कोरोना मरीजों को बचाते-बचाते खुद शहीद हो गए आरिफ

आरिफ खान की मौत हो गई। हिंदू राव अस्पताल में वे उसी कोविड से जंग हार गए जिससे सैकड़ों मरीजों की जान बचाने में उन्होंने मदद की थी। वे कोई वीआईपी नहीं थे। दिल्ली-एनसीआर में मुफ्त आपातकालीन सेवा उपलब्ध कराने वाले शहीद भगत सिंह सेवा दल के साथ काम कर रहे आरिफ अस्पताल के बाहर अपनी एंबुलेंस में ही रह रहे थे।

इसलिए कि कहीं उनकी वजह से इनके परिजन न संक्रमित हो जाएं, पिछले छह महीनों से आरिफ खान उत्तर-पूर्वी दिल्ली के सीलमपुर स्थित अपने घर नहीं गए थे। वे अपने घर से मात्र 28 किलोमीटर दूर एंबुलेंस पार्किंग में ही चौबीसों घंटे आपातकालीन फोन कॉल पर उपलब्ध रहते थे। 21 मार्च को अपने कपड़े लेने के लिए वे घर आए थे, तब से वे घर वालों से केवल फोन पर ही संपर्क में रहे। वे अपने परिवार की रोजी-रोटी का एकमात्र स्रोत थे। लॉक डाउन के चलते उनका बड़ा बेटा भी बेरोजगार हो चुका है।

48 वर्षीय आरिफ दरअसल चुपचाप भगत सिंह के सपनों का भारत रच रहे थे। कोविड की भयावहता के बीच जिस समय लोग संक्रमण के डर से अपने परिजनों और प्रियजनों से भी कतराने लगे थे ऐसे दौर में भी आरिफ बिना किसी की जाति या धर्म पता किए हुए न केवल कोविड मरीजों को उनके घरों से अस्पताल और अस्पतालों से घर पहुंचा रहे थे, बल्कि कोविड से मरने वालों के शवों को भी उनके अंतिम संस्कारों के लिए पहुंचा रहे थे। बहुत सारे मृतकों के परिजनों के पास अंतिम संस्कार के पैसे नहीं होते थे तो आरिफ खान उनकी पैसे से भी मदद करते रहे। बहुत सारे मृतकों के परिजन खुद भी क्वारंटीन होते थे, अतः उनके शवों के पास कोई होता ही नहीं था, ऐसे शवों के, उनके धर्म के अनुरूप ससम्मान अंतिम संस्कार की व्यवस्था भी आरिफ और उनकी टीम करती थी।

जिस समय सरकारी दूरदर्शन मध्यवर्ग को उनके घरों में मनोरंजन के लिए धार्मिक गाथाओं पर बने धारावाहिक परोस रहा था उस समय आरिफ इंसानियत का सच्चा धर्म रच रहे थे। हमने लॉक डाउन के शुरुआती दौर में भी देखा कि जब राज्य मशीनरी ने बिना कोई तैयारी किए करोड़ों लोगों को अपने हाल पर छोड़ दिया था, तब भी हजारों गुमनाम लोगों और संगठनों ने पैदल चल रहे प्रवासियों की अपने निजी प्रयासों से यथासंभव मदद की। वे लोग अपनी नन्हीं-नन्हीं कोशिशों से हमें समझा रहे थे कि धर्म वह नहीं है जो भीतर ड्राइंग रूमों में टीवी पर दिखाया जा रहा है, बल्कि असली धर्म यह है जो बाहर सड़कों और रेल पटरियों के किनारे अपने साथी नागरिकों के लिए बिस्किट, पानी, केले और चप्पल-जूतों की व्यवस्था कर रहा है।

आरिफ खान और उनका संगठन भी हमारे नए बन रहे भारत के ऐसे ही गुमनाम प्रयासों की एक कड़ी है। आज हमारे समाज को सत्ता के लोभियों ने सांप्रदायिकता की प्रयोगशाला बना दिया है। सत्ता-प्रायोजित नफ़रतों की विराटकाय मशीनें दिन-रात जहर उगल रही हैं। धर्मों में से उनके मूल तत्व करुणा और प्रेम गायब हो चुके हैं और उनकी लाशों को हथियार बनाकर अपने ही नागरिकों को एक-दूसरे के खिलाफ लड़वाया जा रहा है। ऐसे घटाटोप अंधेरे समय में आरिफ खान जैसे दृष्टांत जुगनुओं की मानिंद हैं। ये नफरतों की आंधियों से संघर्ष करते मुहब्बतों के चंद दिये हैं जो निरंतर मुरझाती हुई मनुष्यता के भविष्य के प्रति उम्मीद को मरने नहीं देते।

(शैलेश स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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