आंदोलन में शामिल होने भर से बहुत कुछ बदल जाता है

इलाहाबाद में रोशन बाग़ का मंसूर अली पार्क। यहां कल तक अंबेडकर और गांधी जी थे, आज यहां भगत सिंह, अशफ़ाक उल्ला खां, बिस्मिल, अबुल कलाम आज़ाद भी आ पहुंचे थे। सभी हल्का हल्का मुस्कुरा रहे थे। फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ तो खैर CAA NRC NPR के खिलाफ चलने वाले आंदोलन का न अलगा सकने वाला हिस्सा बन चुके हैं। 

‘इन आंदोलनों से क्या होगा?’ इसका जवाब आज के अनुभव से अच्छे से दिया जा सकता है। इसका ये जवाब तो है कि जिस बात के लिए आंदोलन है, वो हासिल हो सकता है, लेकिन इसके और बहुत से पहलू हैं। पार्क में ऐसे कई बच्चे और किशोर दिख जाएंगे, जो माइक पर अपनी कविता या किसी दूसरे की लिखी कविता सुनाने की तैयारी करते दिख जाएंगे। इस मौके पर सुनाने के लिए बच्चे कुछ न कुछ लिख रहे हैं।

शगुफ्ता अंजुम अपनी सहेलियों के बीच अपनी कविता सुनाने की रिहर्सल कर रहीं थीं, थोड़ी देर में उन्हें माइक पर बुलाया जाना था। मैंने भी सुना, फिर थोड़ा झिझक कर कहा, “नक़ाब हटाकर सुनाओ न।” थोड़ा शरमाते हुए सहेलियों के कहने पर उन्होंने नक़ाब हटा दिया और अपनी रचना रिकॉर्ड कराई, उन्होंने तय किया था कि कविता के अंत में नारा भी लगाना है, सो सहेलियों के साथ उसका रियाज़ भी किया।

उमर मुश्ताक का भी बहुत मन कर रहा था कि वे भी माइक पर कुछ सुनाएंगे, अम्मी अब्बू से कहा तो उन्होंने फ़ैज़ की नज़्म ‘हम देखेंगे’ लिख कर दी। उमर ने बहुत संजीदगी के साथ उसे माइक हाथ में लेकर पढ़ा, लोगों ने तालियों के साथ उनका साथ दिया। फिर वे गदगद होकर भागे, और दोस्तों को गर्व से भर कर देखा। और कई बच्चे अपना नाम लिखा चुके थे, और अपनी बारी का इंतजार कर रहे थे। भाषण उन्हें बोर कर रहे थे, लेकिन नारे अच्छे लगते हैं। वे उछल कर हाथ उठाकर मुट्ठी तानकर नारे में अपना सुर मिलाते हैं।

कुछ बच्चियों ने अपने चेहरे पर रंग से तिरंगा झंडा बनाया हुआ है, बाकी कईयों का मन बनाने को ललचा रहा है। एक झुंड ने मेरे पास आकर पूछा, “हमको भी चेहरे पर झंडा बनाना है, कहां बन रहा है?” मैंने उनकी मदद के लिए वालंटियर से पूछा, तो उन्होंने बताया सब घर से बना कर आए हैं, बच्चियों का चेहरा उतर गया, मैंने उनसे कहा, “अच्छा मैं कल रंग लाकर बना दूंगी”, लेकिन उन्हें तो अभी ही बनाना था। 

एक बच्ची से मैंने पूछा कि झंडा किसने बनाया चेहरे पर? उसने बताया, “मैंने।” मैंने उसे बताया कि उसने झंडा उल्टा बना लिया है, तो मुंह पर हाथ रखकर हंस पड़ी और भाग गई। इतने तिरंगे झंडे देख कर एक लड़का अपने दोस्त से कह रहा है, “यार 26 जनवरी वाली फीलिंग आ रही है।”

कई लड़कियों से पूछा, यहां आने के लिए घर में किसी ने मना नहीं किया? उन्होंने बताया, “नहीं, अम्मी अब्बू सभी आए हैं।” सालेहा जी आज अपनी 9वीं में पढ़ने वाली बेटी को लाने में कामयाब रहीं, उनका कहना है, उसे ये सब भी सीखना चाहिए, सिर्फ पढ़ना ही काफी नहीं। शाहिना बाहर रहने वाले अपने पति को बोल कर आई हैं कि कल बच्चों की छुट्टी है, इसलिए वे रात में भी यही रुकेंगी।

