राष्ट्रपति चुनावः विपक्ष की तरफ से यशवंत सिन्हा क्या उपयुक्त उम्मीदवार हैं?

21 जून को विपक्षी दलों ने राष्ट्रपति के चुनाव के लिए अपने साझा उम्मीदवार की घोषणा की। अपने उम्मीदवार यशवंत सिन्हा को ‘अच्छा उम्मीदवार’ बताया। स्वयं यशवंत जी भी पिछले कुछ समय से लगातार ‘अच्छी-अच्छी बातें’ करते नजर आ रहे थे। वह भाजपा की मौजूदा नरेंद्र मोदी सरकार की जनविरोधी नीतियों की जमकर आलोचना कर रहे थे। विपक्षी एकता आदि के लिए शरद पवार के साथ मिलकर कुछ बैठकें भी की थीं। ऐसी एक बहु-प्रचारित बैठक के आयोजन में प्रशांत किशोर की अहम भूमिका रही। लेकिन यशवंत जी के राजनीतिक जीवन का लंबा हिस्सा भारतीय जनता पार्टी में ही बीता है। 

राष्ट्रपति चुनाव में इस बार उनका मुकाबला झारखंड की पूर्व राज्यपाल और ओडिशा की वरिष्ठ भाजपा नेता द्रौपदी मुर्मू से होगा, जिन्हें सत्ताधारी पार्टी ने अपना प्रत्याशी बनाया है। द्रौपदी जी ओडिशा के मयूरभंज जिले के एक आदिवासी परिवार से आती हैं। सत्ताधारी भाजपा गठबंधन ने पिछली बार दलित समुदाय से आने वाले रामनाथ कोविंद को उम्मीदवार बनाया और जिताया। इस बार उसने आदिवासी समुदाय से आने वाली एक शिक्षित और सक्रिय महिला राजनीतिज्ञ को उम्मीदवार बनाया है। भाजपा हाल के वर्षों में अपने अनेक फैसलों में पार्टी के चुनावी-हितों को सर्वोपरि रखती रही है। अपने ऐसे फैसलों से वह पार्टी और आरएसएस के वास्तविक उच्चवर्णीय हिन्दू वर्चस्व से आम लोगों का ध्यान हटाने में कामयाब होने की कोशिश भी करती है। सामाजिक न्याय और समावेशी विकास के रास्ते को नजरंदाज कर कारपोरेट-प्रेरित निजीकरण-विनिवेशीकरण जैसी नीतियों पर चलने वाली भाजपा के राज में दलितों-आदिवासियों-ओबीसी के आरक्षण प्रावधानों का दायरा भी संकुचित हुआ है। आरक्षण के तहत भर्तियों में पहले के मुकाबले कमी आई है।

निजी क्षेत्र में आरक्षण की मांग को मोदी सरकार ने कभी मंजूर नहीं किया जबकि आज रोजगार का सृजन सरकारी क्षेत्र के मुकाबले निजी क्षेत्र में ही ज्यादा किया जा रहा है। पर ‘प्रतीकात्मक-प्रतिनिधित्व की     राजनीति’ करने में भाजपा का कोई जोड़ नहीं है। इसी सोच और रणनीति के तहत उसने पांच साल पहले रामनाथ कोविंद को राष्ट्रपति बनाया था। इस बार द्रौपदी मुर्मू को बना रही है। जिन दिनों मुर्मू जी राज्यपाल थीं, झारखंड में भाजपा की रघुवर दास सरकार ने वहां के आदिवासियों पर अनेक जुल्म किये। बड़े पैमाने पर युवाओं की संदेह के आधार पर गिरफ्तारियां हुईं। किशोर-वय के लोगों और बुजुर्गों को राजद्रोह तक के मामलों में फंसाया गया। पर मुर्मू जी ने कभी हस्तक्षेप नहीं किया। झामुमो गठबंधन की हेमंत सोरेन सरकार आने के बाद उन फर्जी मामलों को क्रमशः वापस लिया जाने लगा। झामुमो ने अपने घोषणापत्र में ही आदिवासियों पर थोपे गये फर्जी मामलों को वापस लेने का वादा किया था। 

