बूढ़े पहलवान ने उस समय कसी लंगोट जब दंगल का मैदान हो गया खाली

नई दिल्ली। जौहर यूनिवर्सिटी मामले में आजम खान पर लगातार कसे जा रहे शिकंजे के विरोध में सपा संरक्षक मुलायम सिंह यादव आ गये हैं। उन्होंने आजम खान को मेहनती, साधारण परिवार से आने वाला और नेक इंसान बताते हुए समाजवादी पार्टी के कार्यकर्ताओं से उनके साथ खड़ा होने की अपील की है। नेताजी ने मोर्चा ऐसे समय में संभाला है जब आजम खान पर योगी सरकार ने पूरी तरह से शिकंजा कस दिया है और उनका जेल जाना लगभग तय हो गया है। ऐसे में प्रश्न उठता है कि जब मुलायम सिंह का वजूद समाजवादी पार्टी ने लगभग खत्म ही कर दिया है। ऐसे में स्वास्थ्य खराब होने के बावजूद उन्हें मोर्चा क्यों संभालना पड़ा ?
आज की तारीख में आजम खान पर भले ही कितने मामले दर्ज कर दिये गये हों। कितने-कितने बड़े आरोप उन पर लगे हों। हो सकता है कि उन पर आरोप सिद्ध भी हो जाएं। हो सकता है कि वह लोगों के लिए ठीक न हों। हो सकता है उन्होंने किसानों की जमीन हथियाई हो पर क्या जनता पार्टी से लेकर आज तक मुलायम सिंह के हर संघर्ष में कंधा से कंधा मिलाकर नहीं चले हैं। क्या अखिलेश यादव के मुख्यमंत्री बनने के विरोध वह नहीं कर सकते हैं। यह आजम खान की मुलायम सिंह यादव के प्रति वफादारी ही थी कि उन्होंने अमर सिंह के तमाम अपशब्द कहने के बावजूद कभी नेताजी के खिलाफ कटु शब्द नहीं बोले। जबकि जगजाहिर है कि आजम खान कितने तुनकमिजाज हैं। यहां तक कि अमर सिंह के पार्टी से निकलवाने के बाद भी उन्होंने कभी अपने पुराने साथी मुलायम सिंह यादव के खिलाफ भड़ास नहीं निकाली। आज भले ही आजम खान पर कितने बड़े बड़े आरोप लग रहे हों पर यह उनके अंदर सच्चे समाजवादी का जज्बा ही था कि कई साल तक वह पार्टी से बाहर रहे पर किसी अन्य पार्टी का दामन उन्होंने नहीं थामा। 
ऐसे में प्रश्न उठता है कि जब समाजवादी पार्टी में उनका वजूद लगभग खत्म ही कर दिया गया है। ऐसे में उनके खून-पसीने से सींची हुई पार्टी के कार्यकर्ता उनके आह्वान पर अमल करेंगे ? या फिर नेताजी के इस आह्वान पर पार्टी नेतृत्व उनका साथ देगा।
जमीनी हकीकत तो यह है कि आजम खान मामले में मोर्चा संभालने में नेताजी ने बहुत देर कर दी और ऊपर से उनके आह्वान का आज की तारीख में कोई खास असर नहीं पड़ने वाला है।
हां देश में ऐसा समय ऐसा भी रहा है कि जब समाजवादी पार्टी में ही नहीं बल्कि दूसरे सेकुलर दलों में भी मुलायम सिंह की बात का असर था। उनके एक आह्वान पर न केवल पार्टी कार्यकर्ता बल्कि दूसरे दलों के लोग भी सड़कों पर आ जाते थे। यहां तक कि वामपंथी भी मुलायम सिंह के आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाते थे। आज यदि उनकी बातों को खास तवज्जो नहीं दी जाती है, इसके लिए काफी हद तक वो खुद जिम्मेदार हैं। अंतिम समय में जो काम उनके गुरु चौधरी चरण सिंह ने किया वही काम उन्होंने भी कर दिया।
ऐसा नहीं है कि सेकुलर नेताओं में उनकी बात का असर अचानक खत्म हुआ है। उन्हें तो देश के सेकुलर दलों ने भी अपना नेता मान लिया था। बिहार के गत विधानसभा चुनाव के ठीक पहले उन्हें महागठबंधन का नेता बनाया गया था। चुनाव होने के ठीक पहले वह मोदी सरकार के दबाव में बैकफुट पर आ गये। बताया जाता है कि उस समय पार्टी के मुख्य महासचिव रामगोपाल यादव और मौजूदा गृहमंत्री अमित शाह की मीटिंग के बाद नेताजी को महागठबंधन से हटाया गया था। हालांकि जदयू व राजद गठबंधन ने चुनाव जीत लिया पर नेताजी के इस निर्णय से सेकुलर दलों के साथ ही समाजवादी विचारधारा के लोगों के मन में मुलायम सिंह की छवि बहुत प्रभावित हुई। नीतीश कुमार के एनडीए में जाने की मजबूरी बन जाने के बड़े कारणों एक यह भी था।
