झारखंड की सरकारें बनीं पावर ब्रोकर के हाथों की कठपुतली

रांची। झारखंड बनने के 22 वर्षों के दौरान किसी भी राजनीतिक दल की सरकार रही हो, पावर ब्रोकर के द्वारा सिर्फ झारखंड को लूटने की पृष्ठभूमि पर सरकारें काम करती रही हैं। यह वृति झारखंड के लिए नासूर बन गई है। झारखंड को इस स्थिति से सिर्फ ईमानदार, समर्पित, स्पष्ट दृष्टिकोण वाले जवाबदेह युवा ही निजात दिला सकते हैं। यह निहायत ही दुर्भाग्यपूर्ण है कि राज्य बनने के 22 वर्षों में किसी भी सरकार की प्राथमिकता में झारखंड की जनता नहीं रही। सारी सरकारें पावर ब्रोकर के हाथों कठपुतली बनकर ही काम करती रहीं और झारखंड को ‘लूटखंड’ बना दिया। इसके लिए झारखंड की जनता भी जिम्मेवार है।

आज भी झारखंड के कथित बुद्धिजीवी अपने को राजनीति से अलग रखते हैं। वे सिर्फ नायक फिल्म के अंदाज में सरकार की आलोचना करना ही अपनी जिम्मेदारी समझते हैं। वे बेहतर विकल्प बनने की दिशा में आगे बढ़ते दिखाई नहीं देते हैं। और अगर किसी प्रतिष्ठित सरकारी प्रतिष्ठान में नौकरी कर रहे हों, तो वे अपने और परिवार को भौतिक संसाधनयुक्त बनाकर सोचते हैं कि बहुत बड़ी उपलब्धि हासिल कर ली है।

अधिकतर लोग यह भूल जाते हैं कि रक्षण के सिद्धांत के तहत उनकों जो अवसर मिला है उसमें जाति समाज की ऐतिहासिक भूमिका है। उनकी भी महती जिम्मेदारी बनती है कि जाति समाज के ऋण को चुकाएं। वैसे लोग संसाधन युक्त हैं पर जाति और समाज के लिए त्याग करने की भावना उनमें शून्य के बराबर है। पर कब तक ऐसे चलेगा?

क्या किसी भी सरकार को हम अपने मत देकर राज्य के संसाधनों को लूटने का लाइसेंस देते हैं? अगर नहीं तो हमें अपने नागरिक दायित्व के तहत महती भूमिका निभाने के लिए तैयार होना होगा। खासकर झारखंड में झारखंडियों के भावनाओं को उभार कर हमारे साथ सभी दल निरंतर खिलवाड़ कर रहे हैं। सत्ता में आने के बाद विशाल चौधरी जैसे पावर ब्रोकर के हाथों नेता अपने को गिरवी रख देते हैं।

चुनाव के समय सभी राजनीतिक दल घोषणापत्र तैयार करते हैं। उसमें जनता को लुभाने वाले मुद्दे शामिल रहते हैं। खासकर झामुमो जैसे झारखंडी नामधारी राजनीतिक दल झारखंड के आदिवासी-मूलवासियों को अधिक गुमराह करते हुए दिखाई देते हैं।

झामुमो और महागठबंधन दल के नेतागण चुनाव के समय बडे़-बड़े वादे किए। वे बार-बार कहते रहे कि झारखंड के आदिवासी-मूलवासियों को राज्य की नौकरियों में समुचित प्रतिनिधित्व के लिए 1932 का खतियान आधारित स्थानीय व नियोजन नीति का निर्धारण करेंगें। उसी घोषणा के आधार पर झारखंडियों ने महागठबंधन को सत्ता सौंपी।

मुख्यमंत्री बनने पर हेमंत सोरेन ने स्वयं ही विधानसभा के पटल पर कहा था कि 1932 के खतियान के आधार पर स्थानीय नीति नहीं बन सकती, क्योंकि कोर्ट रोक लगा देगा। जिसके बाद झामुमो के विधायक लोबिन हेंब्रम ने सदन से लेकर सड़क तक प्रतिवाद किया। विरोध को देखते हुए मुख्यमंत्री ने आनन-फानन में 1932 के खतियान के आधार पर स्थानीय व नियोजन नीति निर्धारण करने संबंधी प्रस्ताव को विधानसभा से पारित कर राज्यपाल के पास भेज दिया। जिसमें कहा गया पारित बिल को नवीं अनुसूची में शामिल कराना है। ताकि कोर्ट में स्थानीय व नियोजन नीति को कोई भी अभ्यर्थी चुनौती न दे सकें। जबकि खंडपीठ के द्वारा नवीं अनुसूची के मामले पर भी पुनर्विचार किया जाता है।

