पहले संज्ञान लिया होता तो श्रमिकों की इतनी दुर्दशा नहीं होती! योर आनर

उच्चतम न्यायालय का हृदयपरिवर्तन हो गया है और आज उच्चतम न्यायालय स्वयं को प्रवासी मजदूरों का हितैषी बता रहा है। शहरों से मजदूरों के पलायन को लेकर उच्चतम न्यायालय में दाखिल पांच जनहित याचिकाओं और अपीलों को खारिज करने के बाद आज उच्चतम न्यायालय देश को विश्वास दिलाना चाहता है कि उसने इस मामले में स्वत: संज्ञान लिया।

आज उच्चतम न्यायालय को सरकारी आंकड़ों और राहत सम्बन्धी दावों में विसंगतियां नज़र आ रही हैं लेकिन इसके पहले सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता जो मौखिक प्रवचन देते थे उसे बिना शपथपत्र के उच्चतम न्यायालय में स्वीकार कर लिया जाता था। आज प्रवासी मजदूरों के मामले पर उच्चतम न्यायालय केंद्र और राज्य सरकारों से कहा कि हम आपको 15 दिन का वक्त देना चाहते हैं, ताकि आप देशभर में फंसे सभी प्रवासी मजदूरों को उनके घर पहुंचा सकें।

उच्चतम न्यायालय की लापरवाही को केवल एक तथ्य से समझा जा सकता है कि पूर्व जज जस्टिस मदन बी लोकुर ने यहाँ तक कह दिया कि उच्चतम न्यायालय  प्रवासी मजदूरों के संकट के निपटान के लिए सिर्फ एफ ग्रेड का हकदार है।हालाँकि जस्टिस संजय कृष्ण कौल ने इस पर कहा कि उच्चतम न्यायालय की ग्रेडिंग करने से संस्था को क्षति पहुँच रही है। मगर जस्टिस कौल को कौन बताये कि आखिर उच्चतम न्यायालय में संविधान और कानून के शासन का अनुसरण करने वाले जजों की पीठ बनाकर प्रवासी मजदूरों से सम्बन्धित एक भी मामले को सुनवाई के लिए नहीं लगाया गया ।

आखिर जस्टिस रमना, जस्टिस अरुण मिश्रा और जस्टिस अशोक भूषण की ही पीठें क्यों प्रवासी और कोविड सम्बन्धी मामलों की सुनवाई कर रही हैं? जस्टिस चन्द्रचूड, जस्टिस नरीमन और जस्टिस के एम् जोसेफ प्रवासी मजदूरों के मामले में सुनवाई में कहां हैं? चार जजों ने जब मास्टर ऑफ़ रोस्टर को लेकर सवाल उठाया था और मुकदमों के आवंटन को लेकर कतिपय चहेते जजों पर चीफ जस्टिस के अतिशय प्रेम को रेखांकित किया था तो न्यायपालिका में तूफान आ गया था। क्या यही स्थिति तत्कालीन चीफ जस्टिस गोगोई के वक्त भी चली और आज चीफ जस्टिस बोबडे के वक्त भी क्या नहीं चल रही ?

इस बीच प्रवासी मजदूरों पर 9 जून को आदेश जारी करने की बात कहते हुए प्रवासी मजदूरों के मामले पर उच्चतम न्यायालय केंद्र और राज्य सरकारों से कहा कि हम आपको 15 दिन का वक्त देना चाहते हैं, ताकि आप देशभर में फंसे सभी प्रवासी मजदूरों को उनके घर पहुंचा सकें। उच्चतम न्यायालय ने राज्यों से कहा कि जो मजदूर वापस आ रहे हैं, उनके लिए आवश्यक तौर पर रोजगार का इंतजाम किया जाए। सभी राज्यों को रिकॉर्ड पर लाना है कि वे कैसे रोजगार और अन्य प्रकार की राहत प्रदान करेंगे। प्रवासियों का पंजीकरण होना चाहिए।

जस्टिस अशोक भूषण, जस्टिस संजय किशन कौल और जस्टिस एमआर शाह की पीठ ने इन प्रवासी कामगारों की दयनीय स्थिति का स्वत: संज्ञान लिये गये मामले की वीडियो कांफ्रेन्सिंग के जरिये सुनवाई के दौरान अपनी मंशा जाहिर की।

सुनवाई के दौरान केंद्र सरकार ने न्यायालय को बताया कि प्रवासी मजदूरों को घर पहुंचाने के लिए 3 जून तक 4200 श्रमिक स्पेशल ट्रेनें चलाई गईं और करीब एक करोड़ लोगों को उनके मूल निवास स्थान तक पहुंचाया गया है। वहीं निजी अस्पतालों में कोरोना के इलाज में फीस की हाईएस्ट लिमिट क्या है, इसको लेकर न्यायालय ने केंद्र से एक हफ्ते में जवाब दायर करने को कहा है। न्यायालय ने यह बात एक याचिका की सुनवाई के दौरान कही।

जिन चैरिटेबल निजी अस्पतालों को मामूली दामों पर अस्पताल बनाने के लिए जमीन दी गई है, न्यायालय ने उनसे पूछा कि क्या आप कोरोना मरीजों को मुफ्त में इलाज मुहैया करा सकते हैं। न्यायालय ने अस्पतालों से रिपोर्ट मांगी कि क्या आयुष्मान भारत योजना जैसी स्कीम इलाज के दौरान लागू की जा सकती है। इस दौरान सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा कि जो लोग इलाज का खर्च नहीं उठा सकते हैं, उन्हें इस योजना के तहत कवर किया जा रहा है। हमने कदम उठाए हैं। खाना बांटने के लिए भी केंद्र ने सुधारात्मक कदम उठाए हैं। हमसे जो संभव हो सकता है, हम वह कर रहे हैं।

