योगी सरकार को सुप्रीम कोर्ट में झटका, प्रशासन को हटानी ही पड़ेगी लखनऊ में लगी होर्डिंग

नई दिल्ली। होर्डिंग मामले में यूपी की योगी सरकार को झटका लगा है। सुप्रीम कोर्ट ने मामले में इलाहाबाद हाईकोर्ट के आदेश पर रोक लगाने से इंकार कर दिया है। इसके साथ ही दो सदस्यों वाली जजों की पीठ ने आगे की सुनवाई के लिए चीफ़ जस्टिस से मामले में बड़ी बेंच गठित करने की सिफ़ारिश की है।

गौरतलब है कि उत्तर प्रदेश सरकार ने “नेम &शेम” के तहत लखनऊ में सीएए विरोधी आंदोलन के दौरान हिंसा में आरोपित कुछ एक्टिविस्टों और समाज के सम्मानित लोगों की नाम व पते के साथ तस्वीरों की होर्डिंग्स लखनऊ के सार्वजनिक स्थानों पर लगायी थी। इलाहाबाद हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस की अध्यक्षता वाली स्पेशल बेंच ने इस मामले का स्वत: सज्ञान लिया था। और फिर सुनवाई करने के बाद इसे पूरी तरह से निजता के हनन बताते हुए पूरी कार्यवाही को अवैध करार दिया था। इसके साथ ही उसने होर्डिंग हटाकर उसे 16 मार्च तक सूचित करने का लखनऊ प्रशासन को निर्देश दिया था। लेकिन इस आदेश को लागू करने के बजाय यूपी सरकार ने इसके विरुद्ध सुप्रीम कोर्ट में एसएलपी दाखिल कर दिया।

आज 12 मार्च को सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस यूयू ललित एवं जस्टिस अनिरुद्ध बोस की अवकाश कालीन पीठ ने इस पर सुनवाई की। सुप्रीम कोर्ट ने यूपी सरकार की ओर से पेश हुए अधिवक्ता तुषार मेहता से इन होर्डिंग के प्रकाशन का कानूनी औचित्य पूछा तो उन्होंने कोई संतोष जनक उत्तर न देकर हाईकोर्ट के जजमेंट के आधार – “निजता के अधिकार ” के अतिक्रमण को ब्रिटेन आदि देशों से जुड़े उन अपवाद स्वरूप जजमेंट की ओर कोर्ट का ध्यान आकृष्ट किया, जिनमें व्यापक हितों के तहत निजता के अधिकार के उल्लंघन की छूट दी गयी थी। कोर्ट ने इसमें व्यापक हितों के सागवान विधिक प्रश्नों को शामिल मानकर मामले को बड़ी बेंच/ फुल बेंच को सौंपे जाने व अगले सप्ताह तक सुने जाने के लिए सीजेआई को रेफर कर दिया।

लेकिन तमाम प्रयासों के बावजूद माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने हाईकोर्ट के आदेश पर रोक लगाने जैसा अंतरिम राहत देने से मना कर दिया। माननीय न्यायाधीश द्वय का मानना था कि कानून का ऐसा कोई प्रावधान नहीं है जो राज्य को किसी मामले के अभियुक्तगणों के होर्डिंग्स प्रकाशित करने की छूट देता हो। वह भी तब, जब सार्वजनिक संपत्ति क्षति से सम्बंधित मामला अभी न्यायालय के समक्ष विचाराधीन हो। जस्टिस अनिरुद्ध बोस ने कहा कि जनता और सरकार में फर्क होता है। एक नागरिक कई बार क़ानून तोड़ता है लेकिन सरकार को कानून विरोधी कृत्य करने की अनुमति हरगिज़ नहीं दी जा सकती है।

उल्लेखनीय है कि पूरे भारतीय क्रिमनल लॉ में किसी आरोपित व्यक्ति की तस्वीर, पता आदि आम जनता के ज्ञान आये, इस निमित्त सार्वजनिक रूप से छापे जाने का कोई कानून नहीं हैं। केवल सीमित संदंर्भों में दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 83 भगोड़े अपराधी के बारे में पूर्ण सूचना न्यायालय के आदेश से प्रकाशित करने को अनुमति देती है। इसके अलावा बिज़नेस आइडेंटिटी एक्ट के तहत कनविक्टेड अपराधियों की फ़ोटो संबंधित थाने में रखने का प्रावधान है। इस प्रकार, किसी आरोपी की सरेआम होर्डिंग आदि लगाना नागरिक को प्राप्त ‘निजता के अधिकार’ का अतिक्रमण होगा। यह मानवीय गरिमा और स्वतंत्रता के विरुद्ध होगा। 

इस प्रकार, यूपी के लोक प्राधिकारी और सरकार में उच्च पदों पर आसीन व्यक्तियों द्वारा उस संविधान जिसके अनुपालन का शपथ लेते हैं, के विरूद्ध बयान दिया जाता है। और कानून विरोधी कार्य करने के लिए अपने मातहतों को मौखिक तौर पर निर्देशित किया जाता है। जब माननीय उच्च न्यायालय ने उन्हें उनकी गलती का अहसास कराया तो उनकी तरफ़ से अपनी हठधर्मिता व अहम की तुष्टि के लिए सर्वोच्च न्यायालय को मंच बनाने का प्रयास किया गया। गनीमत यह है कि इन्हें यहां भी उन्हें मुंह की खानी पड़ी। यूपी सरकार को अब हर हाल में उच्च न्यायालय के आदेश का पालन करते हुए होर्डिंग्स हटानी ही पड़ेगी।

(रमेश यादव इलाहाबाद हाईकोर्ट में वकील हैं। और मौजूदा समय में यूपी में हाईकोर्ट की तरफ़ से जारी दंगों की जाँच में उन्हें न्यायालय मित्र भी बनाया गया है।)

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