बिहार महागठबंधन की सबसे कमजोर कड़ी कांग्रेस क्यों?

बिहार विधानसभा की कुल 243 में 70 सीटों पर कांग्रेस ने उम्मीदवार दिये हैं। ये 70 सीटें उसे राजद-कांग्रेस-वाम महागठबंधन के तहत मिली हैं। राष्ट्रीय जनता दल का नेतृत्व कांग्रेस को 40 से अधिक सीट देने का इच्छुक नहीं था लेकिन प्रदेश कांग्रेस के कुछ खास नेताओं की अव्यावहारिक जिद और पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व के हस्तक्षेप के बाद राजद को कांग्रेस के लिए 70 सीटें छोड़ने पर राजी होना पड़ा। चुनावी-जंग में महागठबंधन इस वक्त अच्छी स्थिति में दिखाई दे रहा है पर कांग्रेस की कम से कम 35-40 सीटें महागठबंधन में सबसे कमजोर नजर आ रही हैं। इसका सीधा फायदा भाजपा या उसके प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष सहयोगी दलों को हो सकता है। 

सत्ताधारी एनडीए इन सीटों को अपने लिए आसान मान रहा है। कांग्रेस की इन 35-40 सीटों के अलावा कुछ इलाकों में राजद के उम्मीदवार भी कमजोर या बेहद विवादास्पद हैं। ऐसे उम्मीदवारों की संख्या कम से कम 10 से 15 के बीच है जो महागठबंधन की बढ़ती ताकत के बावजूद अपने-अपने क्षेत्र में चुनौती का सामना कर रहे हैं। इनमें कुछ की खराब छवि है तो कुछ बस चुनाव लड़ रहे हैं, वो किसी के भाई-बहन-बीवी या बेटी हैं। उनकी अपनी कोई राजनीतिक छवि नहीं है। जनता के बीच उन्होंने कभी काम भी नहीं किया है। वामपंथी दलों के 3-4 उम्मीदवार भी अपने-अपने क्षेत्र में गंभीर चुनौती का सामना कर रहे हैं। उनकी स्थिति उतनी मजबूत नहीं मानी जा रही है। इस तरह महागठबंधन कुल मिलाकर 50-55 सीटों पर अपेक्षाकृत कमजोर स्थिति में है, इसमें सबसे बड़ा हिस्सा कांग्रेस की सीटों का है। 

बिहार की 59 सीटों पर भारतीय जनता पार्टी का मुकाबला कांग्रेस और वामपंथी दलों के उम्मीदवारों से है। इसमें ज्यादातर सीटों पर कांग्रेस उम्मीदवारों का मुकाबला सीधे भाजपा से है। 51 सीटों पर राजद और भाजपा के प्रत्याशी आमने-सामने हैं। महागठबंधन के लिए वामपंथी कार्यकर्ता और नेता जी-जान से जुटे हुए हैं। शाहपुर जैसे निर्वाचन क्षेत्र में जहां राष्ट्रीय़ जनता दल का प्रत्याशी एनडीए प्रत्याशी को चुनौती दे रहा है, स्थानीय वामपंथी कार्यकर्ताओं के समूह राजद के लिए काम कर रहे हैं। इसी तरह राजद के कार्यकर्ता भी कई क्षेत्रों में वामपंथी प्रत्याशियों के लिए जुटे हुए हैं। इस चुनाव में दोनों खेमों के बीच अच्छा तालमेल दिख रहा है, जबकि गठबंधन का ऐलान काफी देर से हुआ। सांगठनिक समन्वय आदि के लिए ज्यादा वक्त नहीं मिला। 

डुमरांव, पालीगंज, आरा, अगिआंव, अरवल, तरारी, काराकाट, घोषी, जीरादेई और भोरे जैसे चुनाव क्षेत्रों में भाकपा (माले) प्रत्याशी के लिए राजद कार्यकर्ता लगातार जुटे हुए बताये जा रहे हैं। कई क्षेत्रों में महागठबंधन के नेता तेजस्वी यादव भी भाकपा (माले) प्रत्याशियों के पक्ष मे बड़ी-बड़ी रैलियां कर चुके हैं। कुछ क्षेत्रों में कांग्रेस प्रत्याशियों के लिए भी राजद के नेता-कार्यकर्ता लगे हैं। लेकिन उत्तर बिहार और पश्चिम बिहार के कुछ इलाकों में राजद प्रत्याशियों के लिए काम करते कांग्रेस के स्थानीय कार्यकर्ता कम दिखाई देते हैं। उसकी वजह किसी तरह की धोखेबाजी नहीं है।

