जन्मदिवस पर विशेष: आज सुभाष चंद्र बोस की किसे जरूरत है?

8 सितंबर 1922 को दिल्ली में इंडिया गेट के निकट स्थित छतरी में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 28 फुट ऊंची नेताजी सभुाष चन्द्र बोस की प्रतिमा का अनावरण किया था, इससे पहले इस छतरी के नीचे सम्राट जार्ज पचंम की मूर्ति लगी थी, जिसे आज़ादी के बाद वहां से हटा दिया गया था। लम्बे समय तक वास्तुकारों तथा बौद्धिक जगत में यह बहस चलती रही कि इस स्थान पर किसकी मूर्ति लगाई जाए।

एक समय में यहां महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू की मुर्तियां लगाने तक की चर्चा भी चली थी। ज्ञातव्य है कि मूर्ति स्थापना के बाद इस जगह और लाल किले में एक बड़ा सांस्कृतिक आयोजन भी हुआ था, जिसे प्रधानमंत्री ने आज़ाद हिन्द फौज की ड्रेस पहनकर संबोधित भी किया था। 8 सितंबर नेताजी सुभाष चन्द्र बोस द्वारा स्थापित आज़ाद हिन्द फौज का स्थापना दिवस भी है। इस अवसर पर विशेष डाक टिकट और सिक्के भी जारी किए गए।

यहां पर महत्वपूर्ण बात यह है कि जिस राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने स्वतंत्रता संग्राम में हिस्सा कभी नहीं लिया तथा जो जवाहरलाल नेहरू जैसे राष्ट्रीय आंदोलन के नायकों को अक्सर अपशब्द कहते हैं, एकाएक उनके अदंर स्वाधीनता संग्राम के बड़े नायक सुभाष चन्द्र बोस के प्रति प्रेम क्यों जाग गया?

इस प्रश्न के उत्तर की तलाश करने के लिए हमें नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के जीवन और स्वाधीनता संग्राम में उनकी भूमिका की पड़ताल करनी होगी। निस्संदेह वे भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के बड़े अग्रणी नेता थे। उनका जन्म 23 जनवरी 1897 को उड़ीसा के कटक शहर में एक समद्ध हिन्दू कायस्थ परिवार में हुआ था, उनके पिता शहर के बड़े वकील थे।

सुभाष चन्द्र बोस बचपन से कुशाग्र बुद्धि के थे। 15 वर्ष की आयु में ही उन्होंने विवेकानन्द का सम्पूर्ण साहित्य पढ़ लिया था। ऐसा भी कहा जाता है कि वे सन्यासी बनना चाहते थे, इसलिए बचपन में कई बार घर से भाग कर हिमालय गए, इससे यह सिद्ध होता है कि उन पर भारतीय आध्यात्मिकता का गहरा प्रभाव था। 1919 में उन्होंने बीए ऑनर्स की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की और कोलकाता विश्व विद्यालय में उनका दूसरा स्थान था।

पिता की इच्छा थी कि सुभाष आईसीएस बनें किन्तु उनकी आयु को देखते हुए केवल एक ही बार में यह परीक्षा पास करनी थी। उन्होंने पिता से चौबीस घण्टे का समय यह सोचने के लिये मांगा ताकि वे परीक्षा देने या न देने पर कोई अन्तिम निर्णय ले सकें। सारी रात इसी असमंजस में वह जागते रहे कि क्या किया जाये। आखिर उन्होंने परीक्षा देने का फैसला किया और 15 सितम्बर 1919 को इंग्लैंड चले गये।

परीक्षा की तैयारी के लिये लन्दन के किसी स्कूल में दाखिला न मिलने पर सुभाष को किसी तरह किट्स विलियम हाल में मानसिक एवं नैतिक विज्ञान की ट्राइपास (ऑनर्स) की परीक्षा का अध्ययन करने हेतु प्रवेश मिल गया। इससे उनके रहने व खाने की समस्या हल हो गयी। हाल में एडमीशन लेना तो बहाना था असली मकसद तो आईसीएस में पास होकर दिखाना था।

सो उन्होंने 1920 में वरीयता सूची में चौथा स्थान प्राप्त करते हुए पास कर ली। इसके बाद सुभाष ने अपने बड़े भाई शरतचन्द्र बोस को पत्र [11] लिखकर उनकी राय जाननी चाही कि उनके दिलो-दिमाग पर तो महर्षि दयानंद सरस्वती और महर्षि अरविन्द घोष के आदर्शों ने कब्जा कर रखा है ऐसे में आईसीएस बनकर वह अग्रेंजों की गुलामी कैसे कर पाएंगे?

