स्नूपिंग गेट: रूपेश क्यों आए मोदी सरकार के निशाने पर?

वेब पोर्टल द वायर में कल एक खबर छपी। खबर चौंकाने वाली थी। इजराइल की एक सर्विलांस कम्पनी एनएसओ ग्रुप ‘‘पेगासस स्पायवेयर’’ द्वारा, जिसे वह किसी देश की सरकार को ही देती है 2017 से 2019 के बीच कई पत्रकारों की जासूसी की जाने की खबर थी, जिसमें भारत के 40 से अधिक पत्रकारों के नाम थे, जिनके फोन को सर्विलांस पर रखा गया था, जिसमें अक्सर पत्रकार किसी बड़े न्यूज चैनल से जुड़े हुए थे, मगर उसमें एक नाम ऐसा था जो इस पूरे ग्रुप से दूर था और अपनी जगह का वह इकलौता नाम था, हां मैं बात कर रही हूं झारखंड के स्वतंत्र पत्रकार रूपेश कुमार सिंह की। जो न ही किसी बड़े न्यूज चैनल से जुड़े हुए हैं और न ही उन्होंने किसी बड़े नेता के किसी मामले का पर्दाफाश किया है। वे लिखते आए हैं तो झारखंड की उस जनता की कहानी जो जंगलों-पहाड़ों में बसी कॉरपोरेट घरानों और सरकार की मिलीभगत से होने वाली जमीनी लूट पर अपनी जमीन को बचाने की लड़ाई लड़ रही है। हां रूपेश कुमार सिंह के लेख उन्हीं आदिवासी-मूलवासी जनता पर केंद्रित रहे हैं।

एक निर्दोष आदिवासी की हत्या के खुलासे की रिपोर्ट बना कारण

इस खबर में जिस रिर्पोटिंग के बाद से उनकी जासूसी की बात छपी है वह 9 जून, 2017 को हुई एक आदिवासी डोली मजदूर की हत्या थी, जिसे ईनामी नक्सली कहकर प्रशासन द्वारा मार दिया गया था और ईनाम की राशियों को बांटा भी गया था। इसमें उस समय के झारखंड के डीजीपी सहित बहुत से नाम शामिल थे और सबसे बड़ी बात थी कि वह नक्सल अभियान के फर्जीवाड़ा का एक बड़ा खुलासा कर रही थी। जिस समय यह घटना घटी थी। अखबार के छपे मोतीलाल बास्के की तस्वीर को देखकर ही रूपेश ने कहा था -‘‘यह मुठभेड़ में मरा नक्सली तो नहीं लग रहा, देखो इसका ड्रेस यह लुंगी में है।’’ उन्होंने बड़ी बारीकी से उसे कवर किया और उनका शक सही साबित हुआ। उस पर एक बड़ी रिपोर्टिंग की थी उन्होंने, जो ढेर सारे वेब पोर्टल द वायर, हस्तक्षेप, जनज्वार, भड़ास फॉर मीडिया सहित कई अन्य पत्रिकाओं में भी छपा था, जिसमें बिल्कुल स्पष्ट किया था कि जिसे माओवादी बताकर मारा गया है वह एक डोली मजदूर मोतीलाल बास्के है और यह खबर पुलिस प्रशासन के दावे को एकदम से उलट रही थी, जिसमें डीएसपी जैसे बड़े नाम भी शामिल थे।

इसके बाद बड़ा जनांदोलन भी हुआ। मजदूर यूनियनों द्वारा जिसमें मजदूर संगठन समिति, सांवता सुसार बैसी, भाकपा (माले) लिबरेशन, विस्थापन विरोधी जन विकास आंदोलन, झारखंड मुक्ति मोर्चा व आजसू पार्टी द्वारा मिलकर ‘‘दमन विरोधी मोर्चा’’ बनाया गया था। और इसके बैनर तले बड़ा जनांदोलन किया गया था। यह मामला झारखंड विधानसभा से लेकर राज्यसभा व लोकसभा तक में गूंजा था। सरकार चाहे कागजों पर अंकित करे या न करे यह बिल्कुल साफ हो चुका था कि मोतीलाल बास्के कोई माओवादी नहीं थे। उनके नाम पर बांटी गई ईनाम की राशि पुलिस-प्रशासन की बेशर्मी का चिन्ह मात्र बनकर रह गयी थी। यहां तक कि गांव के लोगों ने अपने मोतीलाल बास्के को शहीद का दर्जा दे दिया और आज भी उस गांव में मोतीलाल की शहादत जयंती मनाई जाती है।

यह सब वहां हुआ, जहां नक्सली के नाम पर जाने कितने बेकसूर ग्रामीणों की हत्या व उन्हें जेलों में भरने की वारदात होती है और यह खबरें दबकर रह जाती हैं। बात 12 जून 2021 के लातेहार में हुए ग्रामीण ब्रह्मदेव सिंह की हत्या हो चाहे 2020 में हुए रोशन होरो की हत्या। ये वे खबरें हैं जो प्रकाश में आईं, जिस पर थोड़ी सुगबुगाहट हुई भी। जानकार बताते हैं कि ऐसी घटनाएं अक्सर घटती रहती हैं। लातेहार में भी ब्रह्मदेव सिंह की हत्या के कुछ महीने पहले भी ऐसी वारदातें हो चुकी हैं। पर आदिवासी जनता दबकर रह जाती है। वे तो एफआईआर भी नहीं कर पाते, उनके खिलाफ पुलिस द्वारा क्या षड्यंत्र रचा जा रहा है, उन्हें वह भी पता नहीं चल पाता और जिस कागज पर भी चाहे डरा-धमकाकर पुलिस उनके अंगूठे का निशान लेकर उन्हें फंसा भी देती है। जहां जनता की आवाज इस दंबिश में गुम हो रही हो, वहां मोतीलाल बास्के की खबर का पूरे देश में खुलासा हो जाना एक बड़ी घटना है सरकार के लिए।

