कृषि कानूनों के बाद अब क्या चारधाम देवस्थानम बोर्ड की बारी ?

हाल ही में देश के 14 राज्यों में सम्पन्न हुये उपचुनावों के मामूली से नतीजे केन्द्र में सत्ताधारी मोदी सरकार को इतना जोर का झटका देगी, इसकी कल्पना शायद ही किसी ने की होगी। अकल्पनीय इसलिये भी कि अपने निर्णयों से पीछे हटना प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की फितरत में नहीं है। निर्णयों से पीछे हटने का मतलब, लौह पुरुष वाली छवि को धूमिल करना। लेकिन राजनीति में कुछ भी असंभव नहीं होता। हुआ भी वही और पूरे 12 महीनों की शाम, दाम और दण्ड-भेद की जद्दो जहद के बाद अन्ततः मोदी सरकार किसानों के आन्दोलन के आगे झुक ही गयी।

इससे पहले उपचुनाव नतीजों के तत्काल बाद केन्द्र सरकार ने पेट्रोल के दामों में 5 रुपये और डीजल के दामों में 10 रुपये की कटौती कर दी थी, जिसका असर कई राज्य सरकारों पर भी पड़ा। हिमाचल प्रदेश के उपचुनावों में मात्र 3-4 सीटों का सवाल था लेकिन अब 5 राज्यों की विधानसभाओं के आम चुनाव का सवाल है और उन राज्यों में राजनीतिक दृष्टि से अति महत्वपूर्ण राज्य उत्तर प्रदेश भी है। इसलिये अब कभी खबर आ सकती है कि करोड़ों सनातन धर्मावलम्बियों के आस्था के केन्द्र बदरीनाथ-केदारनाथ आदि धामों को नियंत्रित करने वाले विवादित चारधाम देवस्थानम् बोर्ड को समाप्त कर दिया गया है। इस विवादित बोर्ड के कानून का विरोध तो किसान आन्दोलन से पहले से हो रहा है, जिससे प्रधानमंत्री मोदी पूरी तरह वाकिफ हैं। इसे भी सत्ताधारियों ने प्रतिष्ठा का विषय मान रखा है।

प्रधानमंत्री मोदी की यात्रा से ठीक पहले केदारनाथ में बवाल

यद्यपि चार धाम देवस्थानम् बोर्ड या उसके अधिनियम को प्रधानमंत्री मोदी या केन्द्र सरकार से कोई सीधा सम्बन्ध नहीं है। यह राज्य सरकार का बोर्ड है जिसे राज्य सरकार ने दिसम्बर 2019 में विधानसभा से पास करा कर उसका गठन 15 जनवरी 2020 को किया था। यह बोर्ड बारीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री और यमुनोत्री समेत देवभूमि उत्तराखण्ड के 53 प्रमुख मंदिरों के प्रबंधन के लिये बना है, जिसका विरोध इन धर्मस्थलों के पण्डे पुजारी शुरू के दिन से ही कर रहे हैं। इस विवाद की पूरी जानकारी प्रधानंत्री मोदी एवं गृहमंत्री अमित शाह को है। विरोध भी इतना कि गत 5 नवम्बर को प्रधानमंत्री मोदी की केदारनाथ यात्रा से ठीक 4 दिन पहले पण्डा-पुरोहितों ने उत्तराखण्ड के पूर्व मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र सिंह रावत को मंदिर के पास तक न फटकने दिया और काले झण्डे दिखा कर उन्हें बिना दर्शन के ही बैरंग लौटा दिया।

उसी दिन प्रधानमंत्री की यात्रा की तैयारियों का जायजा लेने गये भाजपा प्रदेश अध्यक्ष मदन कौशिक और कैबिनेट मंत्री धनसिंह रावत को भी पण्डों के भारी विरोध का सामना करना पड़ा। चर्चा यहां तक है कि इस मुद्दे को लेकर जो पण्डे ज्यादा उग्र थे या जिनका झुकाव कांग्रेस जैसे विरोधी दलों की ओर था उन्हें प्रधानमंत्री के केदारनाथ पहुंचने से पहले ही केदारनाथ से बाहर कर दिया गया। उस दौरान केदारनाथ क्षेत्र के कांग्रेसी विधायक मनोज रावत को भी केदारनाथ प्रवेश करने नहीं दिया गया।