22 अप्रैल 1921 को भारत के सचिव ई०एस० मान्टेग्यू को आईसीएस से त्यागपत्र देने का पत्र लिखा। एक पत्र देशबंधु चितरंजन दास को लिखा। किन्तु अपनी मां प्रभावती का यह पत्र मिलते ही कि “पिता, परिवार के लोग या अन्य कोई कुछ भी कहे उन्हें अपने बेटे के इस फैसले पर गर्व है।” सुभाष जून 1921 में मानसिक एवं नैतिक विज्ञान में ट्राइपास (ऑनर्स) की डिग्री के साथ स्वदेश वापस लौट आए।

इसके बाद की उनके राजनीतिक जीवन की यात्रा बहुत ही प्रभावशाली और आकर्षक है। पहले वे कांग्रेस में रहे, बाद में उन्होंने फारवर्ड ब्लॉक नामक अपना एक अलग राजनीतिक दल बनाया। अपनी राजनीतिक गतिविधियों के कारण वे जब घर में नज़रबंद थे, तब 16 जनवरी 1941 में वे पुलिस को चकमा देकर निकल गए तथा पठान का वेश धरकर पेशावर होते हुए काबुल पहुंचे, वहां से रूस में मास्को से होते हुए जर्मनी की राजधानी बर्लिन पहुंच गए।

बर्लिन में वे अनेक नेताओं के साथ-साथ वहां के सर्वोच्च नेता हिटलर से मिले। जर्मनी में उन्होंने ‘भारतीय स्वतंत्रता सगंठन’ और ‘आज़ाद हिन्द रेडियो’ की स्थापना की। उस समय द्वितीय महायुद्ध की शुरुआत हो चुकी थी। जर्मनी के नेता हिटलर, इटली के मुसोलिनी तथा जापान के तोजो का एक सैन्य गठबंधन था, दूसरी ओर इंग्लैंड, रूस तथा अन्य राष्ट्रों का संगठन था, जिन्हें ‘मित्र राष्ट्रों का संगठन’ कहा गया तथा हिटलर के नेतेत्व वाले सगंठनों को ‘धुरी राष्ट्र सगंठन’ कहा गया।

नेताजी सुभाष चन्द्र बोस इन्हीं धुरी राष्ट्रों के संगठन को साथ लेकर भारत को आज़ाद कराना चाहते थे, क्योंकि ये राष्ट्र अंग्रेजों के ख़िलाफ़ युद्ध लड़ रहे थे। इसके बाद सर्वविदित है, कि किस तरह उन्होंने जापान में आज़ाद हिन्द फौज का गठन किया तथा जापानी फ़ौजों के साथ वे कोहिमा तथा मणिपुर तक पहुंच गए थे, परन्तु द्वितीय महायुद्ध में जापान और धुरी राष्ट्रों की भारी पराजय हुई, तब नेताजी ने नया रास्ता ढूंढना ज़रूरी समझा तथा रूस से सहायता मांगने का निश्चय किया।

18 अगस्त 1945 को वे हवाई जहाज से मंचूरिया की ओर जा रहे थे। ऐसा माना जाता है कि उसी दिन ताइवान के पास उनका विमान दुर्घटनाग्रस्त हो गया तथा उनकी मौत भी हो गई। भारतीय राष्ट्रीय अभिलेखागार से प्राप्त दस्तावेज़ के अनुसार नेता जी की मृत्यु 18 अगस्त 1945 को ताइहोकू के सैनिक अस्पताल में रात्रि 9 बजे हो गई।

निश्चित रूप से विदेश में जाकर एक सेना का गठन करके अपने देश को आज़ाद कराने का यह उपक्रम विश्व इतिहास में अनूठा और बिलकुल अकेला है, जिसका भारतीय स्वाधीनता आंदोलन पर बाद में भी गहरा प्रभाव पड़ा, परन्तु कुछ प्रश्न ऐसे हैं, जिस पर हमें इस प्रतिभा की चकाचौंध से अलग रहकर विचार करना चाहिए।

नेताजी का भारत को आज़ाद कराने के लिए हिटलर, मुसोलिनी या टोजो जैसे फासीवादी और नाजीवादी शासकों से सहायता लेना क्या एक रणनीतिक भूल नहीं थी या फ़िर उस हिटलर से सहायता लेना, जिसके हाथ ख़ुद ही लाखों यहूदियों के ख़ून से रंगे थे? क्या टोजो, मुसोलिनी और हिटलर दुनिया भर में एक भयानक नस्लवादी शासन की स्थापना नहीं करना चाहते थे? क्या इसका आभास नेताजी को नहीं था?

