विज्ञान और अनुसंधान में भारत चीन से इतना पीछे क्यों है?

हालांकि भारत में विज्ञान और इंजीनियरिंग के छात्रों का एक बड़ा समूह है और यह विश्व स्तर पर अग्रणी अनुसंधान क्षेत्रों में शामिल है, फिर भी कई प्रमुख मापदंडों पर इसका प्रदर्शन खराब है। 

पिछले हफ्ते सरकार द्वारा ‘नेशनल रिसर्च फाउंडेशन’ (एनआरएफ) को दी गयी मंजूरी का वैज्ञानिक समुदाय द्वारा व्यापक रूप से स्वागत किया जा रहा है। उम्मीद की जा रही है कि भारत के वैज्ञानिक अनुसंधान क्षेत्र की वर्षों से चिह्नित की जा सभी कमियों को अकेले दम पर दूर करने की क्षमता ‘एनआरएफ’ में है।

यूं तो भारत गहरी वैज्ञानिक क्षमताओं वाले अग्रणी देशों में से है, क्योंकि यहां विज्ञान और इंजीनियरिंग स्नातकों का एक बड़ा समूह है, प्रयोगशालाओं और अनुसंधान संस्थानों का एक बड़ा नेटवर्क मौजूद है, और वैज्ञानिक अनुसंधान के कुछ अग्रणी क्षेत्रों में उनकी सक्रिय भागीदारी भी है। लेकिन मौजूदा हालत यह है कि तुलनात्मक दृष्टि से, भारत अनुसंधान के विभिन्न मापदंडों पर कई ऐसे देशों से भी पीछे है, जिनमें से कुछ के पास तो अत्यधिक सीमित संसाधन हैं।

इनमें से सबसे महत्वपूर्ण निर्देशांक भारत द्वारा अनुसंधान और विकास गतिविधियों पर खर्च किये जाने वाले धन की मात्रा है। पिछले दो दशकों से अधिक समय से, केंद्र का घोषित उद्देश्य अनुसंधान एवं विकास पर राष्ट्रीय सकल घरेलू उत्पाद का कम से कम दो प्रतिशत आवंटित करना रहा है। न केवल यह उद्देश्य पूरा नहीं हुआ है, बल्कि सकल घरेलू उत्पाद के अनुपात के रूप में अनुसंधान पर व्यय इस सहस्राब्दी की शुरुआत में लगभग 0.8 प्रतिशत से घटकर अब लगभग 0.65 प्रतिशत हो गया है। पिछले लगभग एक दशक से यह प्रतिशत स्थिर बना हुआ है।

इसका मतलब यह नहीं है कि शोध के लिए पैसा नहीं बढ़ा है। पिछले 15 वर्षों में अनुसंधान पर खर्च धन की मात्रा के लिहाज से तीन गुना से अधिक हो गयी है। 2007-08 में 39,437 करोड़ रुपये के खर्च से बढ़कर 2020-21 में 1.27 लाख करोड़ से अधिक खर्च हुआ है। लेकिन चूंकि इस बीच भारत की जीडीपी भी तेजी से बढ़ी है, इसलिए अनुसंधान का प्रतिशत कम हो गया है।

‘यूनेस्को विज्ञान रिपोर्ट’-2021 में 2018 के लिए सभी देशों के आंकड़े उपलब्ध हैं। इसके अनुसार, कम से कम 37 देशों ने इस साल अनुसंधान एवं विकास पर अपने सकल घरेलू उत्पाद का 1 प्रतिशत से अधिक खर्च किया था। इनमें से पंद्रह देशों ने दो प्रतिशत या उससे भी अधिक खर्च किया। अनुसंधान एवं विकास गतिविधियों पर वैश्विक स्तर पर खर्च, (वैश्विक) सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 1.79 प्रतिशत किया जा रहा है। वैश्विक स्तर पर, अनुसंधान एवं विकास पर खर्च में वृद्धि का प्रतिशत सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में वृद्धि के प्रतिशत को भी पीछे छोड़ चुका है। जबकि भारत में इसका उल्टा हो रहा है।

गत मार्च में, संसद में एक प्रश्न के उत्तर में सरकार ने कहा कि 2018 में ‘क्रयशक्ति साम्यता’ (पीपीपी) के लिहाज से अनुसंधान एवं विकास पर भारत का कुल खर्च लगभग 68 अरब अमेरिकी डॉलर था, जो कि अमेरिका, चीन, जापान, जर्मनी और दक्षिण कोरिया के बाद दुनिया में छठा सर्वाधिक था। हालांकि भारत खर्च किये गये धन की मात्र के लिहाज से इन देशों से बहुत पीछे था। उस वर्ष अमेरिका और चीन दोनों ने 500 अरब अमेरिकी डॉलर से अधिक खर्च किये थे।

भारत ने 2020 में प्रति शोधकर्ता केवल 42 अमेरिकी डॉलर (पीपीपी के संदर्भ में) खर्च किए, जबकि इज़राइल ने लगभग 2,150, दक्षिण कोरिया ने 2,180 और अमेरिका ने 2,183 डॉलर खर्च किए।

