यूपी चुनाव का गुणा-गणित तथा जमीनी हकीकत

उत्तर प्रदेश में आधी से ज्यादा सीटों पर पांच चरणों में मतदान की प्रक्रिया समाप्त हो चुकी है। इन चरणों में आम जनता ने खुलकर मंहगी बिजली, खाद्य, बीज के साथ-साथ बढ़ी हुई बेरोजगारी एवं राजनीतिक भागीदारी पर खुलकर अपनी बात रखी। हालांकि, गरीब, दलित व वंचित तबके के स्थानीय मुद्दों को दरकिनार कर मेनस्ट्रीम मीडिया अखिलेश बनाम योगी के नाम का जाप करती दिखाई दे रही है।

प्रथम चरण के प्रमुख चुनावी मुद्दे

अगर गहराई से पड़ताल करें तो पाएंगे कि मेनस्ट्रीम मीडिया  पहले चरण को ‘जाट लैंड’ में चुनावी घमासान कहकर अपनी टीआरपी बढ़ाने में लगी रही, तथा  हिन्दू-मुस्लिम दंगों को याद दिलाने में उसने कोई कोर कसर नही छोड़ी। कृषि कार्य में संलग्न अन्य जातियों के सामाजिक-राजनीतिक मुद्दों की अनदेखी की गई। गृह मंत्री अमित शाह को जाट नेताओं के साथ बैठक करनी पड़ी तथा भाजपा के अनेक पदाधिकारियों द्वारा जाट नेताओं को मनाने की भरपूर कोशिश की गई। इस दौरान अल्पसंख्यक समुदाय तथा दलित समाज के जमीनी मुद्दे, कोरोना महामारी के कारण ठप्प पड़ गये व्यापार तथा मंहगाई जैसे मुद्दे भी अनसुने रह गए।

योगी आदित्यनाथ द्वारा दिए गये 80 बनाम 20 के सूत्र को मीडिया ने बढ़ा-चढ़ा कर पेश किया। जिससे नाराज होकर किसान आंदोलन के कद्दावर नेता राकेश टिकैत ने सार्वजानिक मंच से एक टीवी एंकर को डांटते हुए कहा कि ‘किसके कहने पर कर रहे हो यह काम। मंदिर और मस्जिद दिखाओगे।  इसकी जगह अस्पताल दिखाओं। चैनल वाले देश को बर्बाद करना चाहते हैं। कैमरा और कलम पर बंदूक का पहरा है।’[1] गोंदी_मीडिया ने जाटव बनाम ‘गैर-जाटव दलित’ जैसे गैर-जरूरी सामाजिक मुद्दों को बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत करके मतदाताओं को गोलबंद करने का प्रयास किया।

द्वितीय चरण के प्रमुख चुनावी मुद्दे

दूसरे चरण के चुनावी क्षेत्र को मीडिया द्वारा ‘मुस्लिम लैंड’ कहकर प्रोजेक्ट किया गया। जबकि यहाँ दलित समुदाय की आबादी लगभग 26 प्रतिशत है। आम जनता में विद्यमान गरीबी, बंद पड़े स्कूल, बेरोजगारी, पलायन, कोरोना महामारी जैसे अनेक महत्वपूर्ण सवालों को मीडिया द्वारा अनसुना कर दिया गया। हालांकि, इन सबके बावजूद हिन्दू बनाम मुस्लिम का मुद्दा पिछले विधानसभा के चुनाव की तुलना में इस बार काफ़ी फीका रहा। 