दूसरा प्रश्न यह है कि नेताजी बार-बार भारतीय पुरातन संस्कृति और सभ्यता की प्रशंसा अपने लेखों और भाषणों में करते थे तथा वे अरविन्द घोष, स्वामी दयानन्द सरस्वती और विवेकानन्द के विचारों से गहराई से प्रभावित थे तथा उन्हीं के आदर्शों के अनुसार देश भी बनाना चाहते थे। सैन्यवाद और हिन्दू कट्टर धार्मिक आध्यात्मिकता संघ परिवार की विचारधारा से काफ़ी हद तक मिलती-जलुती है, इन्हीं कारणों से जवाहरलाल नेहरू के मुकाबले संघ परिवार को आज नेताजी सुभाष चन्द्र बोस लुभा रहे हैं।

भगत सिंह ने नेताजी सुभाष चन्द्र बोस और जवाहरलाल नेहरू की तुलना करते हुए पंजाबी पत्रिका ‘किरती’ में एक लेख लिखा है, जिससे हमें यह बात और भली प्रकार से समझ में आती है। जुलाई 1928 में प्रकाशित लेख ‘नये नेताओं के अलग-अलग विचार’ में इन दोनों नेताओं की एक तुलनात्मक समीक्षा की है:-

“इस समय जो नेता आगे आए हैं वे हैं- बंगाल के पूज्यनीय श्री सुभाष चन्द्र बोस और माननीय पण्डित श्री जवाहरलाल नेहरू। यही दो नेता हिन्दस्तान में उभरते नजर आ रहे हैं और युवाओं के आन्दोलनों में विशषे रूप से भाग ले रहे हैं। दोनों ही हिन्दुस्तान की आजादी के कट्टर समर्थक हैं। दोनों ही समझदार और सच्चे देशभक्त हैं। लेकिन फिर भी इनके विचारों में जमीन-आसमान का अन्तर है।

एक को भारत की प्राचीन संस्कृति का उपासक कहा जाता है तो दूसरे को पक्का पश्चिम का शिष्य। एक को कोमल हृदय वाला भावुक कहा जाता है और दूसरे को पक्का युगान्तरकारी। हम इस लेख में उनके अलग-अलग विचारों को जनता के समक्ष रखेंगे, ताकि जनता स्वयं उनके अन्तर को समझ सके और स्वयं भी विचार कर सके।

लेकिन उन दोनों के विचारों का उल्लेख करने से पूर्व एक और व्यक्ति का उल्लेख करना भी जरूरी है जो इन्हीं स्वतन्त्रता के प्रेमी हैं और युवा आन्दोलनों की एक विशेष शख्सियत हैं। साधू वासवानी, चाहे कांग्रेस के बड़े नेताओं की भांति जाने माने तो नहीं, चाहे देश के राजनीतिक क्षेत्र में उनका कोई विशेष स्थान तो नहीं, तो भी युवाओं पर, जिन्हें कि कल देश की बागडोर संभालनी है, उनका असर है और उनके ही द्वारा शुरू हुआ आन्दोलन ‘भारत युवा संघ’ इस समय युवाओं में विशेष प्रभाव रखता है।

उनके विचार बिल्कुल अलग ढंग के हैं। उनके विचार एक ही शब्द में बताए जा सकते हैं- “वापस वेदों की ओर लौट चलो।” (बैक टू वेदस)। यह आवाज सबसे पहले आर्य समाज ने उठाई थी। इस विचार का आधार इस आस्था में है कि वेदों में परमात्मा ने संसार का सारा ज्ञान उड़ेल दिया है। इससे आगे और अधिक विकास नहीं हो सकता। इसलिए हमारे हिन्दुस्तान ने चौतरफा जो प्रगति कर ली थी उससे आगे न दुनिया बढ़ी है और न बढ़ सकती है। ख़रै… वासवानी आदि इसी अवस्था को मानते हैं। तभी एक जगह कहते हैं—