जहां तक विपक्ष के साझा उम्मीदवार यशवंत सिन्हा का सवाल है, कोई नहीं जानता कि किन ठोस कारणों से उन्हें उम्मीदवार बनाया गया? क्या इसलिए कि विपक्षी खेमे को सुसंगत सेक्युलर और जनपक्षी सामाजिक-राजनीतिक पृष्ठभूमि का कोई योग्य व्यक्ति नहीं मिला तो टीएमसी के दबाव में यशवंत सिन्हा का नाम आ गया? क्या वह वाकई संयुक्त विपक्ष की तरफ से ‘अच्छे उम्मीदवार’ माने जा सकते हैं, जैसा कुछ प्रमुख विपक्षी दल दावा कर रहे हैं? देश आज जिस तरह की बड़ी राजनीतिक और संवैधानिक चुनौतियों का सामना कर रहा है, उसमें यशवंत जी क्या सुसंगत सेक्युलर सोच और संवैधानिक मूल्यों के प्रति अपनी असंदिग्ध प्रतिबद्धता का दावा कर सकते हैं? क्या वे विपक्षी खेमे और आम लोगों में किसी तरह का राजनीतिक उत्साह जगा सकते हैं? 

संसदीय राजनीति में आने से पहले यशवंत सिन्हा भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी रहे हैं। सन् 1984 में वह प्रशासनिक सेवा से इस्तीफा देकर राजनीति में दाखिल हुए। नौकरशाह के रूप में उनकी अपेक्षाकृत बेहतर छवि थी। प्रतिभाशाली थे। अपने राजनीतिक जीवन के शुरुआती दौर में वह पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर से जुड़े। सन् 1988 में उन्हें राज्यसभा के लिए चुना गया। सन् 1990-91 के दौरान वह कांग्रेस-समर्थित चंद्रशेखर की चार महीने की सरकार में देश के वित्त मंत्री भी रहे। बाद में कांग्रेस ने समर्थन वापस ले लिया तो सजपा की सरकार गिर गई। कुछ समय बाद वह भाजपा में आ गये और अटल बिहारी वाजपेयी की अगुवाई वाली एनडीए सरकार में सन् 1998 से 2002 के बीच वित्त मंत्री रहे। फिर 2002 से 2004 के बीच वह विदेश मंत्री भी रहे। सन् 2018 के अप्रैल महीने तक वह भारतीय जनता पार्टी में थे। फिर उनके आम आदमी पार्टी, कांग्रेस या जनता दल-यू में भी शामिल होने की अटकलें लगाई गईं। लेकिन मार्च, 2021 में वह ममता बनर्जी की अगुवाई वाली तृणमूल कांग्रेस में शामिल हो गये।

बताया जाता है कि इसमें चर्चित चुनाव-रणनीतिकार प्रशांत किशोर की अहम् भूमिका थी। सिन्हा की तरह किशोर भी बिहार से आते हैं। यशवंत जी ने बाद के दिनों में बिहार की बजाय झारखंड को अपना कार्यक्षेत्र बनाया। हजारीबाग से वह कई बार सांसद चुने गये। इस समय उनके बेटे और पूर्व वित्त-राज्यमंत्री जयंत सिन्हा हजारीबाग से भारतीय जनता पार्टी के सांसद हैं। जयंत ने 2014 और 2019 के संसदीय चुनावों में भाजपा के टिकट पर लड़कर चुनाव जीता। सन् 2018 में रामगढ़ के कुख्यात लिंचिंग मामले के दोषियों को फूल-माला देकर लड्डू खिलाते हुए उनकी तस्वीरें मीडिया में छायी रहीं। भाजपा छोड़ने से पहले यशवंत सिन्हा का भी कई बार सांप्रदायिक-तनाव के मामलों में नामोल्लेख हुआ। सन् 2017 के अप्रैल महीने में रामनवमी के दौरान एक प्रतिबंधित रूट पर जुलूस निकालने पर आमादा पूर्व केंद्रीय मंत्री को झारखंड पुलिस ने हजारीबाग में हिरासत में लिया। बड़कागांव के महूदी गांव के पास सांप्रदायिक तनाव फैल गया। यशवंत के साथ स्थानीय विधायक और भाजपा वह बजरंग दल के कई नेता-कार्यकर्ता भी हिरासत में लिये गये थे। 