तीसरे चरण के प्रमुख चुनावी मुद्दे

तीसरा चरण भी काफ़ी उत्साह से लबरेज रहा। यह क्षेत्र सपा का गढ़ माना जाता है। इस चरण की 59 विधानसभा की सीटों पर पिछली बार (2017 में) भाजपा  ‘यादववाद’ और ‘जातिवाद’ का मुद्दा जोर-शोर से उठाकर 49 सीटों पर जीत हासिल करने में कामयाब रही थी। 2012 के चुनाव में अधिकांश सीटें फतह करने वाली सपा 2017 में मात्र 9 सीटों पर सिमट कर रह गई थी। वर्ष 2017 में मोदी लहर का इन सीटों पर स्पष्ट प्रभाव दिखाई दे रहा था। शायद भाजपा द्वारा उठाया गया यादववाद का सिगूफा भी हिट कर गया था। हालांकि, इस बार भी मेनस्ट्रीम मीडिया द्वारा इसे ‘यादवलैंड’ तथा ‘आलू लैंड’ कहकर प्रचारित किया। जिसमें वंचित वर्ग की आवाज अनसुनी रह गई। क्या भूमिहीन मजदूर वर्ग के लिए आलू का मुद्दा जरूरी लगता है या उन्हें रोजगार चाहिए। इस पर कोई दल ग़ौर करने वाला नहीं है कि कोरोना महामारी में दलित समाज ने कितनी किल्लतें झेली तथा आने वाले समय में ऐसे भूमिहीन दलित व वंचित समाज के लिए सरकार की क्या नीतियां होंगी?

चौथे चरण के प्रमुख चुनावी मुद्दे

चौथे चरण में चुनाव काफ़ी दिलचस्प रहा, क्योंकि सामाजिक न्याय, समान भागीदारी तथा जमीनी मुद्दे काफ़ी हावी रहे। इस चरण में सपा गठबंधन की भी अग्निपरीक्षा थी, क्योंकि इस क्षेत्र में ओमप्रकाश राजभर का भी प्रभाव माना जाता है। ऐसे में सभी दलों ने जातीय समीकरण का पूरा ख्याल रखा। हालांकि, भाजपा ने हिन्दू तुष्टीकरण की राह पर चलते हुए, किसी मुस्लिम उम्मीदवार को टिकट नहीं दिया।

चौथे चरण में जातीय भागीदारी का समीकरण 

दलसवर्णपिछड़ा वर्गमुस्लिमदलितसिखयोग
भाजपा2518016059
सपा (गठबंधन)1422517159
बसपा12141716059
कांग्रेस246918259
योग756031673

एक तरफ़ प्रदेश की राजधानी होने के कारण लखनऊ की सभी 9 विधानसभा सीटों पर सबकी नजर बनी हुई है। वहीं लखनऊ का पड़ोसी जिला उन्नाव भी दो वजहों से चर्चा में रहा। प्रथम, इत्र व्यवसायियों के लिए मशहूर छः विधानसभा सीटों वाले उन्नाव में चुनाव के समय भारी मात्रा में नकदी पकड़े जाने के कारण भी काफ़ी समय तक यह मीडिया में छाया रहा। द्वितीय, कुछ समय पहले यह जिला भाजपा के मंत्री कुलदीप सिंह सेंगर को रेप केस में दोषी करार दिए जाने तथा उससे सम्बंधित घटनाओं के कारण भी काफ़ी चर्चा में रहा।

उत्तर प्रदेश का कभी मैनचेस्टर कहा जाने वाला कानपुर शहर अब चमड़ा उद्योग के लिए मशहूर है। पिछले कुछ समय से यहाँ कि अनेकों कपड़ा मिलें बंद हो चुकी हैं। भाजपा की ‘गौ रक्षा’ की नीतियों के कारण चमड़ा उद्योग भी बुरी तरह से प्रभावित हुआ है। जिसके कारण अनेक श्रमिकों को बेरोजगार होना पड़ा। इसलिए कानपुर शहरी और ग्रामीण क्षेत्र में बेरोजगारी और विकास का मुद्दा असरदार रहा।

