दीदी आप अकेले नहीं हैं, हम सब नवशरण हैं!

सत्ता कितनी डरपोक है। अब नवशरण से डर गई है। बहाना मनी लांड्रिंग एक्ट का बनाया है। आठ घंटे तक उससे पूछताछ की गई है। निजाम नवशरण से क्या पूछना चाहता है? जब 1984 में दिल्ली में कत्लेआम होता है तो गौतम नवलखा लिखते हैं- “Who is guilty”।

वह नवलखा आज भी सत्ता की साजिशों के खिलाफ लिखता है। उस गौतम नवलखा को तुमने चार वर्षों से जेल में डाला हुआ है। नवशरण हर मंच से आवाज उठाती है, कि “उस बुजुर्ग को सीखचों के पीछे क्यों डाला हुआ है’? वह कोविड की बीमारी से जूझता बंदा, तुम्हें उससे डर लगता है? उसे बुनियादी मानवीय सहूलियतें भी नहीं दे रहे हो। क्या सत्ता को शर्म आती है?’’ वह आनंद तेलतुम्बडे, स्टेनस्वामी, सुधा, फरेरा सबके बारे में सवाल करती है। जब वह इन सबके बारे में सवाल करती है तो उसके गले की नसें फूल जाती हैं। हाथ हवा में कांपते हैं। उसकी आंखें भर आती हैं। कंठ भारी हो जाता है। लेकिन फिर भी वह चुप नहीं होती।

वह दहाड़ती है, ‘‘शर्म करो, शर्म करो!’’ लेकिन निजाम बेशर्म है वो नवशरण को घेरने की कोशिश कर रहा है। उस नवशरण को जिसकी नसों में नाबरी का खून दौड़ता है। सत्ता की दहशत और साम्प्रदायिक खौफ को बराबर घेरे में लाने वाले गुरशरण सिंह की वो बेटी है। वही गुरशरण सिंह जिसने 1984 में बुलंद आवाज में सवाल किया कि ‘‘जो मारे गये, जो जला दिए गए उनका कसूर क्या था? आज तुम उस गुरशरण सिंह की बेटी से क्या पूछना चाहते हो या क्या बताना चाहते हो?

नवशरण ने ऐसा क्या कर दिया है कि तुम खौफ में आ गए हो। तुम्हारे जरखरीद गुंडे सड़कों पर निकलते हैं। मनुष्यों को आग लगा कर जला देते हैं। बहाना धर्म का बनाते हो। लिंचिंग करते हो और हमारी नवशरण उन घरों में जाती है, जिन घरों में कमाने वाले एक मात्र प्राणी का तुमने कत्ल कर दिया। क्या तुम नवशरण से यह पूछोगे कि उस बंदे के परिवार का क्या हाल है। उसकी आंखें कितनी सहमी हुई हैं। बच्चियां कितनी घबराई हुई हैं। नवशरण का कसूर यह है कि वह उन सहमे हुए बच्चे, बच्चियों को गले लगाती है। उनके आंसू पोंछने की कोशिश करती है। उनकी दास्तान बार-बार सुनने जाती है। क्या तुम ये सब नवशरण से पूछोगे?

नवशरण असम जाती है। उन घरों में जिनके खिलाफ तुमने फतवा दे दिया है कि या तो कागज़ दिखाओ वर्ना तुम्हारा मरना तय है। क्या तुम्हें पता है? ऐसे गरीब, लाचार, बेबस लोगों से मिलना कैसे होता है। उनकी आंखों में तैरते मासूम सवालों का सामना करना कितना कठिन होता है। नवशरण दीदी हिम्मत करती है। उसके बारे में मैं आपको बताना चाहता हूं कि वह उच्च शिक्षा हासिल हस्ती है। कनाडा की ओटावा यूनिवर्सिटी से उसने डिग्री हासिल की है। वह भी आराम से किसी कार्यालय की कुर्सी पर बैठी होती और तमाम सुख-सुविधाओं का लाभ उठा रही होती। तुम्हारे ही प्रबंधन का कोई पुर्जा बन जाती। फिर तुम्हें कोई तकलीफ नहीं होनी थी, लेकिन क्या तुम नवशरण से पूछोगे कि जब वह दबे, कुचले, प्रताड़ित लोगों को गले से लगाती है तो उसे शारीरिक और मानसिक तौर पर किस यंत्रणा से गुजरना पड़ता है।

अभी यह कल की ही बात है। जब नवशरण पंजाब के मानसा में एक समारोह के दौरान मुझे मिली। उसने मुझसे सवाल पूछा था कि ‘‘तुम मंच से लगातार इतना दर्द पेश करते हुए मानसिक पीड़ा और थकावट महसूस नहीं करते?’’ लेकिन मेरे जवाब का इंतजार किए बिना उसने इन लोगों से मिलते वक्त होने वाले मानसिक कष्ट की व्यथा बताई। नवशरण जानती है कि ये लोग जितना मानसिक संताप भुगत रहे हैं, उससे बड़ा कुछ भी नहीं।

इसलिए नवशरण अपनी हैसियत और प्रतिष्ठा त्याग कर गली-गली, गांव-गांव, बस्तियों में लोगों का दर्द बांटती फिरती है। सलाम है हमारी इस बहादुर बहन को। उससे कहना चाहते हैं कि ‘‘दीदी आप अकेले नहीं हैं, हम सब नवशरण हैं, हमें मान है नवशरण होने पर। सत्ता कितने नवशरण को कैद कर पाएगी। आपने गुरशरण सिंह की नीली स्वप्निल आंखों के आंसुओं को अपनी हथेलियों में समेट लिया है। निजाम उन बहते आंसुओं की गर्मी से डरता है। हम यह टकोर (गर्माहट) कम नहीं होने देंगे, हमारी नवशरण!’’ मैं नवशरण हूं!!

(लेख-साहिब सिंह, पंजाबी से अनुवाद- गुरबख्श सिंह मोंगा)

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