उतरा एसटीएफ के जवान का खुमार, वरिष्ठ पत्रकार सुभाष राय से घर जाकर मांगी माफी

जनचौक ब्यूरो

(पिछली 10 जून को जनसंदेश टाइम्स के संपादक और वरिष्ठ पत्रकार सुभाष राय के साथ एसटीएफ के दो जवान बदतमीजी से पेश आए थे। अपने घर पर हुई इस घटना को सुभाष राय ने फेसबुक पर साझा किया था। खबर सामने आने के बाद लखनऊ से लेकर दिल्ली तक पत्रकार और साहित्यिक बिरादरी में तीखी प्रतिक्रिया हुई थी। उसके खिलाफ लखनऊ समेत कई जगहों पर लोग सड़कों पर भी उतरे थे। अब इस मामले में खबर आ रही है कि जवान ने सुभाष राय के घर जाकर बहुत सारे लोगों की मौजूदगी में माफी मांग ली है। सुभाष राय ने इस पूरे प्रकरण की जानकारी अपने फेसबुक वाल पर शेयर की है। पेश है उनकी पूरी पोस्ट-संपादक)

“मैं उनके प्रायश्चित पर भरोसा करना चाहता हूँ”

मनुष्य है तो ग़लतियाँ करेगा ही। जो ग़लतियाँ नहीं करता, वह मनुष्य नहीं हो सकता। यह बात जितनी सही है, उतनी ही सही यह बात भी है कि जो अपनी ग़लतियों से सीखता नहीं, उन्हें दुहराने से बचता नहीं, ग़लतियों को ही जीवन का सच मानने लगता है, उन्हें जिद के साथ, बलपूर्वक या पशुवत दूसरों पर थोपने लगता है, वह भी मनुष्य नहीं हो सकता। मनुष्य बने रहने के लिए यह बहुत ज़रूरी है कि अपनी ग़लतियों को पहचानने, उन्हें सहजता के साथ स्वीकार करने, उनसे सबक़ लेने और जीवन में उन्हें न दुहराने का संकल्प अपने भीतर से ही फूटे। अगर यह स्वतः स्फूर्त होता है तो व्यक्ति को मनुष्य बनाए रखने में मदद करता है और अगर यह किसी दबाव में, डर से, किसी कूटनीति के साथ नियोजित होता है तो वह आगे और भी ख़तरों के साथ वापस लौटता है।

पिछले दस जून को मेरे घर पर जो कुछ भी हुआ था, उसका पूरा ब्योरा अपनी समूची पीड़ा के साथ मैंने यहीं अपने मित्रों से साझा किया था। मैं चकित हुआ था, मेरे प्रति उमड़े समर्थन को देखकर। मुझे पहली बार लगा था कि मैंने जीवन में कुछ कमाया है। इतने मित्र, इतने चाहने वाले, मुझे आप सबने भावुक कर दिया था। जिसके साथ इतने लोग हों, उसके लिए बड़ी से बड़ी लड़ाई भी मामूली और छोटी हो जाती है। अगले दिन लख़नऊ में सब लोग जुटे मेरे साथ गांधी प्रतिमा पर। सब लोग कहने का मेरा एक ख़ास आशय है। साहित्य में, पत्रकारिता में और लेखन में सक्रिय लोगों में तमाम असहमतियाँ हैं, होनी भी चाहिए, बुद्धिजीवी हमेशा सहमत होते भी नहीं लेकिन इस मसले पर शहर के बुद्धिजीवी, कलाकार, लेखक, साहित्यकार, सामाजिक कार्यकर्ता और पत्रकार सभी सहमत और लड़ाई को आख़िरी मुक़ाम तक ले जाने को तत्पर थे।

इसी नाते उस दिन जो एकजुटता दिखी, वह असाधारण थी। वह मेरे प्रति समर्थन से ज़्यादा अनावश्यक जिद, हठ, अन्याय और ज़ुल्म के ख़िलाफ़ थी। केवल राजधानी में ही नहीं तमाम जिलों में भी सैकड़ों साथी जुटे और आवाज़ उठायी, अपील की कि इस मामले में सत्ता संरचनाएं दख़ल दें और उचित क़दम उठाएं। उसका असर भी हुआ, अगले दिन घटना के सामने आते ही सख़्त कार्रवाई हुई। मैंने अपनी बात लिखकर थाने में दी और पुलिस से रपट लिखने का आग्रह किया। दर्जनों दैनिक, साप्ताहिक समाचारपत्रों में प्रमुखता से ख़बरें प्रकाशित हुईं, टेलीविज़न चैनलों पर चलीं।

मेरे सभी दोस्त, सहयोगी, पत्रकार और साहित्यकर्मी बहुत नाराज़ थे। मुझे विश्वास नहीं हो रहा था कि जिनको मैं जानता नहीं था, जिनसे कभी मिला नहीं था, ऐसे कई क़ानून के जानकारों ने मुझसे सम्पर्क किया और आश्वस्त किया कि मैं जब कहूं वे अपने ख़र्चे पर लख़नऊ में रुक कर इस लड़ाई को लड़ेंगे। मुझे अब इस बात पर यक़ीन करने में आसानी हो रही है कि विधर्मियों से कहीं बहुत अधिक ऐसे लोग हैं, जो सच, न्याय और वाजिब अधिकार की लड़ाई में किसी का भी साथ देने को तैयार रहते हैं।