लखीमपुर खीरी में आंदोलनकारी किसानों को गाड़ी से रौंदने की घटना के बाद से यह क्षेत्र मीडिया का प्रमुख केंद्रबिंदु बना हुआ है। क्योंकि संयुक्त किसान मोर्चा का आरोप है कि केंद्रीय गृह राज्यमंत्री अजय मिश्र टेनी के पुत्र आशीष मिश्र की गाड़ियों के काफिले ने रौंद डाला, जिसमें चार किसान कुचल कर मर गए और लगभग एक दर्जन प्रदर्शनकारी घायल हो गए थे। हाल ही में आशीष मिश्र को कोर्ट से जमानत भी मिल गई है। ऐसे में किसानों में काफ़ी रोष व्याप्त है। आवारा पशु, बेरोजगारी और विकास जैसे मुद्दों का असर वोटर पर मतदान वाले दिन देखने को मिला। इसलिए इस जनपद की सभी (8) सीटों पर लोगों की पैनी नजर है।

इस विधानसभा चुनाव में प्रियंका गाँधी की इंट्री होने से लोग कांग्रेस की तरफ़ भी देखना शुरू कर चुके हैं। महिलाओं और दलित समाज के विभिन्न मुद्दों पर कांग्रेस चुनावी नैया पार लगाना चाहती है। रायबरेली कांग्रेस का गढ़ माना जाता है, ऐसे में यह चरण प्रियंका गाँधी तथा कांग्रेस के लिए रायबरेली में अपनी साख बचाने का मुद्दा हो गया। महत्पूर्ण बात यह है कि चौथे चरण में अन्य दलों की तुलना में कांगेस ने सबसे ज्यादा सीटें (18) दलित उम्मीदवारों को दी थीं।

पांचवे तथा बाद के चुनावी अभियान के प्रमुख चुनावी मुद्दे

पांचवे चरण में अयोध्या, प्रतापगढ़ और सुल्तानपुर समेत कुल 61 विधानसभा सीटों पर वोट डाले गये। हिन्दुओं की श्रद्धा के दृष्टि से महत्वपूर्ण अयोध्या, सुल्तानपुर, प्रयागराज और चित्रकूट जैसे जिलों में वोटिंग 27 फरवरी को वोटिंग हुई। पांचवे चरण के मुद्दे लगभग चौथे चरण के समान रहे। हालांकि, इस बार मतदाताओं में उतना उत्साह नहीं रहा तथा मात्र 55 प्रतिशत ही मत पड़े। उप-मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्या और पूर्व मंत्री रहे रघुराज प्रताप सिंह जैसे कद्दावर नेताओं को काफ़ी चुनौती मिलती दिख रही है। इस बार मोदी लहर जैसी कोई बात जनता को रास नही आ रही है। इन क्षेत्रों में बसपा भी काफ़ी मजबूत है, इसलिय बाकी चरणों की तरह यहाँ सपा बनाम भाजपा ना होकर त्रिकोणीय मुकाबला देखने को मिल रहा है।

अब देखना यह है कि आखिरी दो चरणों में लोग सामाजिक न्याय तथा विकास के मुद्दे पर ज्यादा रुख आख्तियार करते हैं या मतदातादा राम मंदिर और काशी कोरिडोर के नाम पर वोट डालते हैं। सुल्तानपुर के रहने वाले राम नारायण कहते हैं कि ‘अब तो 10 मार्च को ही पता चल पायेगा कि अवध तथा पूर्वांचल में काशी, मथुरा और अयोध्या का सांप्रदायिक मुद्दा कितना चल पाया। हालांकि, बजरंग दल, हिन्दू युवा वाहिनी, विश्व हिन्दू परिषद, राष्ट्रीय सेवक संघ, हिन्दू रक्षा दल भी अपने तरीके से काफ़ी सक्रिय हैं। उनके पदाधिकारी गांवों में जाकर काशी विश्वनाथ कोरिडोर और अयोध्या में भव्य राम मंदिर बनने का गुणगान करने में लगे हैं तथा विशेष रूप से पिछड़ी और अनुसूचित जातियों को हिंदुत्व के मुद्दे पर गोलबंद करने का प्रयास कर रहे हैं।’