● “हमारी राजनीति ने अब तक कभी तो मैजिनी और वाल्टेयर को अपना आदर्श मानकर उदाहरण स्थापित किए हैं और या कभी लेनिन और टॉल्स्टाय से सबक सीखा। हालांकि उन्हें ज्ञात होना चाहिए कि उनके पास उनसे कहीं बड़े आदर्श हमारे पुराने ॠषि हैं।” वे इस बात पर यकीन करते हैं कि हमारा देश एक बार तो विकास की अन्तिम सीमा तक जा चुका था और आज हमें आगे कहीं भी जाने की आवश्यकता नहीं, बल्कि पीछे लौटने की जरूरत है।”

● आप एक कवि हैं। कवित्व आपके विचारों में सभी जगह नजर आता है। साथ ही यह धर्म के बहुत बड़े उपासक हैं। यह ‘शक्ति’ धर्म चलाना चाहते हैं। यह कहते हैं, “इस समय हमें शक्ति की अत्यन्त आवश्यकता है।”

वह ‘शक्ति’ शब्द का अर्थ केवल भारत के लिए इस्तेमाल नहीं करते। लेकिन उनको इस शब्द से एक प्रकार की देवी का, एक विशेष ईश्वरीय प्राप्ति का विश्वास है। वे एक बहुत भावुक कवि की तरह कहते हैं-

● एकान्त में भारत की आवाज मैंने सुनी है। मेरे दुखी मन ने कई बार यह आवाज सुनी है कि ‘आजादी का दिन दूर नहीं’… कभी कभी बहुत अजीब विचार कमेरे मन में आते हैं और मैं कह उठता हूं- हमारा हिन्दुस्तान पाक और पवित्र है, क्योंकि पुराने ॠषि उसकी रक्षा कर रहे हैं और उनकी खूबसूरती हिन्दुस्तान के पास है। लेकिन हम उन्हें देख नहीं सकते।

● हमारी माता बड़ी महान है। बहुत शक्तिशाली है। उसे परास्त करने वाला कौन पैदा हुआ है।” इस तरह वे केवल मात्र भावुकता की बातें करते हुए कह जाते हैं। हमें अपने राष्ट्रीय जन आन्दोलन को देश सुधार का आन्दोलन बना देना चाहिए। तभी हम वर्ग युद्ध के बोल्शविेविज्म के खतरों से बच सकेंगे। वह इतना कहकर ही कि गरीबों के पास जाओ, गांवों की ओर जाओ, उनको दवा-दारू मुफ्त दो— समझते हैं कि हमारा कार्यक्रम पूरा हो गया।

वे छायावादी कवि हैं। उनकी कविता का कोई विशेष अर्थ तो नहीं निकल सकता, मात्र दिल का उत्साह बढ़ाया जा सकता है। बस पुरातन सभ्यता के शोर के अलावा उनके पास कोई कार्यक्रम नहीं। युवाओं के दिमागों को वे कुछ नया नहीं देते। केवल दिल को भावकुता से ही भरना चाहते हैं। उनका युवाओं में बहुत असर है। और भी पैदा हो रहा है।

उनके दकियानूसी और संक्षिप्त- से विचार यही हैं जो कि हमने ऊपर बताए हैं। उनके विचारों का राजनीतिक क्षेत्र में सीधा असर न होने के बावजदू बहुत असर पड़ता है। विशेषकर इस कारण कि नौजवानों, युवाओं को ही कल आगे बढ़ना है और उन्हीं के बीच इन विचारों का प्रचार किया जा रहा है।

अब हम श्री सुभाष चन्द्र बोस और श्री जवाहरलाल नेहरू के विचारों पर आ रहे हैं। दो-तीन महीनों से आप बहुत-सी कान्फ्रेंसों के अध्यक्ष बनाए गए और आपने अपने-अपने विचार लोगों के सामने रखे। सुभाष बाबू को सरकार तख्तापलट गिरोह का सदस्य समझती है और इसीलिए उन्हें बंगाल अध्यादेश के अन्तर्गत कैद कर रखा था। आप रिहा हुए और गर्म दल के नेता बनाए गए। आप भारत का आदर्श पूर्ण स्वराज्य मानते हैं, और महाराष्ट्र कान्फ्रेंस में अध्यक्षीय भाषण में अपने इसी प्रस्ताव का प्रचार किया।

पण्डित जवाहरलाल नेहरू स्वराज पार्टी के नेता मोतीलाल नेहरू ही के सुपुत्र हैं। बैरिस्टरी पास हैं। आप बहुत विद्वान हैं। आप रूस आदि का दौरा कर आए हैं। आप भी गर्म दल के नेता हैं और मद्रास कान्फ्रेंस में आपके और आपके साथियों के प्रयासों से ही पूर्ण स्वराज का प्रस्ताव स्वीकृत हो सका था। आपने अमृतसर कान्फ्रेंस के भाषण में भी इसी बात पर जोर दिया।