इसके अलावा, भारत में कुल वैज्ञानिक शोधकर्ताओं में महिलाएं केवल 18 प्रतिशत हैं, जबकि वैश्विक स्तर पर यह संख्या 33 प्रतिशत थी।

विश्वविद्यालयों में अनुसंधान

भारत में उच्च शिक्षा के लगभग 40,000 संस्थान हैं, जिनमें अधिकतर कॉलेज हैं। इनमें से 1,200 से अधिक पूर्ण विश्वविद्यालय हैं। ‘एनआरएफ’ पर पेश विस्तृत परियोजना रिपोर्ट के अनुसार, इनमें से केवल एक प्रतिशत सक्रिय अनुसंधान में संलग्न हैं। अन्य देशों के लिए तुलनात्मक संख्या उपलब्ध नहीं है, लेकिन यह सामान्य ज्ञान है कि अधिकांश अग्रणी देशों में विश्वविद्यालय अनुसंधान और विकास गतिविधियों के केंद्र हैं।

‘भारतीय विज्ञान संस्थान’ (आईआईएससी), बेंगलुरु के प्रोफेसर अरिंदम घोष कहते हैं कि “अगर मुझसे केवल एक ही क्षेत्र बताने के लिए कहा जाए जिसमें मैं ‘एनआरएफ’ को बदलाव लाते देखना चाहता हूं, तो वह होगा – शिक्षा और अनुसंधान का आपस में संयोजन। यह अभी भारतीय व्यवस्था में मौजूद सबसे बड़ी विसंगति है। और ऐसा देर तक चलने वाला नहीं है, इसलिए, ‘एनआरएफ’ को इसे सुधारने पर बहुत अधिक जोर देने की जरूरत है।”

‘विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग’ (डीएसटी) के अनुसार, 2021 में देश में अनुसंधान एवं विकास (आर&डी) के 7,888 संस्थान थे, जिनमें निजी क्षेत्र और उद्योगों की 5,200 से अधिक वे इकाइयां भी शामिल हैं, जो मुख्य रूप से उस उद्योग से ही संबंधित अनुसंधान में संलग्न हैं। निजी क्षेत्र की इकाइयों की इस संख्या में 921 ऐसे उद्योग भी शामिल हैं जिनमें अनुसंधान गतिविधियों को शुरू करने की “क्षमता है”, हलांकि उन्होंने अभी तक शुरू नहीं किया है।

अनुसंधान की वर्तमान स्थिति

भारत ने 2020-21 में 25,550 डॉक्टरेट उपाधियां प्रदान कीं, जिनमें से 14,983 विज्ञान और इंजीनियरिंग के विषयों में थीं। डॉक्टरेट की कुल संख्या में यह 59 प्रतिशत का अनुपात अन्य देशों की तुलना में काफी अच्छा है, जिससे इस सूची में भारत कुल मिलाकर सातवें स्थान पर है। विज्ञान और इंजीनियरिंग डॉक्टरेट की वार्षिक संख्या के लिहाज से भी, भारत अमेरिका, चीन और ब्रिटेन के बाद चौथे स्थान पर है।

लेकिन भारत की बड़ी आबादी को देखते हुए यह अनुपात अच्छा नहीं है। वास्तव में, भारत में प्रति दस लाख जनसंख्या पर शोधकर्ताओं की संख्या 262, ब्राजील (888), दक्षिण अफ्रीका (484) या मैक्सिको (349) जैसे विकासशील देशों की तुलना में बेहद कम है।

‘डीएसटी’ के आंकड़ों के अनुसार, 2001 और 2020 के बीच अमेरिकी विश्वविद्यालयों में डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त करने वाले लगभग 94 प्रतिशत भारतीयों (36,565 में से 34,241) ने विज्ञान और इंजीनियरिंग विषयों में अनुसंधान किया, जो चीन के बाद दूसरे स्थान पर है।

अनुसंधानों का प्रकाशन और पेटेंट

‘डीएसटी’ के आंकड़ों से पता चला है कि भारतीय शोधकर्ताओं ने 2020 में दुनिया भर की विज्ञान और इंजीनियरिंग पत्रिकाओं में 1,49,213 शोधपत्र प्रकाशित कराये, जो एक दशक पहले की तुलना में लगभग ढाई गुना अधिक है। हालांकि, यह अभी भी सभी शोधपत्रों का केवल 5 प्रतिशत था। चीनी शोधकर्ताओं का यह प्रतिशत 23 था, जबकि अमेरिकी शोधकर्ताओं का प्रतिशत 15.5 था।

2021 में, भारत में कुल 61,573 पेटेंट दायर किए गए, जिससे यह दुनिया में छठा सबसे बड़ा बन गया। लेकिन यह उस वर्ष चीन में दायर किए गए लगभग 16 लाख और संयुक्त राज्य अमेरिका के लगभग छह लाख पेटेंटों के आसपास है।

(‘द इंडियन एक्सप्रेस’ से साभार। अमिताभ सिन्हा का ‘स्टेट ऑफ साइंस’ लेख।  अनुवाद – शैलेश)

       

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