जाड़े का समय बीतने के साथ ‘चुनावी गर्मी’ का आगाज भी अगले दो चरणों में देखने को मिलेगा। अयोध्या, वाराणसी, गोरखपुर, चित्रकूट, प्रयागराज जैसे धार्मिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण जिलों में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को हिन्दू धर्म का अग्रदूत कहकर हिन्दू- तुष्टीकरण का खेल शुरू हो चुका है। हालांकि, चुनावी गर्मी को फीका करने के लिए जातीय समीकरण, ‘ठाकुरवाद’, ‘ललका सांड’ और ‘बेरोजगारी’ का मुद्दा भी है, जिसे विपक्षी दल अपना चुनावी हथियार बनाने का प्रयत्न भी कर रहे हैं।

हालांकि, तमाम चुनावी मुद्दों, आरोप-प्रत्यारोप और वादों की बौछारों के बीच अवध और पूर्वांचल के कुछ बाहुबलियों जैसे सोनू सिंह (सुल्तानपुर), खब्बू तिवारी (अयोध्या), अभय सिंह (अयोध्या), पवन पांडे (अकबरपुर), रघुराज प्रताप सिंह ‘राजा भैया’ (प्रतापगढ़), अतीक अहमद (प्रयागराज), मुख्तार अंसारी (मऊ), वीर सिंह पटेल (मानिकपुर), ब्रजेश सिंह (वाराणसी), राजन तिवारी (गोरखपुर), विजय मिश्रा (ज्ञानपुर), हरिशंकर तिवारी (गोरखपुर) का जिक्र करना भी जरूरी है, क्योंकि इस क्षेत्र के कई हिस्सों में इनका काफ़ी रसूख है। चुनावों में इन बाहुबलियों का बहुत प्रभाव रहता है, जिसे दरकिनार कर इस क्षेत्र के चुनावी मूड को विश्लेषित नहीं किया जा सकता है। गुंडागर्दी और माफियागीरी का पर्याय बन चुके  इन नेताओं को सभी राजनीतिक दलों ने समय-समय पर पनाह दी, जिसके कारण इनका प्रभुत्व धीरे-धीरे बढ़ता गया। इन बाहुबली नेताओं के सामने चुनावों में कमजोर वर्गों और दलित समाज की आवाजें दबकर रह जाती हैं।

जातीय चुनावी अंकगणित

अखिलेश यादव ने इस बार जातीय समीकरणों को ध्यान में रखकर पूर्वांचल में प्रमुख ब्राह्मण चेहरा माने जाने वाले हरिशंकर तिवारी के साथ उनके बड़े बेटे पूर्व सांसद भीम शंकर तिवारी तथा छोटे बेटे विनय शंकर तिवारी को कुछ समय पहले अपनी पार्टी में शामिल कर लिया। विनय शंकर तिवारी वर्तमान में गोरखपुर के चिल्लूपार से विधायक हैं। इनके आलावा कई अन्य ब्राह्मण चेहरों को पार्टी में शामिल करके तथा परशुराम की मूर्ति जैसे मुद्दों के साथ अखिलेश ने भाजपा शासनकाल के दौरान ब्राह्मण समाज में उपजे असंतोष को भुनाने का प्रयास किया तथा पूर्वांचल में जातीय समीकरण में फिट रहने की भरपूर कोशिश की। रामदत्त त्रिपाठी कहते हैं कि ‘भाजपा से न केवल पिछड़े वर्ग का मोहभंग हुआ, बल्कि भाजपा समर्थक ऊँची जातियों में भी ब्राह्मण समुदाय को शिकायत है कि मुख्यमंत्री योगी राजपूत ठाकुर बिरादरी को ज़्यादा महत्व दे रहे हैं.’[2] एक अनुमान के मुताबिक़ उत्तर प्रदेश में लगभग 11 प्रतिशत ब्राह्मण हैं। पूर्वांचल में इनकी तादाद 20 प्रतिशत मानी जाती है। वहीं राज्य में ठाकुर यानी राजपूतों की तादाद क़रीब 7 प्रतिशत बताई जाती है।