झारखंड पुलिस ने उस मौके पर संवाददाताओं द्वारा पूछे जाने पर बताया कि पिछले कई दशकों से उक्त रूट पर कभी रामनवमी जुलूस नहीं निकलने दिया गया। सांप्रदायिक माहौल को दुरुस्त रखने के लिए ऐसा किया जाता रहा। इस बार भी उक्त रूट को जुलूस के लिए प्रतिबंधित किया गया। पर यशवंत सिन्हा जैसे वरिष्ठ नेता ने स्थानीय नेताओं और समर्थकों को लेकर यहां जुलूस निकालने की कोशिश की। इसलिए उन सबको हिरासत में लिया गया। वैसे भी उक्त इलाके में धारा 144 लागू थी। प्रशासन के लिए परेशानी पैदा करते हुए सिन्हा अपने समर्थकों के साथ वहीं धरना पर बैठ गये। उनके समर्थकों की तरफ से पत्थरबाजी भी हुई। पुलिस को आंसू गैस के गोले छोड़ने पड़े। उस मामले में सिन्हा को उनके तत्कालीन सहकर्मियों के साथ तब हिरासत में लिया गया।( इंडियन एक्सप्रेस में 5 अप्रैल, 2017 को छपी ‘रामनवमी इन हजारीबाग-बीजेपी लीडर्स लिडिंग प्रोसेसन डिटेन्ड’ शीर्षक रिपोर्ट पर आधारित)। 

यशवंत सिन्हा अगर जनता के सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक मसलों पर किसी आंदोलन या अभियान के दौरान हिरासत में लिये गये होते तो उनकी उक्त गतिविधि पर औचित्य का सवाल उठाना सही नहीं होता। पर वह सांप्रदायिक माहौल बिगाड़ने की एक नितांत निन्दनीय गतिविधि को अंजाम देते हुए हिरासत में लिये गये थे। इसलिए वह घटना उनके राजनीतिक करियर पर काले धब्बे की तरह है। खासतौर पर आज जब स्वयं सिन्हा और उन्हें राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाने वाले राजनीतिक दल उन्हें लिबरल और सेक्युलर राजनीतिज्ञ के रूप में पेश करने की हास्यास्पद कोशिश कर रहे हैं। हजारीबाग के ऐसे अन्य मामलों में भी उनकी संलिप्तता बताई जाती रही। पर वे मामले बडकागांव कांड की तरह चर्चित नहीं हुए। यशवंत सिन्हा की जो छवि बीते कुछ सालों में मीडिया या सोशल मीडिया में उनके समर्थकों, खासकर अन्ना अभियान और आम आदमी पार्टी से पूर्व में जुड़े रहे कुछ सोशल एक्टिविस्ट, वकील और कुछ पत्रकारों ने बनाई, वह अब मोदी-शाह की भाजपा से उनकी निराशा के मौजूदा दौर में काम आ रही है। श्री सिन्हा जिन दिनों केंद्र में वरिष्ठ मंत्री थे, इन पंक्तियों का लेखक देश के एक प्रमुख हिन्दी अखबार के लिए संसद की गतिविधियों को ‘कवर’ करता था। उन दिनों पत्रकारों के बड़े हिस्से में उनकी छवि बेहद एरोगेंट मंत्री की थी। संभवतः निर्वाचित जन प्रतिनिधि और सरकार के वरिष्ठ मंत्री के उनके व्यक्तित्व पर नौकरशाही में बड़े पद पर उनके लंबे कार्यकाल की अतीत-छाया भी मंडराती रहती थी। 