क्यों हैं आदिवासी जनता पर लिखना निशाने पर होने का कारण

इसके पीछे छुपा स्वार्थ यह है कि जंगल-पहाड़ों पर बसे इस जमीन के असली मालिकों आदिवासी जनता को मौत का डर दिखाकर वहां से खदेड़ना और पूरी जमीन कारपोरेट के हाथों बेच देना, जिस पर वह अपनी फैक्टरियां लगा सकें, खनन कर सकें, मुनाफे का बाजार बना सकें, पर्यावरण की छाती को पूरी तरह रौंदकर। ऐसे में रूपेश जैसे पत्रकार इस लूट के लिए एक रूकावट हैं। क्योंकि वे इन जनता पर होने वाले दमन के साथ-साथ उनके प्रतिरोध की आवाज को भी अपनी लेखनी में उकेरते हैं। वे लिखते हैं कि झारखंड की जनता न जान देगी, न जमीन। यानी उनके संघर्षों को और उनके संघर्ष की आवाज को भी लिखना उसे एक ताकत देने के बराबर है।

पूरी दुनिया एक तरफ उनके ऊपर हो रहे दमन से रूबरू हो रही है, लूट के प्रोपोगेंडा से रूबरू हो रही है तो वहीं इस जनता के संघर्ष से भी। यह कोई छोटी बात नहीं है। यह एक बड़े पूंजीपति घरानों के सपनों पर बड़ा हमला है, जिनकी रखवाली वर्तमान सरकार कर रही है। जो हर कीमत पर अपने आकाओं को जमीन बेचना चाहती है। इसलिए ग्रामीण आदिवासियों के मुद्दे पर लिखने वाले एक साधारण से पत्रकार का नाम उस लिस्ट में शामिल है जिसकी जासूसी विदेशों से नियंत्रित हो रही है। यह सरकार का डर ही है कि ऐसी लेखनी दबती जनता की आवाज बनकर उनके लूट के सपनों को धाराशाही न कर दे।

जासूसी, झूठे आरोप और गिरफ्तारी

हम इसे सिर्फ जासूसी तक ही सीमित नहीं कर सकते क्योंकि इस खबर में फोन टेपिंग की बात जब से छपी है उसी के बाद 4 जून 2019 को रूपेश पर राजकीय हमला होता है और बिल्कुल बनावटी कहानी के साथ उन्हें फंसाने की कोशिश होती है, उन्हें जेल में डाला जाता है उनके छः महीने बर्बाद कर उनकी सामाजिक पहचान पर चोट करने की कोशिश की जाती है, उन पर मानसिक दबाव बनाया जाता है, और जेल से आने के बाद भी आईबी द्वारा उनकी जासूसी के संकेत मिलते है, परोक्ष रूप से धमकाने की कोशिश भी की जाती है, जो अब भी अपने लेखनी की धारा मोड़ने का दबाव बनाते रहने का एक प्रमाण है।

क्या यह सिलसिला यहीं रूक जाएगा?

ऐसी हम कल्पना भी नहीं कर सकते। यहां हमें एक नजर भीमा कारेगांव मामले पर भी डालनी चाहिए, जिन्हें प्रधानमंत्री की हत्या जैसे झूठे षड्यंत्र में फंसाकर अब तक जेलों में बंद किया गया है और जब यह बात साफ हो गयी है कि उनमें से कई के कम्प्यूटर के डेटा के साथ छेड़छाड़ किया गया था, कई फाइलें उनमें बिना उनकी जानकारी से दूर से ही इंस्टाल की गयी थीं। जिस आधार पर उन्हें फंसाया गया है और अब भी वे उसी आरोप की सजा काट रहे हैं। यह मामला भी कुछ ऐसा ही है यह मोबाइल की सर्विलांस की बात है। आगे इसका दुरुपयोग किस-किस तरीके से किया जाएगा इसकी हमें अभी खबर भी नहीं है। हां इसका एक नमूना हमने जरूर देखा है झूठे केस में फंसाए जाने के रूप में। जो लेखनी अभी भी चल रही है उसे दबाने के लिए आगे उनके साथ कोई अनहोनी न की जाएगी, यह नहीं कहा जा सकता।

हम अपने जनपक्षधर के साथ हैं

ऐसे में हमें अपने इन सच्चे पत्रकारों के साथ खड़े होने की जरूरत है। हमें इस तरह के हमले का विरोध करना चाहिए। साथ ही उनकी निजता के अधिकार के हनन के खिलाफ जासूसी वाला जवाब मांगना चाहिए। मानवाधिकार संगठनों से लेकर हमें भी सरकार से जरूर जवाब मांगना चाहिए एक जनपक्षरधर के निजता के हनन का वह क्या जवाब देगी, क्या वह इसके बाद उनके साथ घटने वाले किसी भी अप्रिय घटना की जिम्मेवारी लेती है? ऐसे इंसान की सुरक्षा की क्या गारंटी देती है?

(इलिका प्रिय स्वतंत्र लेखिका हैं और झारखंड के रामगढ़ में रहती हैं।)

इलिका प्रिय
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