उत्तराखंडः लॉकडाउन के बाद बढ़ गया मानव-पशु संघर्ष

उत्तराखंड में तीन महिलाओं और एक मासूम बच्चे को बाघ या तेंदुए ने मार डाला। कई लोग घायल हुए हैं। नैनीताल और अल्मोड़ा जिले के बहुत से इलाकों में आजकल हिंसक वन पशुओं का आतंक फैलता जा रहा है। इसी लाकडाउन में मानव और मानव जन्य गतिविधियों के कम होने से वन्य पशुओं को जो स्वच्छंद विचरण करने का अवसर मिला है, उससे मनुष्यों पर खतरे की संभावनाएं बढ़ गई है।

उदाहरण के तौर पर काठगोदाम और हल्द्वानी का क्षेत्र हिंसक वन पशुओं के हमलों से अभी तक सुरक्षित था। हल्द्वानी नगर क्षेत्र से दूर पूर्व में गौला नदी के पार या पश्चिम में वनभूमि से सटे ग्रामीण क्षेत्र में इक्का दुक्का घटनाएं कभी-कभार हो जाती थीं। वन पशुओं और विशेषकर बाघ और तेंदुए के मानव पर हमला करने की घटनाएं नहीं होती थीं।

हाथियों द्वारा ग्रामीण क्षेत्र में घुसकर फसल उजाड़ने और नुकसान करने की घटनाएं होती थीं। कभी कभार गुस्सैल हाथी की चपेट में आदमी भी आ जाते थे। बाघ या तेंदुए के आदमखोर होने की घटनाएं हल्द्वानी काठगोदाम क्षेत्र में पिछले 60-70 साल में नहीं सुनी गईं थीं।

पिछले दो महीने में तीन महिलाओं को तेंदुए और बाघ ने मारा डाला। एक महिला को हाथी ने मार दिया। अल्मोड़ा के ग्रामीण क्षेत्र में आतंक मचाने वाले तेंदुए को शिकारियों नें मार दिया है। काठगोदाम क्षेत्र में आतंक फैलाने वाले बाघ और तेंदुआ अभी तक नहीं मारे गए हैं। उसे आदमखोर घोषित करने और शिकारियों द्वारा मारे जाने का आर्डर देने से पहले पिंजड़े में फंसाने की बहुत कोशिशें कीं।

सोनकोट गांव के पास बाघ ने पहली महिला का शिकार किया था। उस वारदात वाली जगह पर पिंजड़े लगाने के बाद भी वह बाघ पकड़ में नहीं आया। पहले यह कहा गया था कि यह वारदात तेंदुए ने की है, लेकिन कैमरा ट्रैप में इसके बाघ होने की पुष्टि हुई है।

इस घटना के 13 दिन बाद दूसरी महिला को बाघ/तेंदुए ने गौला बैराज इलाके में मार दिया। इसके बाद आम जनता में रोष को देखते हुए वन विभाग ने इस बाघ/तेंदुए को आदमखोर घोषित करके मारने के आदेश दे दिए।

तीन सप्ताह बाद भी वन विभाग के लाइसेंसी शिकारी बाघ या तेंदुए को नहीं मार सके। बताते हैं कि शिकारी की गोली तेंदुए को लगी है, लेकिन जिस तरह तेंदुआ लोगों को नजर आ रहा है उस को देखकर नहीं लगता कि वह घायल है। अब लोगों द्वारा बाघ देखे जाने से मामला और उलझ गया है।

इस बीच इन हिंसक पशुओं को जगह जगह देखे जाने की घटनाएं हुई हैं। काठगोदाम-हल्द्वानी नगर निगम के कुछ इलाकों में आजकल अंधेरा होते-होते लोग घरों में सिमट रहे हैं। रानीबाग, ठाकुरद्वारा, प्रतापगढ़ी, डेवलढूंगा, नई बस्ती, ब्योरा आदि इलाकों में शाम से ही फायरिंग और पटाखों की आवाज शुरू हो जाती है।

उधर शहर के अन्य क्षेत्रों, कठघरिया फतेहपुर रामपुर रोड और गौलापार आदि इलाकों में भी बाघ और तेंदुए को देखे जाने की घटनाएं हुई हैं। नैनीताल काठगोदाम के बीच गांवों में लम्बे समय से बाघों और तेंदुओं की मौजूदगी है। बाघ और तेंदुए लोगों पर झपटे भी हैं। 27 जुलाई को ही नैनीताल से आते हुए दो मोटरसाइकिल सवारों पर बाघ झपटा तो दोनों किसी तरह भागकर बचे।

असल में इन इलाकों में बाघ और तेंदुओं की मौजूदगी पिछले चार-पांच साल में बढ़ गई है। कुछ साल पहले रानीबाग में नैनीताल रोड के भीमताल चौराहे पर देखे गए एक मादा तेंदुए के साथ दो‌ शावकों के फोटो सोशल मीडिया पर वायरल हुई थी। उसके बाद से आबादी से सटे वनों में तेंदुओं को देखे जाने की घटनाएं बढ़ गई थीं।

तेंदुए के शहरी आबादी में घुसने की घटनाएं पहले कभी नहीं हुई थीं। लाकडाउन में मानव गतिविधियों के कम होने और वाहनों की आवाजाही न्यूनतम होने से तेंदुओं को आबादी में घुसने का अवसर मिल गया।

