खौफ़जदा हैं महिलाएं लेकिन तालिबान से लड़ने का जज़्बा कायम!

तालिबान की वापसी से महिलाएं सबसे ज्यादा खौफ़जदा हैं, क्योंकि बीते दिनों कुछ प्रांतों पर कब्जे के बाद से ही उसके नेताओं ने अपना रंग दिखाना शुरू कर दिया था। उन्होंने जुलाई की शुरुआत में बदख्शां और तखर स्थानीय धार्मिक नेताओं को तालिबान लड़ाकों के साथ निकाह के लिए 15 साल से बड़ी लड़कियां और 45 साल से कम उम्र की विधवाओं की फेहरिस्त देने का हुक्म दिया था। बुर्का से पूरा शरीर ढकने, ऊंची हील ना पहनने, घर से बाहर ना निकलने या ज़रूरत पर किसी मर्द के साथ बाहर निकलने की हिदायत जारी की गईं जो महिलाएं उल्लंघन करती पाई जा रही हैं उन्हें कोड़ों से पीटने के चित्र आ रहे हैं। जो दर्दनाक हैं और महिला उत्पीड़न की दास्तान कह रहे हैं।

महिला अधिकारों के लिए काम करने वाली और अफ़ग़ानिस्तान में चुनाव आयोग की पूर्व सदस्य ज़ारमीना काकर ने बीबीसी को बताया, इन दिनों मुझसे कोई पूछता है कि मैं कैसी हूँ? इस सवाल पर मेरी आँखों में आँसू आ जाते हैं और मैं कहती हूँ ठीक हूँ। लेकिन असल में हम ठीक नहीं हैं। हम ऐसे दुखी पंछियों की तरह हो गए हैं, जिनकी आँखों के सामने धुंध छाई हुई है और हमारे घरौंदों को उजाड़ दिया गया है। हम कुछ नहीं कर सकते, केवल देख सकते हैं और चीख सकते हैं। ज़ारमीना काकर कहती हैं, हम अफ़ग़ानिस्तान में मानवाधिकारों को लेकर वर्षों से काम कर रहे हैं। हम तालिबान के विचारों के ख़िलाफ़ हैं और हमने तालिबान के विरोध में नारे भी लगाए हैं उनके अनुसार, पिछले 20 सालों में अफ़ग़ान महिलाओं ने देश में लोकतंत्र की बहाली के लिए बहुत कोशिशें की हैं। लेकिन आज तालिबान की वापसी से ये लगता है कि हमने इतने सालों में जो हासिल किया था, वो बर्बाद हो गया क्योंकि तालिबान महिला अधिकारों और महिलाओं की निजी स्वतंत्रता को लेकर प्रतिबद्ध नहीं हैं। वो आगे बताती हैं कि तालिबान शासित प्रांतों में महिलाओं को ताबूतों में पाकिस्तान ले जाया जा रहा है। ऐसा काबुल में शरण ली हुई महिलाओं ने उन्हें बताया है।

स्वतंत्र फ़िल्ममेकर सहरा क़रीमी ने सिनेमा और फ़िल्मों को प्यार करने वाले लोगों और फ़िल्म कम्युनिटी को चिट्ठी लिखी है और मदद की गुहार लगाई है। उन्होंने लिखा है कि दुनिया हमें पीठ ना दिखाए, अफ़ग़ानिस्तान की महिलाओं, बच्चों, कलाकारों और फ़िल्ममेकर्स को आपके सहयोग की ज़रूरत है।

काबुल यूनिवर्सिटी की एक छात्रा और सामाजिक कार्यकर्ता सईद ग़ज़नीवाल ने, तालिबान के खिलाफ हथियार उठाने वाली महिलाओं का समर्थन कर रही हैं। उनका कहना है कि हमें तालिबान की नीतियों और सरकार के बारे में अच्छी तरह से अंदाज़ा है।

इस दौरान एक क्रांतिकारी महिला का नाम सलीमा मज़ारी की बहादुरी का किस्सा भी सामने आया है जो चारकिंट ज़िले की लेडी गर्वनर थीं जिस समय अफगानिस्तान में महिलाओं के हक को लेकर लड़ाई चल रही है, तब सलीमा अपने दम पर अपने इलाके के लोगों की ढाल बन गई हैं उन्होंने अपनी खुद की एक ऐसी फौज खड़ी कर ली है कि तालिबान को भी उन पर हमला करने से पहले हजार बार सोचने के लिए मज़बूर होना पड़ा।

