‘आप’ के राज में भी किसान आत्महत्या क्यों कर रहे हैं?

पंजाब में आम आदमी पार्टी का राज आ जाने से जिन्हें यह भ्रम था कि चमत्कार हो जायेगा उनके दिल से जुड़ी उम्मीद की नाज़ुक रगें टूटने लगी हैं और क़र्ज़ में डूबे किसानों की आत्महत्याओं का दम भर को ठहरा हुआ सिलसिला एक बार फिर शुरू हो गया है। भारतीय किसान यूनियन उग्राहां ने दावा किया है कि राज्य में पिछले एक पखवाड़े में 14 किसानों ने आत्महत्या की है। दिल्ली की सरहद पर एक साल चले किसान आन्दोलन में हुई जीत के बाद यह सवाल उठा था कि तीनों कृषि कानून वापस ले लिए जाने से या सत्ता परिवर्तन हो जाने से क्या किसानों की आत्महत्या का मसला सुलझ जायेगा? यह सवाल भी उन्हीं लोगों के द्वारा उठाया जाता है जिन्होंने इस मसले की जड़ों तक पहुँचने की कभी कोशिश ही नहीं की।  

जड़ों तक जाने की कोशिश करें तो सुनने में तो यही आता है कि जमीनों के असामान्य वितरण को नियंत्रित करने के लिए लैंड सीलिंग एक्ट लागू किया गया था। पर उसमें से भी बड़े जमींदारों ने सत्ता से साठ-गांठ करके अपने चोर-दरवाज़े निकाल लिए थे। आज भी किसान नेता कई बड़े नेताओं के पास 20-20 हजार एकड़ ज़मीन होने का दावा करते हैं। बड़े लोगों के हितों को ध्यान में रखते हुए इस कानून में भी समय-समय पर पंजाब, हरियाणा, गुजरात, मध्य प्रदेश, राजस्थान समेत तकरीबन सभी राज्यों ने समय-समय पर इसमें बदलाव किया है। जिसकी वजह से किसानों के हाथ से ज़मीन निकलती चली गयी है और ‘लवली’ हलवाइयों ने 600-600 एकड़ ज़मीन में नेताओं से साठ-गाँठ करके ‘लवली’ विश्वविद्यालय खोल लिए हैं। इन विश्वविद्यालयों में भूमिपुत्र सफाई-कर्मचारी बन कर रह गए हैं।

कांग्रेस सरकार ने 2017 में सत्ता में आते ही लैंड सीलिंग एक्ट से ‘पर्सन’ की परिभाषा से कंपनी को निकाल दिया था। लैंड सीलिंग एक्ट में पर्सन की परिभाषा में व्यक्ति और कंपनी एक ही श्रेणी में था। यानी दोनों के लिए एक ही कानून लागू था, लेकिन राज्य में उद्योगों को लाने की नीतियों के चलते लैंड सीलिंग एक्ट में बदलाव किया गया, जिससे उद्योगपतियों को फायदा हुआ। 2021 के बाद औद्योगिक घराने जितनी भी चाहे ज़मीन रख सकते हैं जबकि एक व्यक्ति के पास 16 एकड़ से ज्यादा ज़मीन नहीं रह सकती।

अगर हम हरित क्रांति की ही बात करें तो हरित क्रांति से पहले का दृश्य याद करें। हरित क्रांति से पहले जो भी खेत में जाता था वह गांव से जाता था। खेती के औज़ार गाँव के पारम्परिक मिस्त्री तैयार करते थे। खेतों के लिए साझी जैविक-खाद गाँव से जाती थी। जुताई के लिए हल-बैलों का इस्तेमाल सब मिल जुल कर कर लेते थे। कटाई, बुवाई, बिनाई के लिए खेतिहर मजदूर गाँव के ही होते थे। खेत में जो भी किसान पैदा करते थे, वह सारा कुछ गांव में आता था, गांव उसका प्रसंस्करण करता था। पिंजाई-कताई, बुनाई-कढ़ाई सब गाँव में होती थी। सब जात-बिरादरी के लोग से एक दूसरे से जुड़े हुए थे। सारा गांव उसमें शामिल होता था। खेती सिर्फ किसान का काम नहीं था, बल्कि समूचे गांव का काम था। पर हरित क्रांति ने क्या किया?

