27 साल बाद जवाहरलाल नेहरू विवि छात्रसंघ को कोई दलित अध्यक्ष मिलने वाला है!

जेएनयू छात्रसंघ चुनाव की प्रक्रिया शुरू है। यूनाइटेड लेफ्ट पैनल के अध्यक्ष पद के उम्मीदवार- धनंजय, छात्र समुदाय के बीच काफी चर्चा में हैं। 1996-97 में जेएनयूएसयू के अध्यक्ष रहे बत्ती लाल बैरवा के बाद से जेएनयूएसयू में कोई दलित अध्यक्ष नहीं बना है। आज देश की राजनीतिक परिस्थिति को देखते हुए, जहां दलित समाज सामंती- ब्राह्मणवादी हमले के सबसे बुरे दौर का शिकार हैं, ऐसे में धनंजय की जीत बेहद महत्वपूर्ण होगी।

धनंजय ऑल इंडिया स्टूडेंट्स एसोसिएशन (आइसा) से जुड़े हैं और दिसंबर 2014 से सक्रिय राजनीति में हैं, जब दिल्ली विश्वविद्यालय में चार वर्षीय स्नातक कार्यक्रम (एफवाईयूपी) के खिलाफ संघर्ष शुरू हुआ था। फिलहाल वह स्कूल ऑफ आर्ट्स एंड एस्थेटिक्स, जेएनयू से पीएचडी कर रहे हैं।

छह भाई-बहनों में सबसे छोटे, धनंजय बिहार के उस गया जिला से आते हैं, जो एक गहरी सामंती समाज के रूप में जाना जाता है। ज़ाहिर है उन्होंने जातिगत भेदभाव का प्रकोप झेला। समाज के इस भेदभावपूर्ण घटना ने उन्हें अच्छी शिक्षा के प्रति जुझारू बनाया ताकि किसी और को उनके जैसा भेदभाव का सामना न करना पड़े। उनके गांव में 20 घर हैं और जो गुरारू के बाहर वाले इलाक़े में है, जहां वह अपने माता-पिता और भाई-बहनों के साथ रहते थे।

उनके पिता एक सेवानिवृत्त पुलिसकर्मी है, जिन्हें ग्रामीणों के हाथों जातिगत भेदभाव का सामना करना पड़ा। उन्हें केवल उनकी जाति के नाम से संबोधित किया जाता था और एक पुलिसकर्मी के रूप में उनकी भूमिका के लिए उचित सम्मान नहीं दिया जाता था। इन्हीं अनुभवों के चलते उनके पिता ने उनसे इंजीनियरिंग करने को कहा, ताकि धनंजय अपना जीवन सम्मान के साथ जी सकें। भले ही धनंजय का शैक्षणिक रिकॉर्ड अच्छा था, फिर भी उन्हें सरकारी कॉलेज में दाखिला नहीं मिल सका और निजी शिक्षा उनके परिवार के दायरे से बाहर थी।

हालांकि, आर्थिक तंगी का जीवन जी रहे परिवार ने शिक्षा को प्राथमिकता दी। धनंजय कहते हैं, “सामाजिक न्याय की अवधारणा हमारे समाज में स्वीकृत नहीं है। हमारी योग्यता पर हमेशा सवाल उठाए जाते हैं और इसी तरह हमारे अकादमिक रिकॉर्ड और रुचियों पर भी सवाल उठाए जाते हैं।”

चूंकि दिल्ली विश्वविद्यालय एससी समुदाय के छात्रों के लिए रियायती और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के लिए जाना जाता था, इसलिए उन्होंने श्री अरबिंदो कॉलेज में राजनीति विज्ञान में वर्ष 2014 में बीए में प्रवेश लिया। इसके बाद, उन्होंने 2019 में अंबेडकर विश्वविद्यालय से परफ़ॉर्मेंस स्टडीज़ में स्नातकोत्तर की पढ़ाई की, जो दलितों के लिए रियायती शिक्षा भी प्रदान करता है, और बाद में उन्होंने जेएनयू के आर्ट्स एंड एस्थिटिक्स स्कूल से थिएटर और परफ़ॉर्मेंस स्टडीज़ में एम.फिल पूरा किया।