ध्यान देने की बात है कि य़शवंत जी ने भाजपा से सन् 2018 में अपने को अलग किया। सन् 2014 में मोदी-शाह की भाजपा का सत्तारोहण हो चुका था। यही नहीं, जिन दिनों उन्होंने भारतीय जनता पार्टी की सदस्यता ली थी, अयोध्या की बाबरी मस्जिद ध्वस्त की जा चुकी थी। अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी की अगुवाई के दौर में कोई दूसरी भाजपा नहीं थी। उसका मूल विचार और भारत के बारे में दृष्टि वही थी, जो आज मोदी-शाह के दौर में है। फर्क सिर्फ क्रियान्वयन के तरीके और नेताओं के विचारों के प्रकटीकरण के रूप में है। इसके पीछे भी मूल कारण रहा-वाजपेयी-आडवाणी की भाजपा का संसद में अल्पमत में होना या सरकार चलाने के लिए अनेक गैर-भाजपा दलों पर निर्भर होना। इसलिए तब भाजपा ने ‘टैक्टिस’ के तौर पर अपना आज जैसा ‘उग्रतर हिन्दुत्ववादी-कारपोरेटवादी चेहरा’ नहीं दिखाया था। लेकिन तब भी वह एक उग्र हिन्दुत्ववादी और कारपोरेटवादी पार्टी थी। विनिवेश मंत्रालय उसी दौर में बना। कर्मचारियों की पेंशन पर उसी दौर में ‘हमला’ हुआ। आर्थिक सुधारों की लहर में उसी समय अनेक कल्याणकारी योजनाओं को बंद किया गया। कई प्रमुख सरकारी उपक्रमों का निजीकरण/विनिवेशीकरण हुआ।

यशवंत जी उन दिनों उस पार्टी के वरिष्ठ नेता थे और पार्टी या संघ परिवार के हर संगठन की गतिविधियों या फैसलों का आमतौर पर समर्थन करते थे या कुछेक पर खामोश रह जाते थे। हां, ये बात सही है कि आरएसएस उन्हें भी जसवंत सिंह की तरह ‘बाहरी’ ही समझता था।

अप्रैल, 2014 में यशवंत सिन्हा ने भाजपा के प्रधानमंत्री पद के तत्कालीन उम्मीदवार नरेंद्र मोदी का गुजरात दंगों को लेकर जमकर बचाव किया था। उन्होंने इंडिया टुडे ग्रुप के ‘हेडलाइन्स टुडे’ से बातचीत में कहा कि नरेंद्र मोदी को गुजरात दंगे के लिए कत्तई माफी नहीं मांगना चाहिए। बेवजह 12 साल पुराने मामले को उभारा जाता है ताकि मोदी जी को ‘कार्नर’ किया जा सके।(हेडलाइन्स टुडे, इंद्रजीत कुंडू, 16 अप्रैल, 2014)। मजे की बात है कि उस समय तक भाजपा ने यशवंत जी के बेटे जयंत सिन्हा को हजारीबाग से टिकट देने का ऐलान कर दिया था। यशवंत सिन्हा के राजनीतिक अवसरवाद के ऐसे अनेक उदाहरण दिये जा सकते हैं। 

ऐसे यशवंत सिन्हा को भारत की संसदीय राजनीति में अपने को सेक्युलर और लोकतांत्रिक बताने वाला विपक्षी खेमा अगर राष्ट्रपति के लिए अपना संयुक्त उम्मीदवार बनाता है तो इसे सिर्फ दुर्भाग्यपूर्ण कहने से काम नहीं चलेगा। संयुक्त विपक्ष का यह निहायत असंगत, अतार्किक और अ-दूरदर्शी फैसला है। जिन दलों ने एक समय केआर नारायणन जैसे बड़े विद्वान, कूटनीतिज्ञ, शिक्षाविद् और सेक्युलर चिंतक को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाया और जिताया, वे अगर आज यशवंत सिन्हा जी जैसे राजनीतिक अवसरवादी और असंगतियों से भरे महत्वाकांक्षी राजनीतिज्ञ को अपनी तरफ से राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाकर आगे किये हुए हैं तो इसे बड़ी विडम्बना के अलावा और क्या कहा जा सकता है! 

(उर्मिलेश वरिष्ठ पत्रकार और लेखक हैं।) 

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