लेकिन फिर भी इन दोनों सज्जनों के विचारों में जमीन-आसमान का अन्तर है। अमृतसर और महाराष्ट्र कान्फ्रेंसों के इन दोनों अध्यक्षों के भाषण पढ़कर ही हमें इनके विचारों का अन्तर स्पष्ट हुआ था। लेकिन बाद में बम्बई के एक भाषण में यह बात स्पष्ट रूप से हमारे सामने आ गई। पण्डित जवाहरलाल नेहरू इस जनसभा की अध्यक्षता कर रहे थे और सुभाष चन्द्र बोस ने भाषण दिया। वह एक बहुत भावुक बंगाली हैं।

उन्होंने भाषण आरंभ किया कि हिन्दुस्तान का दुनिया के नाम एक विशेष सन्देश है। वह दुनिया को आध्यात्मिक शिक्षा देगा। खैर, आगे वे दीवाने की तरह कहना आरम्भ कर देते हैं— चांदनी रात में ताजमहल को देखो और जिस दिल की यह सूझ का परिणाम था, उसकी महानता की कल्पना करो। सोचो एक बंगाली उपन्यासकार ने लिखा है कि हममें यह हमारे आंसू ही जमकर पत्थर बन गए हैं।

वह भी वापस वेदों की ओर ही लौट चलने का आह्वान करते हैं। आपने अपने पूना वाले भाषण में ‘राष्ट्रवादिता’ के सम्बन्ध में कहा है कि अन्तर्राष्ट्रीयतावादी, राष्ट्रीयतावाद को एक संकीर्ण दायरे वाली विचारधारा बताते हैं, लेकिन यह भूल है। हिन्दुस्तानी राष्ट्रीयता का विचार ऐसा नहीं है। वह न संकीर्ण है, न निजी स्वार्थ से प्रेरित है और न उत्पीड़नकारी है, क्योंकि इसकी जड़ या मलू तो ‘सत्यम् शिवम् सुंदरम् है, अर्थात सच, कल्याणकारी और सुंदर।’

यह भी वही छायावाद है। कोरी भावुकता है। साथ ही उन्हें भी अपने पुरातन युग पर बहुत विश्वास है। वह प्रत्येक बात में अपने पुरातन युग की महानता देखते हैं। पंचायती राज का ढंग उनके विचार में कोई नया नहीं। ‘पंचायती राज और जनता का राज’, वे कहते हैं कि हिन्दुस्तान में बहुत पुराना है।

वे तो यहां तक कहते हैं कि साम्यवाद भी हिन्दुस्तान के लिए नई चीज नहीं है। खैर, उन्होंने सबसे ज्यादा उस दिन के भाषण में जोर किस बात पर दिया था कि हिन्दुस्तान का दुनिया के लिए एक विशेष सन्देश है। पण्डित जवाहरलाल आदि के विचार इसके बिल्कुल विपरीत हैं। वे कहते हैं—

● “जिस देश में जाओ वही समझता है कि उसका दुनिया के लिए एक विशेष सन्देश है। इंग्लैंड दुनिया को संस्कृति सिखाने का ठेकेदार बनता है। मैं तो कोई विशेष बात अपने देश के पास नहीं देखता। सुभाष बाबू को उन बातों पर बहुत यकीन है।” जवाहरलाल कहते हैं—

● “प्रत्येक नौजवान को विद्रोह करना चाहिए। राजनीतिक क्षेत्र में ही नहीं बल्कि सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक क्षेत्र में भी। मुझे ऐसे व्यक्ति की कोई आवश्यकता नहीं जो आकर कहे कि फलां बात कुरान में लिखी हुई है। कोई बात जो अपनी समझदारी की परख में सही साबित न हो उसे चाहे वेद और कुरान में कितना ही अच्छा क्यों न कहा गया हो, नहीं मानना चाहिए।”

यह एक युगान्तरकारी के विचार हैं और सुभाष के एक राज-परिवर्तनकारी के विचार हैं। एक के विचार में हमारी पुरानी चीजें बहुत अच्छी हैं और दूसरे के विचार में उनके विरुद्ध विद्रोह कर दिया जाना चाहिए। एक को भावुक कहा जाता है और एक को युगान्तरकारी और विद्रोही। पण्डित जी एक स्थान पर कहते हैं—