इसके बाद मुख्यमंत्री खतियान जोहार यात्रा के दौरान झारखंड की जनता के भावनाओं को उभारने के लिए भाषण में कहते हैं कि 1932 की खतियान की जो बात करेगा वही झारखंड में राज करेगा। झारखंड सरकार द्वारा पारित इसी बिल के विरोध में पूर्व मुख्यमंत्री मधु कोड़ा कोल्हान की खूंटकट्टी 1914 की टाकी सेटेलमेंट का विरोध करते हुए कहते हैं कि 1964 के खतियान को शामिल नहीं किया गया तो कोल्हान जलेगा। जबकि वे भी महागठबंधन सरकार के हिस्सेदार हैं। इस तरह से महागठबंधन की सरकार बेरोजगारों की भावनाओं के साथ खिलवाड़ कर रही है। और अब जब कोर्ट 1932 के खतियान आधारित स्थानीय व नियोजन नीति को असंवैधानिक करार दिया, तो झारखंड सरकार कहती है कि 2016 के पूर्व जो स्थानीय या नियोजन नीति बनी थी उसी नीति के आधार पर नियुक्ति प्रक्रिया पूर्ण की जाएगी।

अब सवाल उठता है कि 2016 के पूर्व निर्धारित स्थानीय या नियोजन नीति के आधार पर ही सरकार को नियुक्ति प्रक्रिया पूर्ण करना था तो 1932 की खतियान के आधार पर नीति निर्धारण करने में क्यों समय गवाएं? झारखंड सरकार झारखंड के पढ़े-लिखे शिक्षित बेरोजगारों और जनता को श्वेत पत्र जारी कर सार्वजनिक तौर पर बताए, कि सरकारें बार-बार सिर्फ राजनीतिक लाभ के लिए क्यों ऐसे नीति का निर्धारण करती है जिसका बचाव सरकारी वकील भी नहीं कर पाते?

झारखंड की वर्तमान सरकार ने चुनाव जीतने के लिए जो वादे किए थे उसमें से कोई भी घोषणा को पूरा नहीं कर सका। अलग झारखंड राज्य के लिए लड़ मरने वाले झारखंड आंदोलनकारियों को इस सरकार ने सम्मान नहीं दिया। आदिवासी- मूलवासियों को विस्थापित करने वाले बड़े-बड़े कुजू जैसे बांधों को रद्द करने की कसम खाने के बाद भी सरकार में आते ही वे मुकर गए। किसी भी झारखंडी भाषा को राजभाषा का दर्जा नहीं दिया। और न ही विश्वविद्यालय और महाविद्यालय में मान्यताप्राप्त आदिवासी और क्षेत्रीय भाषाओं को सुरक्षित और संवर्धित करने के लिए भाषा विभाग की स्थापना कर पाई।

विश्वविद्यालय में स्थापित आदिवासी और क्षेत्रीय भाषा विभाग के पद भी रिक्त है। उस रिक्त पद पर प्रोफेसर, असिस्टेंट प्रोफेसर और शिक्षणेत्तर कर्मचारियों की नियुक्ति नहीं करा सकी। सेवानिवृत व्याख्याता या अस्थायी कर्मचारियों द्वारा किसी तरह से उल्लेखित भाषा विभाग को जीवित रखा गया है। सरकार ने कई बार नियुक्ति वर्ष घोषित किया पर राज्य सरकार के विभिन्न विभाग के सेवाओं में नियुक्तियां नहीं करा सकी। राज्य में पदस्थापित नौकरशाह सरकार को हाईजैक कर तकनीकी उलझन में उलझा रखे हैं। राज्य के पड़े-लिखे बेरोजगारों को राज्य में स्थापित पब्लिक और प्राइवेट कंपनियों में 75 प्रतिशत नौकरियों में प्रतिनिधित्व देने के नोटिफिकेशन भी हवा-हवाई ही साबित हुई।

