरा तौर पर यह संदेश देने को कोशिश की जा रही है कि पश्चिम की चीन को घेरने की मजबूरी के मद्देनजर भारत यह ना माने कि वह पश्चिमी हितों का खुला उल्लंघन कर सकता है। स्पष्टतः यह पश्चिमी रुख भारतीय विदेश नीति के सामने एक नई चुनौती बन कर आया है। लेकिन फिलहाल यह नहीं लगता कि भारत इस चुनौती के दबाव में है। बल्कि वह पश्चिम- यहां तक कि सीधे अमेरिका के खिलाफ मोर्चा खोलने का संकेत दे रहा है। इस बात का एक स्पष्ट उदाहरण संयुक्त राष्ट्र में विदेश मंत्री एस जयशंकर का संबोधन है। 

जयशंकर ने संयुक्त राष्ट्र के मंच से ना सिर्फ कनाडा को सख्त संदेश दिया, बल्कि अमेरिका को भी आईना दिखाने की कोशिश की। जयशंकर के भाषण में ऐसी कई बातें आईं, जो आजकल अक्सर चीनी राजनयिकों के भाषणों में सुनने को मिलती हैं। इन बातों पर गौर कीजिएः भारतीय विदेश मंत्री ने कहा कि अब वह दौर चला गया, जब कुछ देश दुनिया का एजेंडा तय कर देते थे। 

जयशंकर ने नियम आधारित विश्व व्यवस्था के अमेरिकी नैरेटिव पर भी कटाक्ष किया। कहाः अंतरराष्ट्रीय वार्ताओं में अक्सर नियम आधारित विश्व व्यवस्था की बात आती है। संयुक्त राष्ट्र घोषणापत्र का भी जिक्र किया जाता है। लेकिन असल में कुछ ही देश हैं, जो एजेंडा तय करते हैं और नियमों को परिभाषित करते हैं। यह अनिश्चितकाल तक चलते नहीं रह सकता। ना ही अब बिना किसी चुनौती के ऐसा चलता रहेगा।

स्पष्टतः जयशंकर का लहजा सख्त था। लेकिन वे यहीं तक नहीं रुके। बल्कि साथ ही वैक्सीन भेदभाव, जलवायु परिवर्तन की ऐतिहासिक जिम्मेदारी, और खाद्य एवं ऊर्जा को जरूरतमंद देशों के बजाय धनी देशों को भेज देने के लिए बाजार की शक्ति के उपयोग जैसे मुद्दे भी उठा दिए। ये वो तमाम बातें हैं, जिन पर धनी देशों का विकासशील देशों के साथ पुराना टकराव रहा है। संयुक्त राष्ट्र में जयशंकर ने खुद को ग्लोबल साउथ के प्रतिनिधि के तौर पर पेश किया।  

न्यूयॉर्क में हुए एक अन्य चर्चा के दौरान जयशंकर ने कनाडा पर आतंकवाद की शरणस्थली होने का सीधा सीधा इल्जाम लगाया। कटाक्ष के स्वर में उन्होंने कहाः नियम बनाने वाले देश प्रादेशिक अखंडता और अन्य देशों के आंतरिक मामलों में अहस्तक्षेप की नीति को अपनी सुविधा के अनुसार लागू करते हैं। 

जयशंकर के इन बयानों का मतलब फिलहाल तो यही है निज्जर कांड में भारत बचाव की मुद्रा में नहीं है। दरअसल किसी स्वाभिमानी देश को इस मुद्रा में आना भी नहीं चाहिए। लेकिन यह भी सच है कि कोई देश ऐसा तभी कर सकता है, जब वहां की सरकार देश के आंतरिक और विदेशी दोनों मामलों में उन उसूलों पर चलती हो, जिसकी वकालत वह कर रही हो। वरना, उसके बारे में भी यही कहा जाएगा कि वह तात्कालिक जरूरत के मुताबिक- यानी अपनी सुविधा के हिसाब से- ऊंचे आदर्शों की बात कर रही है।  

वैसे व्यावहारिक प्रश्न यह भी है कि क्या साथ-साथ पश्चिम और चीन की धुरी के साथ एक साथ टकराव मोल लेना क्या भारत के दूरगामी हित में है? आखिर चीन के साथ तो भारत के संबंध पहले से ही बिगड़े हुए हैं। इस बीच पश्चिम के खिलाफ मोदी सरकार अगर मोर्चा खोलती है, तो यह मोर्चा कितना मजबूत होगा और इसके क्या परिणाम होंगे, इन अहम सवालों पर देश में ज़रूर बहस होनी चाहिए।

(सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार होने के साथ अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार हैं।) 

सत्येंद्र रंजन
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सत्येंद्र रंजन