● “जो अब भी कुरान के जमाने के अर्थात् 1300 बरस पीछे के अरब की स्थितियां पैदा करना चाहते हैं, जो पीछे वेदों के जमाने की ओर देख रहे हैं उनसे मेरा यह कहना है कि यह तो सोचा भी नहीं जा सकता कि वह युग वापस लौट आएगा, वास्तविक दुनिया पीछे नहीं लौट सकती, काल्पनिक दुनिया को चाहे कुछ दिन यहीं स्थिर रखो। और इसीलिए वे विद्रोह की आवश्यकता महससू करते हैं।”

सुभाष बाबू पूर्ण स्वराज के समर्थन में हैं क्योंकि वे कहते हैं कि अंग्रेज पश्चिम के वासी हैं। हम पूर्व के। पण्डित जी कहते हैं, हमें अपना राज कायम करके सारी सामाजिक व्यवस्था बदलनी चाहिए। उसके लिए पूरी-पूरी स्वतन्त्रता प्राप्त करने की आवश्यकता है। सुभाष बाबू मजदूरों से सहानुभूति रखते हैं और उनकी स्थिति सुधारना चाहते हैं।

पण्डित जी एक क्रांति करके सारी व्यवस्था ही बदल देना चाहते हैं। सुभाष भावुक हैं- दिल के लिए। नौजवानों को बहुत कुछ दे रहे हैं, पर मात्र दिल के लिए। दूसरा युगान्तरकारी है जो कि दिल के साथ-साथ दिमाग को भी बहुत कुछ दे रहा है।

● “हमारा समाजवादी सिद्धान्तों के अनुसार पूर्ण स्वराज होना चाहिए, जो कि युगान्तरकारी तरीकों के बिना प्राप्त नहीं हो सकता। केवल सुधार और मौजूदा सरकार की मशीनरी की धीमी-धीमी की गई मरम्मत जनता के लिए वास्तविक स्वराज्य नहीं ला सकती।”

यह उनके विचारों का ठीक-ठाक अक्स है। सुभाष बाबू राष्ट्रीय राजनीति की ओर उतने समय तक ही ध्यान देना आवश्यक समझते हैं जितने समय तक दुनिया की राजनीति में हिन्दुस्तान की रक्षा और विकास का सवाल है। परन्तु पण्डित जी राष्ट्रीयता के संकीर्ण दायरों से निकलकर खुले मैदान में आ गए हैं।

अब सवाल यह है कि हमारे सामने दोनों विचार आ गए हैं। हमें किस ओर झुुकना चाहिए। एक पंजाबी समाचार पत्र ने सुभाष की तारीफ के पुल बांधकर पण्डित जी आदि के बारे में कहा था कि ऐसे विद्रोही पत्थरों से सिर मार-मारकर मर जाते हैं। ध्यान रखना चाहिए कि पंजाब पहले ही बहुत भावुक प्रान्त है। लोग जल्द ही जोश में आ जाते हैं और जल्द ही झाग की तरह बैठ जाते हैं।

सुभाष आज शायद दिल को कुछ भोजन देने के अलावा कोई दूसरी मानसिक खुराक नहीं दे रहे हैं। अब आवश्यकता इस बात की है कि पंजाब के नौजवानों को इन युगान्तरकारी विचारों को खबू सोच-विचार कर पक्का कर लेना चाहिए। इस समय पंजाब को मानसिक भोजन की सख्त जरूरत है और यह पण्डित जवाहरलाल नेहरू से ही मिल सकता है।

इसका अर्थ यह नहीं है कि उनके अन्धे पैरोकार बन जाना चाहिए, लेकिन जहां तक विचारों का सम्बन्ध है, वहां तक इस समय पंजाबी नौजवानों को उनके साथ लगना चाहिए, ताकि वे इन्कलाब के वास्तविक अर्थ, हिन्दुस्तान के इन्कलाब की आवश्यकता, दुनिया में इन्कलाब का स्थान क्या है?- आदि के बारे में जान सकें। सोच-विचार के साथ नौजवान अपने विचारों को स्थिर करें ताकि निराशा, मायूसी और पराजय के समय में भी भटकाव के शिकार न हों और अकेले खड़े होकर दुनिया से मुकाबले में डटे रह सकें। इसी तरह जनता इन्कलाब के ध्येय को पूरा कर सकती है।

(स्वदेश कुमार सिन्हा स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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