कट्टर धार्मिकता से महिला हक़ पाने की जो यह समझ अफगानिस्तान में देखने को मिल रही है उसकी वजह वहां सोवियत रूस का ही सहयोग और मार्गदर्शन रहा है। उन्होंने इस दौरान इतनी उपलब्धियां हासिल की हैं कि लगता था कि उनकी उड़ान पूरी होने को है आइए पहले तरक्की को भी देख लें।

उन्हें सन् 1919 से अपने मत देने का अधिकार हासिल है जबकि अमरीका में महिलाओं को यह अधिकार 1920 में प्राप्त हुआ। खातूल मोहम्मदजई ब्रिगेडियर जनरल हैं जो अफगान नेशनल आर्मी में कार्य करती हैं। उन्हें पहली बार 1980 के दौरान डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ अफगानिस्तान की सेना में कमीशन दिया गया था, जब वह पैराट्रूपर के रूप में प्रशिक्षित होने वाली देश की पहली महिला बनीं। वह अपने करियर में 600 से अधिक छलांग लगा चुकी हैं। 1996 में तालिबान के सत्ता में आने तक उन्होंने एक प्रशिक्षक के रूप में अफगान सेना में काम करना जारी रखा। 2001 में संयुक्त राज्य अमेरिका के आक्रमण के बाद बनाई गई सेना में बहाल, वह सामान्य अधिकारी रैंक तक पहुंचने के लिए अफगान इतिहास में पहली महिला बनीं।

अमरीका, ब्रिटेन जैसे विकसित देशों में महिलाओं के अधिकारों की तरह अफ़ग़ानिस्तान में भी महिलाओं की स्थिति थी। अफ़ग़ानिस्तान में 1960 के दशक में ही पर्दा प्रथा को ख़त्म कर दिया गया था। इसके बाद महिलाएं स्कर्ट, मिनी स्कर्ट में शॉपिंग करने या फिर पढ़ाई करने जातीं थीं। नौकरी भी करती थीं। बिना किसी रोकटोक के। वे स्वावलंबी जीवन जी रही थीं।

मानवाधिकारों और सामाजिक न्याय के लिए लड़ने वाली अफगान महिलाओं के एक स्वतंत्र सामाजिक और राजनीतिक संगठन के रूप में RAWA को पहली बार काबुल में 1977 में गठित किया गया। इसके बाद संगठन ने अपने काम के कुछ हिस्सों को अफगानिस्तान से पाकिस्तान में स्थानांतरित कर दिया और अफगान महिलाओं के लिए काम करने के लिए वहां अपना मुख्य आधार स्थापित किया।

अब ख़बर मिल रही है कि तालिबानी अधिकारी अफगानिस्तान के सरकारी कर्मचारियों से काम पर लौटने की अपील कर रहे हैं। इतना ही नहीं उन्होंने महिलाओं को भी सरकार का हिस्सा बनने को कहा है। इससे पूर्व तालिबान प्रवक्ता  जबीउल्लाह मुजाहिद ने कहा था-इस्लामी अमीरात अफगानिस्तान महिलाओं को शरीयत के हिसाब से अधिकार देगा। हमारी औरतों को वे अधिकार मिलेंगे जो हमारे धर्म ने उन्हें दिए हैं वो शिक्षा, स्वास्थ्य और अलग अलग क्षेत्रों में काम करेंगी। अन्तर्राष्ट्रीय समुदायों को महिला अधिकारों को लेकर चिंता है हम ये भरोसा देते हैं कि किसी के अधिकारों का उल्लंघन नहीं होगा। हमारी औरतें मुसलमान हैं उन्हें शरीयत के हिसाब से रहना होगा।

इस तरह की बात तालिबान कहे तो यकीन नहीं होता पर लगता है इस बार सत्ता में कुछ सामंजस्य की स्थितियां निश्चित बनेंगी। इसीलिए समावेशी सरकार बनाने पर भी ज़ोर दिया जा रहा है लेकिन स्त्री शरीयत के दबाव से अभी फिलहाल मुक्त होती नज़र नहीं आती किंतु इस संकटापन्न स्थिति में उसकी जागरुकता आश्वस्त करती है कि उनकी उड़ान जारी रहेगी।

(स्वतंत्र लेखक सुसंस्कृति परिहार का लेख।)

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