आज की सुबह पहले जैसी न थी, हवाओं में खून से सनी गंध महसूस की जा सकती थी

चालीस साल की बसासत का एक शांतिप्रिय शहर पल भर में तहस नहस हो जाता है। 28 लोगों के खून से सनी मेरे इस खूबसूरत शहर की मिट्टी का दर्द क्यों कोई जाने। उन्हें बस जुमलेफेंकने आते हैं। अजीबो-गरीब तर्क देने आते हैं। वे कुर्सी पर काबिज रह कर भी जवाबदेही से बचना चाहते हैं। प्रश्न गहरे हैं और हमारी बेचैनियां उस से भी ज्यादा गहरी हैं। क्योंकि उन प्रश्नोंके उत्तर हमारे पास नहीं हैं।  हमने एक अरसे से एक आदत बना रखी है कि धर्म और संस्कृति से जुड़े सवालों को हम या तो अंधभक्ति से सुलझाना चाहते हैं या राजनेताओं की बिसात परबिछी शतरंज की चालों के द्वारा। दोनों तरीकों से प्रश्न और उलझते हैं।  हम और अकेले हो जाते हैं। संस्कृति के मानवीय मूल्य तक हमारा साथ छोड़ने की हद तक चले गए दिखाई देते हैंऔर हमारे साथ जो खेल खेला जा रहा होता है उसके नायक या तो व्याभिचारी बाबा होते हैं या भ्रष्ट राजनेता। इन दोनों की मिलीभक्त से मेरे प्रिय शहर का जो हाल हुआ उसे मैंने अपनीआँखों से देखा। इन आँखों में अब आंसू भी नहीं हैं। आँखे बस घूर रही हैं अजनबी हो गयी मानवीय संवेदनाओं को। किस के पास इसका उत्तर है?

मन बहुत आहत है…

कल के घटनाक्रम से मन आहत है। आज की सुबह पहले जैसी न थी। हवाओं में खून से सनी गंध महसूस की जा सकती थी। अखबारों के पन्ने बलात्कारी बाबा और नकारा सरकार की कारगुजारियों को प्रमुखता से उजागर कर रहे थे। मीडिया की सक्रियता और उच्च न्यायालय का दखल न होता तो शायद हालात पर काबू पा लेना  बहुत ही मुश्किल रहता । आख़िर धारा 144 लगी होने के बावजूद दो लाख से अधिक लोग जैसे जुट गए? शासन की मिलीभगत और पुलिस की अनदेखी का प्रमाण तो शिक्षा मंत्री के बयान से साफ हो ही जाता है जो उन्होंने एक टीवी चैनल को दिया। उन्होंने कहा कि हम  खाना भीसप्लाई कर रहे है और पानी भी सप्लाई कर रहे है और डेरा प्रेमियों पर धारा 144 नही है । तो क्या यह धारा 144 पंचकूला के बाशिंदों पर लगी थी? अभी कुछ दिन पहले यही मंत्री बाबा के डेरे पर जाकर  सरकारी खजाने से 51 लाख का चेक देकर आए थे। और फिर आठ सौ गाड़ियों का काफ़िला सच को रौंधते हुए हमारे इस शांतिप्रिय शहर की ओर बेखौफ बढ़ा चला आया और आस्था के भ्रमजाल में फंसेभोले भाले डेरा प्रेमियों को कवच की तरह प्रयोग किया गया जिनमें बच्चे औरते और बेरोजगार नवयुवक शामिल थे। डेरा प्रबन्धकों ने यह कैसा स्वांग रचा क्या शासन को इसकी खबर न थी? जो 28 लोग मरे हैं और शहर को तहस नहस करने की जवाबदेही से व्याभिचारी बाबा और प्रशासन को कैसे अलग किया जा सकता है? लेकिन नैतिकता तो मानों इन सभी लोगों ने बेच खाई है ।

हर कोई पूछ रहा था…ठीक हो?

कल बहुत से मित्रों शुभचिंतकों के फोन और सन्देश आये। सभी को पंचकूला के हालात और हमारी व्यक्तिगत सुरक्षा की चिंता थी। सभी मित्रों का तहेदिल से शुक्रगुजार हूँ। मित्र अनिल विश्रान्त ने अपनीसंवेदना एक कविता के माध्यम से अभिव्यक्त किया हैं। जिसे यहाँ साझा कर रहा हूँ।

पंचकूला से मेरे लिए आती हैं

बंडल भर किताबें

जब उन्हें मैं खोलता हूँ

थोड़ा-सा खुलता है पंचकूला भी

मेरी हथेली पर

मैं स्पर्श करता हूँ किताबों की जिल्द

तो दरअसल छू रहा होता हूँ पंचकूला के देश जी का स्नेह

आज भयभीत हूँ पंचकूला को देखकर

जहाँ नई किताबों की खुशबू नहीं

टायर जलने की दुर्गंध से अटा पड़ा है पंचकूला

उन्माद का अट्टहास है

अविवेकी मस्तिष्कों का पागलपन

और असंख्य भटके पैरो की धमक

से लहूलुहान है पंचकूला 

(लेखक प्रतिष्ठित साहित्यकार हैं और प्रसिद्ध आधार प्रकाशन, पंचकूला के निदेशक हैं। आप पंचकूला में ही रहते हैं।)

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