राजनैतिक एक्टिविज्म

उन्होंने अपनी स्कूली शिक्षा रांची (झारखंड) के सरस्वती शिशु मंदिर से पूरी की। यह स्कूल आरएसएस द्वारा संचालित माना जाता है। अपने स्कूल में ही उन्होंने देखा कि कैसे हिंदुत्व की राजनीति को मध्यम स्वरों में प्रचारित किया जा रहा है, जिसमें धर्मनिरपेक्षता की कोई गुंजाइश नहीं थी। उन्होंने यह भी देखा कि कैसे छोटे बच्चों में नफरत और विभाजन की भावना पैदा करने के लिए आरएसएस की शाखाएं चलाई जाती थी। हिंदुत्व विचारधारा के जातिगत वर्चस्व को देखते हुए, दलित समुदाय से आने वाले धनंजय को भी अपने स्कूल के दिनों में जातिगत भेदभाव का अनुभव हुआ।

आरएसएस द्वारा संचालित ऐसे स्कूलों में बच्चों के बीच नफरत की विचारधारा पैदा करने की तमाम कोशिशों के बावजूद, धनंजय जैसे कुछ लोग हैं जो अपने जीवन के शुरुआती दिनों से ही एक वैकल्पिक दुनिया का सपना देखते रहे हैं। धनंजय ने अखबारों में बिहार और झारखंड में आदिवासी और दलित लोगों के संघर्ष के बारे में पढ़ा, जिसका नेतृत्व सीपीआई-एमएल (भाकपा-माले) कर रही है। उन्होंने देखा कि किस तरह आदिवासियों की जमीनों पर राज्य और कॉरपोरेट्स ने कब्जा जमा रहा है और गरीब लोगों के घरों को बेरहमी से ध्वस्त किया जा रहा हैं।

उन्होंने सीपीआई-एमएल के बयान पढ़े जो आदिवासियों और उनके साथ हुए अन्याय के खिलाफ हाशिए पर मौजूद लोगों के लिए लड़ रहे थे। चूंकि उनका तालुक बिहार के ग्रामीण क्षेत्र से है और उन्होंने झारखंड में अपनी स्कूली पढ़ाई की, इसलिए वह सीपीआई-एमएल के नेतृत्व वाले वर्ग और जाति-विरोधी संघर्षों से प्रेरित हुए। इससे ही डीयू में उनके बैचलर्स के दौरान उन्हें AISA में शामिल होने में मदद की।

जब AISA ने 2014 में FYUP के खिलाफ लड़ाई शुरू की, तो यह मुद्दा धनंजय को भी प्रभावित किया। उन्होंने देखा कि एफवाईयूपी का गरीब और हाशिए पर रहने वाले छात्रों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा, क्योंकि इसका मतलब था- शुल्क में वृद्धि। सीपीआई-एमएल से प्रेरित होने के कारण, धनंजय के लिए आइसा के साथ जुड़ना स्वाभाविक था और ‘रोलबैक एफवाईयूपी’ अभियान का नेतृत्व करने लगा था। अपने शुरुआती दिनों में ही उन्होंने डीयू में आइसा के आंदोलनों में नेतृत्वकारी भूमिका निभाया। जब डीटीसी के लाल बस में छात्र-छात्राओं के लिए बस पास मान्य कराने हेतु ज़बरदस्त आंदोलन हुआ तो उन्होंने सैकड़ों छात्रों को इकट्टा सफल आंदोलन का नेतृत्व किया। आइसा के नेतृत्व में यह एक विजयी आंदोलन रहा।

धनंजय कहते हैं, ”मैंने लेफ्ट की राजनीति इसलिए की क्योंकि मेरा मानना है कि वर्ग और जाति का संघर्ष एक साथ लाकर ही हम अपने समाज से जाति को खत्म कर पाएंगे। मैं नहीं चाहता कि मेरे साथ जो भेदभाव हुआ, वह बरकरार रहे। मैं समाज को बदलना चाहता हूं, जो सभी छात्रों को समान और सस्ती शिक्षा और हमारे युवाओं को सम्मानजनक रोजगार प्रदान करें।’’

जेएनयू में दाख़िला उनका सपना था और नवंबर 2020 में, जो एम.फिल का उनका पहला दिन था, धनंजय ने आइसा के नेतृत्व वाले ‘री-ओपन जेएनयू’ विरोध प्रदर्शन में भाग लिया। जिसमें मांग की गई कि मार्च 2020 के लॉकडाउन के दौरान जिन छात्रों को घर वापस भेज दिया गया था, उनको वापस बुलाया जाए और कैंपस को छात्रों के लिए फिर से खोला जाए।