एक वॉलंटियर ने बताया कल रात जाकर उसने घर में सबका खाना बनाया मेहमान आ गए तो उनका भी बनाया, और फिर यहां आ गई। मैंने पूछा, “भाई से खाना बनाने में मदद नहीं ली?” उसने कहा, “नहीं मैं सब कुछ कर सकती हूं, लेकिन यहां आऊंगी ज़रूर।” 17 से 25 साल तक के वालंटियर लड़के-लड़कियां बिना किसी टैबू के एक दूसरे से बात कर रहे हैं, व्यवस्था संभाल रहे हैं, कईयों का गला खराब हो गया है।

इस आंदोलन में लड़के-लड़कियां, मां-बाप,  भाई-बहन, पति-पत्नी सब दोस्त हो रहे हैं। पाश के शब्दों में “सभी संबंधों का दोस्त में बदल जाना” यहां दिख रहा है। आंदोलन की प्रक्रिया ही बहुत कुछ पुराने को तोड़ नए में बदलती है, इसे देखना हो तो रोशन बाग़ आइए। हम सबने आजादी की लड़ाई नहीं देखी, ये कैसी रही होगी, रोशन बाग़ में इसकी झलक मिल रही है। नागरिकता कानून के खिलाफ चलने वाला यह आंदोलन नागरिकों को भी बदल रहा है। देखिए तो ज़रा।

सीमा आजाद
(लेखक सामाजिक कार्यकर्ता हैं।)

इलाहाबाद के रोशनबाग स्थित मंसूर पार्क में 12 जनवरी से सीएए, एनआरसी और एनपीआर के खिलाफ महिलाओं के नेतृत्व में शांतिपूर्ण और अहिंसक धरना-प्रदर्शन जारी है। इसकी अगुवाई, मंच-संचालन, गीत-गजल प्रस्तुति, पोस्टर बनाने से लेकर नारे लिखने तक हर काम महिलाएं ही कर रही हैं। उनकी भारी तादात है। हर उम्र की महिलाएं हैं। बच्चियों से बूढ़ी तक।

महिलाओं और पुरुषों के आने-जाने के रास्ते, बैठने की जगह अलग-अलग हैं। ज्यादातर पुरुष खड़े और महिलाएं जमीन पर दरी बिछाकर बैठी हैं। शाम को चाय, पानी बंट रहा है। मुहल्ले के लोग शाम के खाने का इंतजाम करते हैं। घर का सब काम निपटाकर महिलाएं खुले मैदान में जमी हुई हैं। शांतिपूर्वक सभा हो रही है। नये-नये नारे गढ़े जा रहे हैं।

डफली बजाकर, ताली बजाकर, मुट्ठी तानकर, हाथ उठाकर महिलाएं अपने मजबूत इरादों का इजहार कर रही हैं। उनके हौसलों के आगे माघ की सर्द रात भी अपना कहर नहीं बरपा पा रही है। शहर की सिविल सोसायटी के ढेर सारे लोग आंदोलन के समर्थन में जमा हैं। इंटर कालेज में हिंदी पढ़ाने वाले मास्टर इमरान राजनीतिक गजल-शायरी पेश करने के लिए अपनी बारी का इंतजार कर रहे हैं। कोई अफरा-तफरी नहीं, कोई भगदड़ नहीं, कोई उत्तेजना नहीं! वंदे मातरम्!, इंकलाब जिंदाबाद!, हम सब एक हैं एक रहेंगे! नारे लग रहे हैं। सब कुछ बहुत व्यवस्थित और अनुशासित है।

उत्तर प्रदेश की सरकार ने सूबे में धारा 144 लगा रखी है। कहीं कोई धरना- प्रदर्शन नहीं कर सकता। सुप्रीम कोर्ट सरकार को इस लोकतंत्र का गला घोंटने वाले कदम के लिए फटकार लगा रही है, लेकिन सरकार निर्लज्ज है। पूरे देश में इस काले-कानून के खिलाफ भयानक जनाक्रोश है। इसी की एक कड़ी है रोशनबाग!

इलाहाबाद की पुलिस ने रोशनबाग के 200 से अधिक आंदोलनकारियों के खिलाफ एफआईआर दर्ज की है। कल रात कवि और कल्चरल एक्टिविस्ट अंशु मालवीय पर, जब वे रोशनबाग से अपने घर लौट रहे थे, लगभग दर्जन भर नकाबपोश गुंडों ने हमला किया, बाइक की चाभी, पर्स, मोबाइल छीन लिया, हेलमेट से मारा-पीटा। पुलिस इस मामले में कोई एफआईआर दर्ज नहीं कर रही थी।

शाहीनबाग जीतेगा! रोशनबाग जीतेगा!! तानाशाही हारेगी!!!
रोशनबाग के साथियों को सलाम! उनके आंदोलन को दिली समर्थन !!

सूर्य नारायण
(लेखक इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में हिंदी के प्रोफेसर हैं।)

Janchowk
Published by
Janchowk