जहां-जहां बाघ या तेंदुए आबादी क्षेत्र में घुसे हैं, वहां एक बात आम दिखाई दे रही है। वह यह कि वहां आवारा कुत्तों की बड़ी संख्या रही थी। काठगोदाम में, जिससे पश्चिम में लगे सोनकोट गांव में तेंदुए या बाघ ने एक महिला को मारा है वह इलाका पहाड़ी गधेरे से मिला हुआ है। जहां से आसानी से वन पशुओं की आवाजाही हो रही है। यहीं से वह घुसकर वे आवारा कुत्तों को अपना शिकार बना रहे हैं।

इसी अप्रैल से ही बस्तियों के आवारा और घरेलू कुत्तों के कम होने की घटनाएं हो रही थीं। यह पता भी लग गया था कि तेंदुआ कुत्तों को मार कर ले जा रहा है।

अप्रैल में एक रात बच्चा उठा ले जाने की अफवाह भी उड़ी थी। 23 जून को तेंदुए ने एक महिला पर हमला किया तब लोगों को स्थिति की गंभीरता पता चली। तेंदुए द्वारा कुत्ता ले जाने की एक घटना नैनीताल में भी हुई है।

असल में इस इलाके (काठगोदाम-नैनीताल के बीच) का उत्तर पश्चिमी और दक्षिणी भाग नेशनल कार्बेट पार्क से जुड़ा हुआ है। ऐसा भी समझा जाता है कि पार्क के पशु वहां से बाहर आ जाते हैं। 2018 की गणना के अनुसार कार्बेट नेशनल पार्क सहित उत्तराखंड में 442 बाघ हैं। 2006 में इनकी संख्या 178 थी। अकेले कार्बेट नेशनल पार्क में 231 बाघ बताए जा रहे हैं। तेंदुओं आदि की गिनती नहीं होती है।

अनुमान है कि पिछले 15 सालों में इनकी गिनती भी बाघों की तरह लगभग ढाई गुना बढ़ी होगी। ऐसे में यह आसानी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि वन पशुओं की बढ़ती संख्या ही उसके फैलाव का कारण है। इससे मानव-पशु संघर्ष बढ़ रहा है, न कि मानव द्वारा अतिक्रमण करने से यह संघर्ष हो रहा है।

देश भर में हर साल औसतन 500 लोगों की जान हाथियों की वजह से ही चली जाती है। 2016 से 2018 तक 135 से ज्यादा लोगों की जान बाघ के हमले की वजह से चली गई। उत्तराखंड में 2017-18 में वन्य जीवों ने 12,546 पशुओं को निवाला बनाया था और 1497.779 हेक्टेयर फसल को नुकसान पहुंचाया है। 74 मकान भी पशुओं द्वारा तोड़े गए हैं।

नेशनल कार्बेट पार्क से लगे क्षेत्र में यह समस्या लम्बे समय से चली आ रही थी। अब यह समस्या फ़ैल गई है। पार्क में जैसे जैसे पशुओं की संख्या बढ़ रही है, वैसे-वैसे मानव-पशु संघर्ष की घटनाएं भी बढ़ रही हैं।

इन सब से सबसे अधिक प्रभावित मुख्यत: ग्रामीण प्रभावित हो रहे हैं। इनकी आर्थिकी खेती, बागबानी व पशुपालन है। हालांकि आदमखोर या हिंसक पशुओं से मानव हत्या का मुआवजा मिलना कोई समस्या का समाधान नहीं है, लेकिन मरहम के लिए बनी मुआवजा नीति और उसकी प्रक्रिया भी प्रभावित ग्रामीणों के अनुकूल नहीं है।

वन पशुओं से किसी व्यक्ति की मौत पर मुआवजा बहुत कम चार लाख रुपये है। इसे दोगुना करने का प्रस्ताव लम्बे समय से विचाराधीन है। जले में नमक यह है कि मुआवजा प्रभावित व्यक्ति या परिवार को लम्बे समय तक नहीं मिलता। इसकी विभागीय प्रक्रिया महीनों और बरसों लम्बी है। इससे यह मुआवजा भी बेकार हो जाता है।

इसी तरह पालतू पशुओं के मारने और पशुओं द्वारा खेती नष्ट करने और घर तोड़ने के मुआवजे के दावे सालों तक लटके रहते हैं।

इस समय पूरे प्रदेश के किसान वन पशुओं द्वारा खेती-बाड़ी नष्ट किए जाने से परेशान होकर खेती छोड़ रहे हैं। बंदर, सुअर, नीलगाय और हाथी, खेती किसानी से लेकर मनुष्य के दुश्मन बने हुए हैं। ऐसे में सरकार से जो सहारा मिल सकता था वह नहीं मिल रहा है। हिमाचल सरकार ने बंदरों से उपद्रव ग्रस्त इलाकों में बंदर मारने की अनुमति देकर किसानों के हित में काम किया है।

ऐसी ही व्यवस्था उत्तराखंड में हो जाए जिससे जीवन जीने लायक परिस्थिति हों सके, तो यह प्रदेश की आर्थिकी और विकास के लिए बेहतर होगा। अन्यथा बढ़ते हुई वन पशुओं की संख्या के कारण लोग यहां तक कहने को मजबूर हो रहे हैं कि पशुओं से यदि सुरक्षा नहीं दिलाई जा सकती है तो मनुष्यों को सुरक्षित बाड़े में बंद करवा दिया जाए।

यह मांग भी उठ रही है कि चूंकि उत्तराखंड में 71% वन क्षेत्र हो गया है जोकि राष्ट्रीय औसत से अधिक है तथा राज्य में पर्वतीय कृषकों की औसत जोत भरण के लायक नहीं बची है, इसलिए कुछ वन वनक्षेत्र को राजस्व क्षेत्र में बदल कर उसे कृषि कार्य के लिए अवमुक्त कर दिया जाए।

  • इस्लाम हुसैन
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