आदिवासी-दलित और गरीब की नहीं तो सरकारी जमीन किसकी?

28 दिसम्बर, 2022 को ओवरब्रिज, रांची के नीचे बसी बस्ती (लोहरा कोचा) को रेलवे विभाग द्वारा अतिक्रमण हटाने के नाम पर जमींदोज कर दिया गया, जिसके बाद वहां बसे लगभग 40 दलित-आदिवासी-पिछड़े व मेहनतकश परिवार बेघर हो गए। इस तबाही के एक सप्ताह बाद भी अधिकांश परिवार वहीं या रोड के किनारे खुले आसमान के नीचे ठण्ड में रह रहे हैं। इस तोड़फोड़ के बाद 10 जनवरी 2022 को प्रभावित लोगों ने उपायुक्त, रांची को एक पत्र देकर घरों को तोड़ कर बेघर हुए लोगों को पुनर्वास व मुआवजे की मांग की। उपायुक्त ने एक तरफ तो यह कहते हुए कि रांची में जमीन बहुत महंगी है, अपना पल्ला झाड़ दिया। वहीं यह कहा कि अगर गरीब आदिवासी-दलित की नहीं तो सरकारी जमीन किसकी? उपायुक्त का यह कथन कई सवाल खड़ा करता है, जिस पर कौन विचार करेगा?

कहना ना होगा कि आज़ादी के 75 साल बाद भी देश की अधिसंख्य जनता को सिर के ऊपर छत भी नसीब नहीं हो पाया है। यही कारण है कि सिर छिपाने और रोजगार को लेकर उन्हें खाली पड़ी सरकारी जमीन को अतिक्रमण कर सिर छिपाना पड़ता है। काफी दुखद यह है कि कई पीढ़ियां बीत जाने के बाद भी उन पर प्रशासन डंडा चलाकर उस जमीन को अतिक्रमण मुक्त कर लेता है। जबकि उनके पास सरकारी दस्तावेज भी होते हैं, मसलन आधार कार्ड, वोटर कार्ड, राशनकार्ड वगैरह जिसमें उस क्षेत्र का ही पता होता है। मतलब कि वहां के लोग वोट देकर सरकार बनाने में भी भूमिका निभाते हैं। तब उपायुक्त का कथन कि “अगर गरीब आदिवासी–दलित की नहीं तो सरकारी जमीन किसकी?”

बस्ती तोड़ने से पहले रेलवे की नोटिस पर पक्ष-विपक्ष के कई नेताओं ने बस्ती के लोगों के साथ मीटिंग कर उन्हें आश्वासन भी दिया था कि बिना वैकल्पिक व्यवस्था के उनके घरों को तोड़ने नहीं दिया जाएगा। लेकिन बस्ती टूटने के दिन से उन सभी नेताओं का रुख बदल गया है। वे लोग इस कड़कड़ाती ठंड में खुले आसमान के नीचे रहने को मजबूर इन लोगों को देखने तक नहीं आए। शायद उन्हें आभास हो गया है कि अब वे लोग इनके किसी काम के नहीं रह गए हैं क्योंकि जब वे वहां रहेंगे नहीं तो इन राजनीतिक लोगों को वोट कौन देगा।

कहना ना होगा कि ठण्ड के समय गरीबों को बेघर करना रेलवे व प्रशासन के अमानवीय चेहरे को उजागर करता है। एक ओर राज्य के सत्ताधारी दल व विपक्ष आदिवासी-दलित-पिछड़े अस्तित्व व गरीबों के नाम की राजनीति करने में पीछे नहीं रहते और वहीं दूसरी ओर ठण्ड में बेघर हुए गरीब आदिवासी-दलित-पिछड़ों के लिए कोई सामने नहीं आया। इन परिवारों की स्थिति ने फिर से 2022 तक सभी परिवारों को पक्का मकान मिलने के प्रधान मंत्री के वादे के खोखलेपन को उजागर किया है।

(झारखंड से वरिष्ठ पत्रकार विशद कुमार की रिपोर्ट।)

विशद कुमार
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