पूर्वोत्तर ने दिया कांग्रेस-सीपीएम को साफ संदेश

नई दिल्ली। पूर्वोत्तर के तीन राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव परिणाम घोषित हो चुके हैं। इसके साथ ही पांच राज्यों में विधानसभा उप-चुनावों का परिणाम भी हमारे सामने है। पूर्वोत्तर राज्यों के चुनाव परिणाम जहां केंद्र में सत्तारूढ़ बीजेपी और उसके गठबंधन के पक्ष में रहा, वहीं पांच राज्यों की विधानसभा उपचुनाव परिणाम राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस के प्रति विश्वास की पुनर्वापसी के रूप में देखा जा रहा है। तमिलनाडु, महाराष्ट्र और पश्चिम बंगाल में कांग्रेस प्रत्याशी ने जीत दर्ज कर न सिर्फ स्थानीय सत्ता समीकरण में व्यापक फेरबदल किया है बल्कि राष्ट्रीय स्तर पर भी एक संदेश दिया है।

60 सदस्यीय त्रिपुरा विधानसभा में बीजेपी को 32 सीटों के साथ 38.97 प्रतिशत वोट, सीपीएम को 11 सीट और 24.62 प्रतिशत वोट, कांग्रेस को 3 सीट और 8.56 प्रतिशत वोट और तिपरामोथा को 13 सीटों के साथ 22 प्रतिशत वोट मिला है।

2018 में हुए त्रिपुरा विधानसभा चुनाव की बात की जाए तो बीजेपी गठबंधन को तब 44 सीट और 43.59 प्रतिशत वोट, सीपीएम को 14 सीट और 42.22 प्रतिशत वोट मिला था। लेकिन इस बार सीपीएम के मत प्रतिशत में लगभग आधे की कमी आई है। इस चुनाव में स्थानीय आदिवासियों के हितों के नाम पर अस्तित्व में आई तिपरामोथा को मिली सीटों की संख्या और मत प्रतिशत सीपीएम की सीट और मत प्रतिशत में दर्ज की गई कमी के बराबर है। जबकि इस चुनाव में बीजेपी की सीट संख्या और मत प्रतिशत में बहुत ज्यादा अंतर नहीं आया है।

मेघालय में मुख्यमंत्री कॉनराड संगमा की नेशनल पीपुल्स पार्टी (NPP) सबसे बड़ी पार्टी बन कर उभरी है। NPP के खाते में 26 सीटें और 31.5 प्रतिशत वोट आया है। तृणमूल कांग्रेस को 5 सीट और 13.78 प्रतिशत वोट, बीजेपी 2 सीट और 9.33 प्रतिशत वोट पाने में सफल रही। जबकि कांग्रेस 5 सीट के साथ 13.14 प्रतिशत वोट, पीडीएफ 2 सीट और 1.88 प्रतिशत वोट, यूडीएफ 11 सीट और 16.21 प्रतिशत वोट अपने पक्ष में खींचने में सफल रही।

मेघालय में एक बार फिर से कॉनराड संगम की सरकार बनने जा रही है। क्योंकि मुख्यमंत्री कॉनराड संगमा ने गृहमंत्री अमित शाह को फोन करके सरकार बनाने के लिए मदद मांगी थी और ट्वीट करके भाजपा से मिले समर्थन की पुष्टि भी की है। उन्होंने भाजपा को समर्थन के लिए धन्यवाद दिया। उन्होंने कहा- हम मेघालय की सेवा के लिए मिलकर काम करना जारी रखेंगे। गौरतलब है कि चुनाव से पहले बीजेपी से गठबंधन तोड़ने वाली NPP का एक बार फिर बीजेपी से गठबंधन हो गया है।

नगालैंड की 60 सदस्यीय विधानसभा सीटों में एनडीपीपी के खाते में 25 सीट और 32.22 प्रतिशत वोट आया है। बीजेपी 12 सीट और 18.81 प्रतिशत वोट, कांग्रेस 7 सीट और 3.55 प्रतिशत वोट, एनपीपी 5 सीट और 5.78 प्रतिशत वोट मिला है। जबकि नगा पीपुल्स फ्रंट और लोक जनशक्ति पार्टी को 2-2 सीटें मिली हैं।

त्रिपुरा चुनाव परिणाम सीपीएम और कांग्रेस के लिए बहुत निराशाजनक रहा है। राज्य में कांग्रेस और सीपीएम की राजनीतिक जमीन को बीजेपी और खासकर तिपरामोथा ने संकुचित कर दिया है। हाल ही में अस्तित्व में आई तिपरामोथा पार्टी ने शासन में स्थानीय आदिवासियों की भागीदारी का सवाल उठाकर दोनों दलों को सकते में डाल दिया है।

दरअसल, तिपरामोथा के प्रमुख एवं त्रिपुरा राजपरिवार के वारिश प्रद्योत माणिक्य देबबर्मा का परिवार तीन पीढ़ियों से सीपीएम का विरोधी और कांग्रेस समर्थक रहा है। कांग्रेस से मोहभंग होने के बाद प्रद्योत देबबर्मा ने अपनी अलग पार्टी तिपरामोथा का गठन कर लिया। शुरू में कांग्रेस ने इस घटना को ज्यादा महत्व नहीं दिया। लेकिन कांग्रेस का सीपीएम से गठबंधन और त्रिपुरा राजपरिवार से दूरी ने उसके आधार को खिसका दिया।