हरित क्रांति जो तकनीक लेकर आई वह सिर्फ किसान के लिए थी। कृषि में बाकी जो कुछ सारा गांव मिलजुल कर करता था वह सब कुछ मंडी और शहर को सौंप दिया गया। जिससे गाँव की जो बुनियादी संरचना थी, वह विखंडित हुई। जो रिश्ता खेत और गांव का था वह खेत और मंडी/शहर का बना दिया गया और गांव को इस पूरे दृश्य में से बाहर कर दिया गया। शहर और मंडी ने किसान को जिन बैंकों के जरिये नियंत्रित किया था, उनने किसान को पूरी तरह से उस अकेलेपन की ओर धकेल दिया है जो उसे आत्महत्या की ओर लेकर जाता है।

आम आदमी पार्टी एक बदलाव का वादा लेकर सत्ता में आई थी वह भी किसानों के जीवन में ऐसा बदलाव नहीं ला सकी जिससे वह आत्महत्या के बारे में सोचे ही नहीं। अरविन्द केजरीवाल ने यह बात बार-बार दोहराई थी कि हमारी सरकार बनी तो एक भी किसान को आत्महत्या नहीं करनी पड़ेगी। अगर नीयत में खोट न होती और इच्छाशक्ति होती ऐसा बिल्कुल संभव था। लेकिन हुआ क्या? बीते शुक्रवार शाम गांव पड्‌डी सुरा सिंह में मृतक किसान मंजीत सिंह के पास से एक सुसाइड नोट बरामद हुआ है जिसमें उन्होंने कहा है कि इस सीजन में गेहूं की कम उपज के कारण वह यह कदम उठा रहे हैं। मंजीत के पास जमीन का एक छोटा सा टुकड़ा था और उन्होंने अनुबंध के आधार पर 18 एकड़ जमीन ली थी। उन पर बैंकों का 17 लाख रुपये बकाया था।

इससे पहले 20 अप्रैल को बठिंडा के मैसर खाना गांव निवासी किसान जसपाल सिंह ने ट्रेन के आगे कूदकर खुदकुशी कर ली थी। उन्होंने इतना बड़ा कदम उठाया क्योंकि वह 9 लाख रुपये का कर्ज नहीं चुका पा रहा थे जो उनके परिवार ने एक निजी बैंक से लिया था। उसी दिन बठिंडा के मनसा खुर्द गांव के गुरदीप सिंह (28) ने ट्यूबवेल मोटर रूम में फंदा लगाकर कथित तौर पर आत्महत्या कर ली। वह दो एकड़ जमीन वाला एक सीमांत किसान थे और उन्होंने छह एकड़ जमीन लीज पर ली थी। गुरदीप पर करीब 3.25 लाख रुपये का कर्ज था।

इन जैसे तमाम सीमांत किसानों को बड़े भूमिपतियों से ठेके पर लेकर खेती करनी पड़ती है जिसका ठेका 60-70 हज़ार रूपए प्रति एकड़ प्रति वर्ष देना पड़ता है। लागत खर्चे बढ़ जाने की वजह से किसानों के पल्ले कुछ नहीं पड़ता, कर्जे की रकम दिनों-दिन बढ़ती जाती है जिसके चलते उन्हें आत्महत्या करने को मजबूर होना पड़ता है। जितने भी किसान आत्महत्या करने पर मजबूर हो रहे हैं उन सबके ऊपर बेशुमार क़र्ज़ था और क़र्ज़ वसूली के लिए जारी हो रहे वारंटों का भी मनोवैज्ञानिक दबाव बताया जा रहा है।   

