तुम तोड़ोगे, हम जोड़ेंगे !!

76 वर्षीय मोहम्मद इलियास कहते हैं कि “बाबू हमें कुछ नहीं चाहिए और ना ही सरकार से हम कोई दौलत मांगते हैं, बस हमें ज़मीन का छोटा सा टुकड़ा दिला दें, हम उसी पर अपने बच्चों के साथ सुखी ज़िंदगी गुज़ार लेंगे”। मोहम्मद इलियास पिछले दो दशकों से दक्षिण-पूर्वी दिल्ली के बटला हाउस स्थित धोबी घाट झुग्गी झोपड़ी में रहते हैं। वह दोनों आंखों से नहीं देख सकते। परिवार में उनके अलावा कुल तेरह अन्य सदस्य हैं। पिछले साल सितंबर – अक्तूबर महीने में डीडीए ने इस इलाक़े के क़रीब 200 झुग्गी झोपड़ियों को तोड़ कर गिरा दिया था। जिसकी वजह से 700 झुग्गी झोपड़ी निवासियों को बेघर होना पड़ा था।

शबाना बेगम और उनके 45 वर्षीय पति इक़रार हुसैन बताते हैं कि “दिन का पहर था, हम मज़दूरी करने के लिए बाहर गए हुए थे, घर में केवल बच्चे थे। इसी दौरान डीडीए के लोगों ने झोपड़ियों को उजाड़ दिया। हमने अपनी बेटियों की शादी के लिए जो कुछ भी संजोए थे सब के सब मलबे में तब्दील हो गए। कुछ नहीं बचा।” शबाना रुंधी आवाज़ में आगे कहती हैं कि “आपा – धापी की हालत में हमने कुछ सामानों को बचाने की कोशिश की भी तो कुछ हासिल ना हुआ। नतीजतन इस दौरान पति इकरार के पैर की नस कट गई। मरहम पट्टी कराने तक के लाले पड़ गए।”

“हमारे पास कुछ बकरियां थीं, मुर्गियां थीं, बत्तख़ थे, वो भी मलबे के ढेर में ख़ून ए ख़ून हो गए। बकरियों से कुछ दूध हो जाया करता था। अंडों को हम बाज़ार में बेच आते थे। सर्दियों में बच्चों को खिला देते थे। अब तो वो भी नहीं है”, शबाना ने कहा। इक़रार और शबाना के दो मासूम बच्चियां हैं। एक की उम्र दस साल है तो दूसरे की पंद्रह। बच्चे लॉकडॉन से पहले स्कूल जाते थे। फिलहाल ऑनलाइन पढ़ाई चल रही है। कई दिनों तक बच्चे पढ़ाई से बिल्कुल दूर रहे। इक़रार कहते हैं कि “जब हमें बच्चों के भविष्य की चिंता सताने लगी तो क़र्ज़ लेकर हमने स्मार्ट फोन खरीदा, ताकि बच्चे पढ़ सकें”। बातचीत के दौरान इक़रार ने अपनी जेब से डेढ़ सौ रुपए निकाल कर कहा, “सर ये मेरी आज की कमाई है, इसमें कैसी ज़िंदगी हम गुज़ारते होंगे आप ही अंदाज़ा लगा लीजिए”।

जहांगीर और उसका परिवार भी इस बदहाल ज़िंदगी का शिकार है। जहांगीर कहते हैं कि “जब से डीडीए द्वारा झुग्गियों को तोड़ने का काम किया गया तब से ही साफ़ पानी की समस्या पैदा हो गई है। पानी टैंकरों को इस इलाक़े में आने नहीं दिया जाता है। हमने मिलकर चापाकल लगवाने का सोचा, लेकिन फिर यही ख़्याल सताने लगा कि जब हम ही सुरक्षित नहीं हैं तो ये चापाकल किस काम का। शौचालय की अलग समस्या है। भर पेट खाना खाए महीनों हो गए। बिजली काट दी जाती है। कभी- कभी तो हमें अंधेरे में ही रात गुज़ारनी पड़ती है”।

जहांगीर नए सिरे से बनी झुग्गियों को दिखाते हुए आगे बढ़ते हैं और कुछ ज़मीन के ख़ाली टुकड़ों की तरफ इशारा करते हुए कहते हैं कि “झोपड़ियां उजड़ने से पहले हम वहां रहते थे। उस जगह पर अब सात फुट नीचे तक गड्ढा कर दिया गया है। साथ – साथ उसमें पानी भी भर दिया गया है, ताकि हमारे लिए उस जगह पर रहने की कोई गुंजाइश ही न बचे।” जहांगीर आगे बताते हैं कि “डीडीए ने जब तोड़फोड़ का काम शुरू किया उससे पहले यहां क़रीब दो सौ झुग्गियां थीं, अभी लगभग साठ बची हैं। जिनकी कुछ आमदनी थी वह लोग किराए के मकान में रहने लगे, तो कुछ अपने पुश्तैनी घर बिहार, यूपी और बंगाल चले गए। हमारे पास कोई ज़मीन नहीं है। जो है बस यही एक सहारा है। जिसे भी हमसे छीना जा रहा है।”

शबाना बताती हैं कि हम सब ने मिलकर इसकी शिकायत पुलिस थाने में की, लेकिन हमें वहां कहा गया कि ये सरकारी मामला है। इसके बाद “झुग्गी झोपड़ी अधिकार मंच”, जिसे महिलाएं मुख्य रूप से संचालित करती हैं, स्थानीय विधायक “अमानतुल्लाह खान” के पास गए। उन्होंने मिलने से इंकार कर दिया। बहुत कोशिश करने पर उनके प्रतिनिधियों ने कहा कि आप इलेक्शन के कागज़ात लेकर आएं। हम उनके पास वोटर आईडी, आधार कार्ड, राशन कार्ड जैसे दस्तावेज़ अपनी जमीनी पहचान के तौर पर लेकर गए। उन्होंने हमें कुछ दिनों तक के लिए “रैन बसेरा” में स्थानांतरित करने की बात कही। हम लोगों ने पूर्ण रिहाइश की मांग की है। उसका जवाब अब तक नहीं मिला है। पाँच महीने बीत चुके हैं। डीडीए व पुलिस अधिकारी रोज़ नए सिरे से बने झुग्गियों को तोड़ने के लिए आ जाते हैं। शबाना सरकार और प्रशासन को चुनौती देते हुए कहती हैं कि “तुम तोड़ोगे, हम जोड़ेंगे”।

लोगों की शिकायत मुख्यमंत्री “अरविंद केजरीवाल” से बस इतनी है कि उन्होंने जब चुनावी रैलियों में कहा था “जहां झुग्गी वहां मकान”, तो अब उन वादों को वह क्यों भूल गए।

अफ़ज़ाल रब्बानी
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अफ़ज़ाल रब्बानी