28 मई को इस मामले की सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि ट्रेन और बस से सफर कर रहे प्रवासी मजदूरों से कोई किराया ना लिया जाए। यह खर्च राज्य और केंद्र शासित प्रदेशों की सरकारें उठाएं। स्टेशनों पर खाना और पानी राज्य सरकारें मुहैया करवाएं और ट्रेनों के भीतर मजदूरों के लिए यह व्यवस्था रेलवे करे। बसों में भी उन्हें खाना और पानी दिया जाए। देश भर में फंसे मजदूर जो अपने घर जाने के लिए बसों और ट्रेनों के इंतजार में हैं, उनके लिए भी खाना राज्य सरकारें ही मुहैया करवाएं। मजदूरों को खाना कहां मिलेगा और रजिस्ट्रेशन कहां होगा। इसकी जानकारी प्रसारित की जाए। राज्य सरकार प्रवासी मजदूरों के रजिस्ट्रेशन की प्रक्रिया को देखें और यह भी निश्चित करें कि उन्हें घर के सफर के लिए जल्द से जल्द ट्रेन या बस मिले। सारी जानकारियां इस मामले से संबंधित लोगों को दी जाएं।

गौरतलब है कि कोरोना लॉकडाउन के कारण देश में जहां-तहां फंसे लाखों प्रवासी बसों, श्रमिक स्पेशल ट्रेनों और पैदल अपने घर पहुंच चुके हैं। लेकिन 26 लाख से ज्यादा प्रवासी मजदूर अब भी विभिन्न राज्यों में फंसे हुए हैं। उनमें से केवल 10 फीसदी प्रवासी मजदूर ही सरकारी राहत शिविरों में रह रहे हैं। श्रम एवं रोजगार मंत्रालय के शुरुआती आंकड़ों के मुताबिक विभिन्न राज्यों में अब भी 26 लाख प्रवासी मजदूर फंसे हुए हैं। इनमें से 46 फीसदी अलग-अलग माइग्रेंट क्लस्टरों में रह रहे हैं। 43 फीसदी उसी जगह पर रह रहे हैं जहां वे काम करते हैं। केवल 10 फीसदी ही राहत शिविरों में रह रहे हैं।

आरटीआई कार्यकर्ता वेंकटेश नायक की शिकायत पर केंद्रीय सूचना आयोग के सख्त निर्देश पर ये आंकड़े जारी किए गए हैं। इनके मुताबिक देश में सबसे अधिक 10.58 लाख प्रवासी मजदूर छत्तीसगढ़ में फंसे हैं। केरल में 2.87 लाख, महाराष्ट्र में 2.01 लाख, तमिलनाडु में 1.93 लाख, तेलंगाना में 1.84 लाख और आंध्र प्रदेश में 1 लाख प्रवासी मजदूर फंसे हैं। हालांकि इन आंकड़ों में यह नहीं बताया गया है कि इनमें से किस राज्य के कितने मजदूर हैं। इस जानकारी के मुताबिक छह राज्यों तमिलनाडु, पंजाब, त्रिपुरा, अरुणाचल प्रदेश, मेघालय और सिक्किम में सरकारी राहत शिविरों में एक भी प्रवासी मजदूर नहीं है।

दरअसल पहले तो मोदी सरकार ने बिना तैयारी के लगाया और प्रवासी मजदूरों के पलायन को ठीक से समझ ही नहीं पाई। अब जब स्थिति गम्भीर होती गयी तब वो पूरे मामले की लीपा-पोती  करने की कोशिश कर रही है। गृह मंत्री अमित शाह अपने कई टीवी इंटरव्यू में सरकार की नाकामियों पर नई कहानियां ही सुनाते नजर आए। उन्होंने दावा किया कि शुरुआत में प्रवासी मजदूरों के पलायन पर प्रतिबंध लगाया गया था। इसके बाद सरकार ने पूरी तैयारी और प्लानिंग के साथ उन्हें एक मई से उनके घर जाने की मंजूरी दी। गृह मंत्री शाह के विश्वास से भरे इन दावों के ठीक उलट सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने सुप्रीम कोर्ट में अलग ही कहानी बयां की। उन्होंने 31 मई को सुप्रीम कोर्ट में बताया कि मजदूरों के बड़े पैमाने पर पलायन ने सरकार को भी आश्चर्य में डाल दिया था।

ठीक इसी तरह की बात उच्चतम न्यायालय में दाखिल की गई स्टेटस रिपोर्ट में भी की गई। इस रिपोर्ट पर केंद्रीय गृह सचिव अजय कुमार भल्ला के हस्ताक्षर हैं।रिपोर्ट में कहा गया कि सरकार को उसके नियंत्रण वाले अलग-अलग संसाधनों की मदद से अचानक से बड़ी संख्या में सड़कों पर आए लोगों को खाना उपलब्ध कराना था। इसके लिए सरकार ने जेलों की किचन, मिड-डे मील वेंडर्स, आईआरसीटीसी आदि को तैयार किया था। इसके अलावा एनजीओ और कई धार्मिक संस्थाओं की भी मदद ली गई, लेकिन सरकार को जरा भी अंदाजा नहीं था कि इतने बड़े पैमाने पर पलायन देखने को मिलेगा।

 (कानूनी मामलों के जानकार वरिष्ठ पत्रकार जेपी सिंह की रिपोर्ट।)

जेपी सिंह
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