कांग्रेस के लिए जहां तिपरामोथा का उभार नुकसानदेह रहा, वहीं पर सीपीएम के लिए बीजेपी का हिंदुत्व परेशानी का सबब बन गया है। दरअसल, राज्य में बांग्लादेश से आए बंगाली समुदाय की अच्छी संख्या है। बंगाली समाज का मध्य वर्ग बीजेपी की तरफ आकर्षित होता रहा, उस वर्ग को रोकने में सीपीएम नाकाम रही।

दूसरी ओर त्रिपुरा राजपरिवार से सीपीएम का पुराना वैमनस्य रहा है। आजादी के तुरंत बाद 1947 में त्रिपुरा के अंतिम महाराजा बीर बिक्रम माणिक्य की मृत्यु हो गई और त्रिपुरा का शाही परिवार शिलांग भाग गया था। उस दौरान सिंहासन का उत्तराधिकारी नाबालिग था। अपनी मृत्यु से पहले तक बीर बिक्रम ने राज्य में वामपंथियों का मुकाबला करने की असफल कोशिश की थी।

अब उनके पोते प्रद्योत देबबर्मा ने तिपरामोथा बना कर राज्य की राजनीति में सीपीएम का हर स्तर पर विरोध किया। उन्होंने स्थानीय आदिवासियों के व्यापक हक की बात कर सीपीएम के आधार को काफी कमजोर किया है। सीपीएम ने राज्य में अस्मिता की राजनीति को कमजोर कर दिया था। लेकिन अब बीजेपी ने हिंदू और तिपरामोथा ने स्थानीय जनजातियों के अस्मिता का सवाल उठाकर सीपीएम को परेशानी में डाल दिया है।

माणिक सरकार के नेतृत्व में वाम मोर्चे ने पहचान यानि अस्मिता की राजनीति के वैचारिक आधार को नष्ट कर अपना विस्तार किया था, लेकिन बीजेपी ने इंडिजेनस पीपुल्स फ्रंट ऑफ त्रिपुरा (आईपीएफटी) में नई जान फूंकी और उनके गठबंधन ने 2018 के चुनाव में वाम मोर्चा को हरा दिया। हालांकि, तिपरामोथा के उदय और इसके बढ़ते समर्थन आधार ने 2023 के चुनाव से ठीक पहले बीजेपी-आईपीएफटी गठबंधन को उलझन में डाल दिया था। तिपरामोथा ने अलग राज्य की मांग कर भाजपा-आईपीएफटी के समक्ष कड़ी चुनौती पेश किया। बल्कि बहुसंख्यक आदिवासी मतदाताओं के लिए यह मांग एकमात्र मुद्दा बन गई है।

त्रिपुरा में हुए पिछले दो चुनावों में-विधानसभा चुनाव (2018) और जिला परिषद चुनाव (2021)-अलग राज्य की मांग करने वाले दो क्षेत्रीय दलों ने चुनावी लाभ प्राप्त किया। 2021 में, त्रिपुरा स्वदेशी प्रगतिशील क्षेत्रीय गठबंधन (तिपरामोथा), ग्रेटर तिपरालैंड की मांग के साथ, त्रिपुरा जनजातीय क्षेत्र स्वायत्त जिला परिषद (टीटीएएडीसी) में खुद को सत्ता में लाया। टिपरामोथा ने बीजेपी-आईपीएफटी गठबंधन और वाम मोर्चा को पटखनी दी। दिलचस्प बात यह है कि प्रद्योत देबबर्मा ने चुनाव से ठीक पहले टिपरा मोथा का गठन किया था।

प्रद्योत देबबर्मा त्रिपुरा के अंतिम माणिक्य शासक के पोते हैं जिन्होंने कम्युनिस्ट संगठन जन शिक्षा समिति (जेएसएस) की बढ़ती ताकत को कुचलने की कोशिश की थी। 1947 में बीर बिक्रम की मृत्यु के बाद, जेएसएस त्रिपुरा में राजनीतिक सत्ता हासिल करने के करीब था। माणिक्य परिवार शिलांग भाग गया, लेकिन भारतीय संघ में राजशाही के विलय के बाद पूरी राज्य मशीनरी कांग्रेस के नियंत्रण में चला गया और जेएसएस की मोर्चाबंदी नेपथ्य में चली गई। जेएसएस के नेता भूमिगत हो गए और पहली कम्युनिस्ट पार्टी, त्रिपुर जातीय गण मुक्ति परिषद की स्थापना की। पार्टी का बाद में अविभाजित कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया में विलय हो गया, बाद में गण मुक्ति परिषद सीपीएम के भीतर एक आदिवासी शाखा बन गई।

माणिक सरकार के नेतृत्व में सीपीएम ने न केवल माणिक्य अतीत को खत्म करने की कोशिश की बल्कि राजनीतिक परिदृश्य से मतभेद की राजनीति को खत्म करने के लिए चौतरफा युद्ध भी किया। माणिक्य अतीत और पहचान की राजनीति, दोनों 2018 और 2013 में वाम मोर्चे को परेशान करने के लिए वापस आ गए। वाम और पहचान की राजनीति की एक द्वंद्वात्मकता राजा की वापसी और अलगाव के आह्वान को समझने के लिए शुरुआती बिंदु हो सकती है।

(जनचौक की रिपोर्ट।)

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