राकेश सिंघा : मज़दूरों के हक़ में पिता से लड़ जाने वाला सरकारों को क्या छोड़ेगा!

मनु पंवार

हिमाचल में रहकर हम अक्सर ज़िक्र करते थे कि ये कॉमरेड राकेश सिंघा इतने लड़ाका लीडर हैं, इनको तो पार्लियामेंट या विधानसभा में होना चाहिए। आज सिंघा शिमला ज़िले की ठियोग सीट से विधायक चुने गए हैं।

 

सीपीएम नेता राकेश सिंघा ने बीजेपी और कांग्रेस दोनों को चित कर दिया। ये भांपने-जानने-समझने के बावजूद कि हिमाचल में बीजेपी सरकार के आसार हैं, वोटरों ने सिंघा पर भरोसा जताया। उन्हें अपना नुमाइंदा चुना।

वैसे कॉमरेड सिंघा पहली बार महज 37 बरस की उम्र में शिमला सीट से 1993 में विधायक चुने गए थे। तब उनकी जीत से SFI, DYFI, CITU जैसे कमिटेड काडर को और ताकत मिली। बाद में शिमला नगर निगम में डायरेक्ट चुनाव में CPM के मेयर और डिप्टी मेयर (संजय चौहान और टिकेंद्र पंवर) भी चुने गए थे। बाकी सारे पार्षद बीजेपी और कांग्रेस के थे लेकिन सिंघा की यह विधायकी छात्र जीवन के एक केस पर कोर्ट के फैसले की वजह से आगे नहीं बढ़ पाई। उन पर कुछ साल के लिए चुनाव लड़ने पर पाबंदी लगी रही। 2012 में वे फिर चुनाव में उतरे और ठियोग सीट से 10 हजार से ज्यादा वोट हासिल किए, लेकिन उन्हें जीत इस बार मिली। चौबीस हज़ार से ज्यादा वोट मिले।

 

सिंघा साहब की संघर्ष यात्रा हिमाचल में किस्से-कहानियों का हिस्सा है। उनसे कोई अपरिचित नहीं है। हिमाचल के सरोकारों और जनाधिकारों की लड़ाई में सिंघा साहब बड़ा और सम्मानित नाम हैं। वे प्रतिरोध की बड़ी और विश्वसनीय आवाज़ भी हैं।

ऐसा जुझारू, ऐसा जुनूनी, ऐसा फाइटर, ऐसा ज़बर्दस्त लीडर आज के दौर में कम ही देखने को मिलते हैं।

यूं तो राकेश सिंघा एक बहुत समृद्ध परिवार से आते हैं। वे देश के हाईप्रोफाइल स्कूलों में शुमार लॉरेंस स्कूल सनावर में पढ़े हैं। ये वो स्कूल है जहां देश की कई बड़ी हस्तियों ने शिक्षा हासिल की। कई नामी फिल्मी सितारों का ये पसंदीदा स्कूल रहा है। सुनील दत्त साहब ने भी अपने बच्चे यहीं पढ़ाए थे। लेकिन सिंघा ने काम ग़रीबों- मज़दूरों के बीच किया। उन्हीं के बीच रहे। लड़ाई उनके हक़ के लिए लड़ी।

आज कोई भी ये बात सुनकर हैरान होगा, लेकिन राकेश सिंघा ने अपना पहला आंदोलन अपने पिता के खिलाफ ही शुरू किया था। सिंघा शिमला ज़िले की सेब बेल्ट कोटगढ़ इलाके के रहने वाले हैं। उनकी पहली लड़ाई अपने घर से शुरू हुई। वो अपने पिता के सेब बागानों में काम करने वाले मज़दूरों की आवाज़ बने। 

मज़दूरों की दिहाड़ी बढ़ाने के लिए उन्होंने पिता के ही ख़िलाफ़ मोर्चा खोल दिया था। नारे लगवा दिए। हड़ताल करवा दी। आखिरकार अपने पिता से मजदूरों को वाजिब हक दिलाने में सिंघा कामयाब भी रहे।

जिन सिंघा ने न्याय की खातिर अपने पिता के ख़िलाफ़ भी मोर्चा खोलने से परहेज़ नहीं किया, वो किसी सरकार को क्या बख्शेंगे।

देश-प्रदेश के सदनों में राकेश सिंघा जैसी दमदार आवाज़ें होनी आज बहुत ज़रूरी हैं।

(लेखक मनु पवार एक पत्रकार हैं।)

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