बताया जाता है कि ऐसे अनेक क्षेत्रों में कांग्रेस के पास संगठन, नेता और कार्यकर्ता ही नहीं बचे हैं। थोड़े बहुत समर्थक हो सकते हैं पर वे राजनीतिक प्रचार अभियान में सीधे शामिल होने से बच रहे हैं। कांग्रेस के नेताओं या कार्यकर्ताओं को राजद या वामपंथी प्रत्याशियों के क्षेत्र में शायद ही कहीं चुनाव प्रचार करते देखा जा रहा है। कांग्रेस की स्थिति सीमांचल की कुछ सीटों पर बेहतर दिख रही है। इसमें कदवा जैसी कुछ सीटों पर उसके उम्मीदवारों ने पिछले चुनाव में भी कामयाबी पाई थी। 

स्वयं कांग्रेस के भी कुछ प्रमुख नेता मानते हैं कि 25-30 सीटों पर कांग्रेस बेवजह लड़ रही है। ये सीटें कांग्रेस के न तो अनुकूल हैं और न ही वहां कांग्रेस के किसी गंभीर उम्मीदवार ने चुनाव लड़ने का दावा किया था। पर उस तरह की 25-30 सीटें महागठबंधन में कांग्रेस के हिस्से में आ गईं और तब जाकर उम्मीदवारों की तलाश शुरू की गई। कांग्रेस के तीन प्रमुख प्रांतीय नेताओं ने अपने मन-मुताबिक लोगों को प्रत्याशी बनाया और किसी तरह चुनावी लड़ाई मे उतरने की खानापूरी कर ली। पर ये उम्मीदवारियां बस दिखाने भर को हैं। इन क्षेत्रों में कांग्रेस की कोई तैयारी नहीं नजर आ रही है।

उम्मीदवार भी गैर-गंभीर और अ-राजनीतिक किस्म के हैं। लेकिन उत्तर बिहार के कुछ ऐसे भी क्षेत्र हैं, जहां कांग्रेस के कमजोर समझे जाने वाले प्रत्याशी भी धीरे-धीरे अच्छी स्थिति में आते नजर आ रहे हैं। इसकी वजह है-किसानों और युवाओं की भाजपा-जद (यू) से गहरी नाराजगी। चम्पारण के दोनों जिलों में ऐसे कई क्षेत्र हैं, जहां कांग्रेस की स्थिति सांगठनिक स्तर पर सुदृढ़ नहीं थी पर उसके कई प्रत्याशी अब अच्छी स्थिति में आ गये हैं। महागठबंधन को मिल रहे समर्थन के चलते ऐसा हुआ है। इसमें रोजगार के सवाल ने ज्यादा असर डाला है। 

बिहार के कुछ राजनीतिक प्रेक्षकों का मानना है कि चुनाव निष्पक्ष हुआ तो जनादेश स्पष्ट होगा। किसी न किसी गठबंधन को बहुमत मिलेगा। लेकिन किन्हीं कारणों से ऐसा नहीं हुआ और त्रिशंकु सदन की तस्वीर सामने आई तो भारतीय जनता पार्टी अपने हाल के ‘कुछ प्रयोगों’ को बिहार में आजमाने से बाज नहीं आयेगी। मध्य प्रदेश में दल-बदल का प्रयोग सामने है। बिहार में अगर किसी को बहुमत नहीं मिला तो माना जा रहा है कि महागठबंधन में राष्ट्रीय जनता दल और वामपंथी दल के सदस्यों को तोड़ना लगभग नामुमकिन होगा। महागठबंधन के तीसरे दल-कांग्रेस के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता है। कुछेक सदस्यों के कांग्रेस छोड़कर भाजपा में जाने की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता।

मध्य प्रदेश में तो अभी कल ही एक कांग्रेस विधायक ने पाला बदला, जबकि पाला-बदलने वालों के चलते ही इन दिनों प्रदेश में कई विधानसभा सीटों के लिए उपचुनाव हो रहे हैं। कांग्रेस के कुछ समझदार और प्रतिबद्ध नेता इस स्थिति से वाकिफ हैं। इसीलिए वे अपने तपे-तपाये नेताओं और कार्यकर्ताओं को ही उम्मीदवार बनाने के पक्ष में थे। 70 सीटों पर उम्मीदवार देने के भी वे पक्ष में नहीं थे ताकि खानापूरी वाले प्रत्याशियों से बचा जा सके। लेकिन प्रदेश कांग्रेस के कुछ प्रभावशाली नेताओं और केंद्रीय संगठन के प्रतिनिधियों ने संख्या बढ़ाने के नाम पर उम्मीदवारी के लिए ज्यादा सीटें हासिल कर लीं। देखना दिलचस्प होगा कि इन चुनावों में कांग्रेस का कैसा प्रदर्शन रहता है और उसके नेता किस तरह पार्टी के भावी विधायकों को एकजुट रखते हैं! 

(वरिष्ठ पत्रकार उर्मिलेश राज्यसभा टीवी के संस्थापक एग्जीक्यूटिव एडिटर रहे हैं।)

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