इसके बाद मुलायम सिंह यादव को अपने को साबित करने का मौका मिला 2019 के लोकसभा चुनाव के ठीक पहले। देश में वह ऐसे नेता थे जो विपक्ष का नेतृत्व कर सकते थे। मोदी सरकार की नीतियों से नाराज लोग मुलायम सिंह जैसे बड़े समाजवादियों से मोदी सरकार के खिलाफ मोर्चा खोलने की अपेक्षा भी कर रहे थे। मुलायम सिंह यादव ने क्या किया ? मोदी सरकार के खिलाफ खड़े न होकर उल्टे संसद में विपक्ष के प्रधानमंत्री के सामने न ठहरने की बात कहकर उन्हें दूसरी बार प्रधानमंत्री बनने की अग्रिम शुभकामनाएं देकर भाजपा का आधा चुनाव तो संसद में ही जितवा दिया। अब वह आजम खां के खिलाफ चल रही कार्रवाई को गलत ठहरा रहे हैं। क्या उन्हें ज्ञात नहीं था कि मोदी और योगी के निशाने पर कौन-कौन लोग हैं। 
अब देखना यह है कि उनके योगी सरकार की इस कार्रवाई के विरोध में मोर्चा खोलने का असर देश की राजनीति पर क्या पड़ता है ? वैसे उनके उस भाई, जिसको राज्यसभा में भेजने के लिए अपने गुरु समाननेता चंद्रशेखर से भी टकरा गये थे। उस भाई ने उनके खुद के पुत्र को साथ लेकर पार्टी में उनकी कोई खास हैसियत नहीं छोड़ी है।
हां नेताजी का व्यक्तिगत कद ही इतना बड़ा है कि यदि वह मोदी सरकार की अराजकता के खिलाफ बोलते तो उसका असर देश की सियासत में जरूर होता। देश में मॉब लिंचिंग के मामले होते रहे। किसान आत्महत्या करते रहे। मजदूरों का दमन होता रहा। बेरोजगार युवा सड़कों पर डंडे खाते रहे। कुछ गिने चुने पूंजीपति देश को लूटते रहे पर मुलायम सिंह जैसा खाटी समाजवादी चुप रहा। क्यों ? क्या डॉ. राम मनोहर लोहिया, लोक नारायण जयप्रकाश और आचार्य नरेन्द्र देव जैसे प्रख्यात समाजवादियों का आचरण यह था।
हालांकि उन्होंने संसद में किसानों की परेशानी का मुद्दा उठाया था पर उन्होंने खुद ही अपना वजूद इतका कमजोर कर लिया। इसका नतीजा यह है कि अब उनकी बात को राजनीतिक गलियारे में गंभीरता से नहीं लिया जाता है।
आजम खान पर कसे जा रहे शिकंजे को लेकर नेताजी का मजबूरन मोर्चा संभालने पर समाजवादी पार्टी के नेतृत्व पर उंगली तो उठती ही है। क्या यह आह्वान पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव या फिर पार्टी के मुख्य महासचिव रामगोपाल यादव नहीं कर सकते थे ? जबकि होना यह चाहिए था कि अब तक पूरी पार्टी को सड़क पर उतर जानी चाहिए थी। पार्टी के वे बड़े नेता क्या कर रहे हैं जो सपा के सत्ता में आने पर प्रदेश के संसाधनों पर कुंडली मारकर बैठ जाते हैं ? आरोप लगना जांच का विषय होता है। नेता का काम लड़ना होता है। आजम खान पर भले ही कितने आरोप लगे हों पर वह पार्टी के पुराने और विश्वसनीय नेता रहे हैं। पार्टी को उनके साथ खड़ा होना चाहिए। ऐसा नहीं है कि समाजवादी पार्टी में आजम खान पर ही शिकंजा कसा गया है। पार्टी के कई नेताओं की हत्या तक हो चुकी है। गौतमबुद्धनगर में तो दादरी विधानसभा अध्यक्ष को ही मार दिया गया। वैसे तो सपा प्रदेश में विपक्ष की भूमिका में होने के बावजूद न तो मोदी सरकार के खिलाफ कोई बड़ा आंदोलन कर पाई है और न ही योगी सरकार के खिलाफ तो यह माना जाए कि नेताजी का आह्वान भी नक्कार खाने में तूती की आवाज बनकर रह जाएगा ?
आज मुलायम सिंह या फिर आजम खान जैसे नेताओं की यह दुर्गति हुई है तो इसका बड़ा कारण यह है कि 90 के दशक के बाद समाजवादी अपने पथ से पूरी तरह से भटक चुके हैं। सत्ता का चस्का लगते ही समाजवादी नेताओं ने संघर्ष का रास्ता छोड़कर सत्ता का रास्ता पकड़ लिया। यही कारण है कि आज की तारीख में बिहार में लालू प्रसाद यादव जेल में हैं। शरद यादव का कोई वजूद रह नहीं गया है। नीतीश कुमार को संघियों के सामने झुकना पड़ा, जिनके खिलाफ मोर्चा खोलते हुए उन्होंने गैर संघवाद का नारा दे दिया था। जिन मोदी को लेकर वह एनडीए से अलग हुए थे उनकी गोद में जाकर उन्हें बैठना पड़ा।

भाजपा पर साम्प्रदायिकता का आरोप लगाने वाले राम विलास पासवान उसी भाजपा की अगुआई में चल रहे एनडीए की सरकार में सत्ता की मलाई चाट रहे हैं। समाजवादियों के दमन का बड़ा कारण यह भी है कि जो लोग कमजोर और जरूरतमंद लोगों के लिए लड़ते थे, उनका समाजवाद अपनी जाति, परिवार और रिश्तेदारों तक ही सिमट कर रह गया। नेताजी की गिनती भी इन्हीं नेताओं में होती है। अब देखना यह है कि आजम खान के पक्ष में खोला गया उनका मोर्चा क्या गुल खिलाता है।

(चरण सिंह पत्रकार हैं और आजकल एक दैनिक अखबार में कार्यरत हैं।)

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