इस दौरान जेएनयू को एक किले में तब्दील कर दिया गया, जिससे छात्रों का कैंपस में लौटना असंभव हो गया। लॉकडाउन के दौरान, डिजिटल विभाजन की कठोर वास्तविकता सामने आई, जिससे छात्रों के पठान-पठान पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा। इस संघर्ष ने परिसर के स्वरूप को महत्वपूर्ण रूप से बदल दिया। वह जून-जुलाई 2021 में ‘अनलॉक जेनयू’ आंदोलन के हिस्से के रूप में छात्र डीन के कार्यालय में आयोजित 21 दिवसीय धरने का हिस्सा थे, जहां वह ऑफ़लाइन कक्षाएं एवं छात्रों के लिए छात्रावास आवंटन की मांग करते हुए दिन-रात टेंट में रहे। लॉकडाउन के दौरान वह अपने अन्य आइसा एक्टिविस्टों के साथ जेएनयू कर्मचारियों के अधिकारों के संघर्ष में भी साथ खड़े रहें।

वह सफाई कर्मचारियों की सुरक्षित कामकाजी परिस्थितियों के लिए अपनी आवाज उठाने से लेकर और लॉकडाउन की आड़ में संविदा कर्मचारियों की छंटनी के खिलाफ तथा प्रवासी श्रमिकों, झुग्गी-झोपड़ियों के निवासियों और अन्य अनौपचारिक श्रमिकों तक आवश्यक राहत सामग्री, जैसे राशन, सुरक्षा गियर, ऑक्सीजन सिलेंडर और दवाएं पहुंचाने के लिए आइसा की कोविड हेल्पडेस्क की पहल में भी शामिल रहें।

सांस्कृतिक एक्टिविज़्म

सफदर हाशमी, गद्दर और कबीर कला मंच से प्रेरित होकर धनंजय एक लेखक, कवि और थिएटर कलाकार बन गए। दिल्ली स्थित सांस्कृतिक मंडली ‘संगवारी’ के साथ उन्होंने क्रांतिकारी नाटक लिखे और गीतों की रचना की, जिसे प्रतिरोध के रूप में प्रस्तुत किया गया और श्रमिक वर्ग का राजनीतिकरण करने के लिए इसका इस्तेमाल किया गया। 2019 की डीटीसी हड़ताल के दौरान, धनंजय ने एक नुक्कड़ नाटक ‘मशीन’ का प्रदर्शन करके हड़ताली कर्मचारियों की भावना को ऊंचा रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने देश भर में 8,000 से अधिक नुक्कड़ नाटकों की यात्रा और प्रदर्शन किया है। उन्होंने दिल्ली भर की बस्तियों में नियमित रूप से नुक्कड़ नाटक किए हैं।

वह कहते हैं, “संस्कृति राजनीति और समाज के बीच की दूरी को पाटती है। यह आम जनता तक पहुंचने का सबसे बेहतर माध्यम है। लोग संगीत और रंगमंच जैसी अभिव्यंजक कलाओं की भाषा समझते हैं।” उनका मानना ​​है कि सांस्कृतिक सक्रियता के माध्यम से लोगों को जाति और लैंगिक मुद्दों के बारे में सूचित किया जा सकता है और बदलाव भी लाया जा सकता है। उन्होंने तमिलनाडु में प्रिकोल के मजदूरों को गलत तरीके से कैद करने को लेकर साबरमती ढाबा, जे.एन.यू. में प्रदर्शन किया।

चाहे वह राजनीतिक सक्रियता हो या सांस्कृतिक सक्रियता, धनंजय जेएनयू के लिए एक सपना देखते हैं, जो इसकी जीवंत लोकतांत्रिक संस्कृति का पोषण करेगा, जहां छात्र सक्रिय रूप से बहस, असहमति और चर्चा में भाग लेते हैं। वह छात्र समुदाय के प्रति अथक संघर्ष और प्रतिबद्धता की गौरवशाली विरासत को संरक्षित करना चाहते हैं। वह सामाजिक न्याय और एक समावेशी परिसर के लिए लड़ने, शिक्षा के व्यावसायीकरण और कॉर्पोरेट अधिग्रहण के खिलाफ, यौन हिंसा और लैंगिक भेदभाव के खिलाफ लड़ने और कैंपस लोकतंत्र की रक्षा के लिए प्रतिबद्ध हैं।

(जनचौक की रिपोर्ट)

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