पेशा कानून को अक्षरश: या राज्य की सामाजिक पारंपरिक स्वशासन व्यवस्था के अनुरूप लागू करने में सरकार विफल रही। आदिवासी उपयोजना की राशि खर्च नहीं कर सकी। यही वजह है कि खतियान धारी झारखंडी बेरोजगार युवक-युवतियां, किसान, मजदूर अन्य राज्यों में पलायन कर अभिशप्त जीवन जीने के लिए विवश है। और अब राष्ट्रीय स्तर पर झारखंडियों की पहचान सबसे सस्ता मजदूर देने वाले राज्य के रूप में स्थापित हुई है। जबकि देश की 40 प्रतिशत खनिज संसाधन सिर्फ झारखंड में व्याप्त है। जिसका दोहन उपनिवेशवाद की तरह दिन रात की जा रही है। इसके लिए पूरी तरह से राज्य सरकार ही जिम्मेदार है।

रोजगार मेला के माध्यम से झारखंडियों की नियुक्तियां दूसरे राज्यों की कंपनियों और एजेंसियों में की जा रही है। ताकि प्रवासियों को झारखंड की अकूत संसाधन का आनंद लेने के लिए अवसर प्राप्त हो सके। यह सारा खेल प्रवासी नौकरशाह के द्वारा खेला जा रहा है। यह अंग्रेजी हुकूमत से भी अधिक कुटिल और खतरनाक है। कम से कम अंग्रेजी हुकूमत इतनी तो ईमानदार रही कि झारखंडियों के विद्रोह का इतिहास ब्रिटेन की लाइब्रेरी में आज भी उपलब्ध है। वरना देश आजादी के बाद तो अभिजात्य विचारधारा से ग्रसित इतिहासकारों ने हमारे गौरवशाली इतिहास को विकृत करने का ही काम किया है। और अब तो झारखंडी मूल के मुख्यमंत्री ही उपनिवेशी लोगों के साथ मिलकर राज्य के खनिज संसाधन को लूटने के कुकृत्य में संलिप्त है। क्या महागठबंधन की झारखंड सरकार झारखंडी जनता को बताने का कार्य करेगी कि आखिर कौन है पावर ब्रोकर विशाल चौधरी?

जागो झारखंड के भूमि पुत्रों जागो, तिलका मांझी, बिरसा मुंडा, पोटो हो, सिदो कान्हु, चांद भैरव, गंगा नारायण सिंह, नीलांबर पीताम्बर, शेख भिखारी, टिकैत उमराव सिंह, तिलंगा खड़िया, बुधु भगत, मरांग गोमके, जयपाल सिंह मुंडा, बागुन सुंबरूई, एन ई होरो, नरेन हांसदा, विनोद बिहारी महतो, निर्मल महतो सहित हजारों सैकड़ों महापुरुषों ने झारखंड की विलग भौगोलिक भूभाग, सह अस्तित्व वाली विशेष संस्कृति में निवास करने वाले झारखंडी, उनकी भाषा, विशेष सामुदायिक, सामाजिक पारंपरिक स्वशासन प्रणाली, वन संपदा, खनिज संपदा को बृहत झारखंड के सपने के रूप में संजोया था।

आदिवासी मूलवासियों की आध्यात्मिक मान्यता के आधार पर उन पूर्वजों की आत्मा झारखंड की सरकारों की कार्यसंस्कृति और जनता के प्रति गैरजिम्मेदार रवैए को देखकर खून के आंसू रोते होगें! लेकिन हम सरकार और एक दूसरे पर दोषारोपण करने में ही अपनी ऊर्जा को विसर्जित करते रहेंगे। बेहतर विकल्प बनने के लिए आगे आएं। इस काम को आप युवा वर्ग ही कर सकते है। क्योंकि आपके पास ऊर्जा है भविष्य है, आने वाले पीढ़ी के लिए कुछ कर गुजरने का अवसर है। आप इस चुनौती को स्वीकारें और आगे बड़े।

(सन्नी सिंकु झारखंड पुनरुत्थान अभियान के संयोजक हैं।)

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  • काफी अच्छा विचार विमर्श आप के चैनल से हमें अच्छी बातें सीखने को मिलता है।

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