2017 के चुनावों से पहले तत्कालीन कांग्रेस नेता अमरिंदर सिंह ने जो बेशुमार चुनावी वायदे किये थे उनमें से एक किसानों के सभी कर्जे माफ़ कर देने का वायदा भी था। जब कांग्रेस की सरकार बन गई तो कह दिया कि 5 लाख तक के कर्जे ही माफ़ होंगे। फिर बाद में कह दिया सिर्फ दो लाख तक का ही क़र्ज़ माफ़ किया जायेगा। जिसका 20 लाख का क़र्ज़ है उसका भी सिर्फ 2 लाख का ही कर्ज़ माफ़ किया जायेगा। पहले कहा था सहकारी समितियों का क़र्ज़ माफ़ होगा। फिर कह दिया सरकारी बैंकों का भी क़र्ज़ माफ़ करेंगे। जब हंगामा हुआ तो कह दिया प्राइवेट बैंक का भी करेंगे। लेकिन सबका क़र्ज़ माफ़ नहीं हुआ। जब कांग्रेस ने चरणजीत चन्नी को मुख्यमंत्री बनाया तो उन्होंने भी कह दिया था कि किसी किसान का कोई क़र्ज़ बकाया नहीं है हमने सब माफ़ कर दिए हैं और सभी वारंट रद्द कर दिए गए हैं।

अब जो खेतीबाड़ी विकास बैंक है उसने वारंट जारी करके किसानों की पकड़-धाकड़ चालू कर दी। जेल में अगर कोई जेबकतरा भी हो तो जब तक उसका मुकदमा चलता है और उसे सज़ा नहीं हो जाती उसके भोजन का इंतजाम सरकार करती है, जेल के अधिकारी उससे कोई काम भी नहीं करवा सकते, ना ही उसे जेल की वर्दी पहननी पड़ती है। किसानों के मामले में यह है कि जितने किसान पकड़े गए हैं उनके भोजन का खर्चा भी उनसे ‘डाईट खर्चे’ के नाम पर वसूला जायेगा। यह खर्चा उनके कर्ज़े की रकम में जोड़ दिया जाता है। यह कानून अंग्रेजों के समय से चला आ रहा है। सवाल यह है कि यह कानून कौन बदलेगा?

सरकार बदलने के बाद यह पूछा/बताया जाना तो बनता ही था कि अब सरकार की नीति क्या है? सरकार से पूछे बगैर वारंटों पर अमल भी शुरू हो गया है। किसानों की आत्महत्या के मामले ने जब तूल पकड़ा तो आम आदमी पार्टी के ख़जाना मंत्री किसानों की गिरफ्तारियों पर जुबानी रोक तो लगा दी है और एक कमेटी भी बिठा दी गयी है जो सोच विचार करके यह बताएगी कि किसानों को इस चक्रव्यूह से कैसे निकला जाये। यह कमेटियां बिठा दिए जाने का अब तक जो हश्र होता आया है, किसी से छुपा हुआ नहीं है। कमेटी बिठा कर आम आदमी क्या नया बदलाव लाती है यह तो आने वाला समय ही बताएगा।

वैसे कुछ सयाने अभी भी मानते हैं कि आम आदमी पार्टी चाहे तो कृषि और किसानों से जुड़ी हर समस्या का इलाज चुटकियों में संभव है लेकिन उन्हें यह शक़ भी है कि इन ‘नए’ नेताओं को ‘पुरानी’ अफसरशाही देर-सबेर शीशे में उतार ही लेगी। फिलहाल किसानों की आत्महत्या का दौर बदस्तूर जारी है। लोग तो पूछेंगे ही ‘आप’ ने तो व्यवस्था में बदलाव का वायदा किया था। ‘आप’ के राज में भी किसान आत्महत्या क्यों कर रहे हैं?

(देवेंद्र पाल वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल लुधियाना में रहते हैं।)

देवेंद्र पाल
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