मैंने देखा कि मेरे समेत जब सब लोग ग़ुस्से में थे और इस बात से नाराज़ हो रहे थे कि पुलिस रपट क्यों नहीं दर्ज कर रही है, तब मेरे एक लेखक मित्र ने फ़ेसबुक पर सलाह दी कि अब जब ग़लती करने वाले को सज़ा मिल गयी है, सुभाष को थोड़ा बड़ा होकर उन्हें माफ़ कर देना चाहिए। मैंने देखा किस तरह कई लोग उन पर झपट पड़े थे लेकिन भीतर से मुझे भी उनकी बात विचारणीय लगी। जीवन में अगर कोई समाज के लिए कुछ कर रहा हो तो उसके लिए व्यक्तिगत लड़ाइयों का कोई मतलब नहीं होता। ऐसी लड़ाइयों में कोई जीत या कोई हार नहीं होती और अगर होती भी है तो सामाजिक जीवन में उसका कोई मायने नहीं होता। कई बार जीतकर भी आप तब हारे हुए महसूस करते हैं, जब देखते हैं कि व्यर्थ की एक लड़ाई में जीवन के कई महत्वपूर्ण और मूल्यवान वर्ष आप के हाथ से निकल गए।

मैं इस पर सोच ही रहा था कि पुलिस की ओर से कुछ इसी तरह का प्रस्ताव आया। मुझे बताया गया कि वे दोनों अपनी ग़लती के लिए पश्चाताप करना चाहते हैं, क्षमा-याचना करना चाहते हैं। मैंने बहुत साफ कहा, यह मामला अब केवल मेरा नहीं रह गया है, मेरे मित्रों, लेखकों और पत्रकारों का भी हो गया है। अगर वे दोनों लोग दुखी हैं तो उन्हें सबके सामने क्षमा माँगनी पड़ेगी। इतना कह सकता हूँ कि उन दोनों लोगों ने अपनी ग़लती सबके सामने स्वीकार की और आगे उसे न दुहराने का संकल्प जताया। 20 जून की शाम मेरे आवास पर, मेरे मित्रों की मौजूदगी में राकेश तिवारी और रणजीत राय, दोनों आए और उन्होंने वादा किया कि आगे वे ऐसी ग़लतियाँ नहीं करेंगे। मुझे भरोसा है कि उन्होंने ये बातें दिल से कही होंगी।

इस मामले को तर्कसंगत परिणति तक ले जाने और इसके सकारात्मक समाधान का श्रेय मैं लखनऊ के पुलिस कप्तान दीपक कुमार जी को देना चाहूँगा। उन्होंने बहुत ही समझदारी, शालीनता और व्यवहारिक कुशलता के साथ इसका सकारात्मक पटाक्षेप कराया। उनके साथ उनके सहयोग में बीके राय लगातार खड़े रहे। मैं अपने जीवन में संदेह कम भरोसा ज़्यादा करता रहा हूं। इससे मुझे ज़्यादा ज़रूरी चीज़ों पर ध्यान केंद्रित करने और ग़ैर ज़रूरी चीज़ों को भूलकर आगे बढ़ने में मदद मिलती है। मैं इस बार भी भरोसा करना चाहता हूं कि दोनों ने हृदय से माफ़ी मांगी होगी।

इस मौक़े पर मेरे आवास पर पत्रकारिता और साहित्य के क्षेत्र में काम करने वाले तमाम मित्र मौजूद थे। प्रसिद्ध कृषि वैज्ञानिक और शब्दिता के सम्पादक डा राम कठिन सिंह, अट्टहास के सम्पादक और वरिष्ठ पत्रकार अनूप श्रीवास्तव, कथाकार और हिंदी के विद्वान देवेन्द्र, वरिष्ठ पत्रकार और वायस आफ लख़नऊ के सम्पादक रामेश्वर पांडेय, इंडिया इनसाइड के सम्पादक अरुण सिंह, वरिष्ठ अधिवक्ता सत्य प्रकाश राय, चीफ़ स्टैंडिंग कौंसिल राजेश्वर त्रिपाठी, कवि और चिंतक भगवान स्वरूप कटियार, प्रखर युवा कथाकार किरण सिंह, वरिष्ठ कथाकार प्रताप दीक्षित, वरिष्ठ पत्रकार आशीष बागची, वरिष्ठ पत्रकार विनय श्रीकर, युवा लेखक आशीष, कवयित्री ऊषा राय, युवा आलोचक विनयदास, जनसंदेश टाइम्स के महाप्रबंधक विनीत मौर्य, वरिष्ठ पत्रकार स्नेह मधुर, वरिष्ठ पत्रकार मनीष श्रीवास्तव, वरिष्ठ पत्रकार एम. प्रभाकर समेत तमाम साथी उपस्थित थे। मैं उम्मीद करता हूं कि जो भी लोग इस लड़ाई में एक क़दम भी मेरे साथ चले, वे सभी इस निर्णय में अपने को शरीक मानेंगे।

(सुभाष राय वरिष्ठ पत्रकार और लखनऊ से प्रकाशित जनसंदेश टाइम्स के संपादक हैं।)

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