धर्म की ध्वजपताका से राजनीति की ध्वजपताका को साधने की जुगत में भाजपा और उसके फ्रंटल संगठन (महिला मोर्चा, पिछड़ा वर्ग मोर्चा, अनुसूचित मोर्चा, आदि) के पदाधिकारी तथा कार्यकर्त्ता दिन-रात मैदान में डटें हैं। भाजपा किसान मोर्चा (युवा किसान समिति) के राष्ट्रीय सचिव विशाल शुक्ल (सलोरी, प्रयागराज) का मानना है कि ‘काशी विश्वनाथ कोरिडोर तथा ‘राम मंदिर’ बनने से लोग काफ़ी खुश हैं, जिसका असर इस चुनाव में पड़ना लाजमी है।’ लेकिन अयोध्या और वाराणसी के कुछ स्थानीय लोगों का मानना है कि पुराने व छोटे-छोटे मंदिरों पर सरकार ने कोई ध्यान नहीं दिया, जिसके कारण सरकार ने कई लोगों की नाराजगी भी है। अयोध्या और वाराणसी में ऐसे छोटे मंदिरों की तादात सैकड़ों में हैं तथा हजारों परिवार भावात्मक रूप से इन मंदिरों से जुड़े हुए हैं। चुनाव से कुछ समय पूर्व योगी आदित्यनाथ ने भगवान राम की विश्व की सबसे ऊँची प्रतिमा लगाने की पहल की। जिसके कारण हजारों परिवार प्रभावित हो रहे हैं, जिसका स्थानीय स्तर पर काफ़ी विरोध भी रहा है। 

कोरोना कुप्रबंधन के कारण अनेक लोगों की जान चली गई। स्वाथ्य क्षेत्र में इतनी बड़ी कालाबाजारी शायद कभी किसी ने देखी हो। दो हजार रूपये वाले आक्सीजन के सिलेंडर 10 से 15 हजार रूपये में बिक रहे थे। हैशटैग एसओएस वाले (आपातकालीन) संदेशों की बाढ़ सी आ गई थी। प्रत्येक गांव में ऐसे परिवार मिल जायेंगे, जिन्होंने अपने करीबियों को खोया है। पैरासीटामाल जैसी सर्वसुलभ दवाईयां 15 रूपये की जगह 100 से 150 रूपये में बिक रही थी। इन अव्यवस्थाओं से त्रस्त तथा रुष्ट जनता को अब अपना मत प्रकट करने का मौका मिला है। हालांकि, इससे पहले पंचायत चुनावों में भी ग्रामीण जनता ने सपा समर्थित या निर्दलीय उम्मीदवारों के पक्ष में अपना फैसला दिया था।

भाजपा के अंदर की आपसी गुटबाजी भी इस चुनाव पर भारी पड़ सकती है। पूर्वांचल और अवध की कई सीटों पर ओमप्रकाश राजभर और स्वामी प्रसाद मौर्या का प्रभाव रहता है, जो कि भाजपा के लिए इस बार खतरे की घंटी है। प्रयागराज के अनिल कुमार विश्वकर्मा व्यंगात्मक लहजे में कहते हैं ‘लोग अब बाबा योगी का आशीर्वाद लेते-लेते थक चुके हैं, उन्हें अब रोजगार देने वाली सरकार चाहिए। जिस तरह भाजपा प्रचंड बहुमत से जीती थी, आज भाजपा से आम जनता की नाराजगी भी उतनी ही भारी है।’ हालांकि, सुल्तानपुर के टंडवा गांव के निवासी व भाजपा कार्यकर्त्ता वंशगोपाल सिंह पुनः योगी आदित्यनाथ की सरकार बनने को लेकर आशान्वित है। उनका मानना है कि भाजपा का वोट प्रतिशत थोड़ा नीचे आ सकता है, जिसके कारण भाजपा की उतनी प्रचंड बहुमत के साथ वापसी नही होगी।


[1] https://navbharattimes.indiatimes.com/india/rakesh-tikait-gets-furious-at-tv-anchor-said-why-are-you-showing-temple-mosque/articleshow/89208523.cms

[2] https://www.bbc.com/hindi/india-60459059

(लेखक देवी प्रसाद, हैदराबाद विश्वविद्यालय के समाजशास्त्र विभाग में शोधरत हैं।)

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