किसानों की तरह पण्डों को भी मोदी ने समझाने का प्रयास किया

अगर प्रधानमंत्री मोदी को इस मुद्दे की जानकारी नहीं होती तो वह अपने भाषण में पण्डे-पुजारियों को इतना अधिक महत्व नहीं देते। उन्होंने इस वर्ग को मनाने/लुभाने के लिये उनकी कठिनाइयों का जिक्र करते हुये कहा कि वह अपनी तपस्या के दिनों में गरीब पण्डों को सर्दियों की कड़ाके की ठण्ड में ठिठुरते देखते थे। प्रधानमंत्री एकानेक बार कह चुके हैं कि उन्होंने गृह त्याग करने के बाद कई साल केदारनाथ के निकट सन्यासी की तरह तपस्या की है। चारधाम बोर्ड के प्रति पण्डों का गुस्सा शान्त करने के लिये उन्होंने कहा कि सरकार उनके लिये आरामदायक आवास बना रही है जिनमें उनके आरामदायक आवास भी होंगे और जजमानों को ठहराने और उनके लिये पूजा पाठ आदि के लिये भी व्यवस्था होगी।

चारधाम बोर्ड के खिलाफ चल रहा आन्दोलन क्षेत्रीय और राष्ट्रीय स्तर के अखबारों में छाया रहता है। स्वयं भाजपा सांसद सुब्रमण्यम स्वामी हाइकोर्ट में बोर्ड के खिलाफ पैरवी करने के बाद इसे सुप्रीम कोर्ट तक ले गये। यह मामला आरएसएस मुख्यालय नागपुर तक पहुंच चुका है। इसलिये प्रधानमंत्री की जानकारी में यह विवाद न होना नामुमकिन ही है। बावजूद इसके इस मामले को लेकर इस कानून को बनाने वाले मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र रावत को मोदी-शाह का खुला समर्थन न होता तो हिन्दू धर्म से संबंधित कोई कानून उत्तराखण्ड ही नहीं बल्कि देश के किसी भी भाजपा शासित राज्य में नहीं बन सकता था।

कृषि कानूनों के बाद चारधाम बोर्ड का विसर्जन तय

चूंकि चारधाम बोर्ड का मामला सीधे हिन्दू धर्म से संबंधित है और धर्मावलम्बी इससे प्रसन्न नहीं हैं क्योंकि इन पवित्रतम् हिमालयी तीर्थों के पुजारी बोर्ड के गठन के सख्त खिलाफ हैं। वे इसको अपने परम्परागत हक हुकूकों पर अतिक्रमण और धर्मस्थलों का सरकारीकरण मानते हैं। इसलिये यह भाजपा की राजनीति से भी मेल नहीं खाता है। अब जबकि संसद द्वारा पारित किये गये वे तीन कानून भी समाप्त करने की घोषणा हो गयी जबकि इन कानूनों को प्रधानमंत्री की प्रतिष्ठा से जोड़ कर नाक का विषय बना दिया गया था, तो चारधाम बोर्ड कानून को वापस लेना तो बायें हाथ का खेल है। इसे तो केवल राज्य विधानसभा ने ही पारित किया है और भाजपा का कोर वोटर ग्रुप इसके खिलाफ है। यह विषय भाजपा की चुनावी संभावनाओं को भी प्रभावित करता है।

तिरुपति और वैष्णो देवी बोर्डों की नकल बेतुकी थी

दरअसल चारधाम देवस्थानम् बोर्ड का कानून वैष्णो देवी और तिरुपति की व्यवस्थाओं की नकल कर बनाया गया था। जबकि इन दो पवित्र स्थलों और हिमालयी चार धामों की परम्पराओं, पूजा पद्धतियों, भौगोलिक परिस्थितियों और ऐतिहासिक परिवेश में कहीं भी और कोई भी साम्य नहीं है। ऐसा ही प्रयास जबकि तिरुपति के मामले में पहले किया गया तो वहां भी सरकारी हस्तक्षेप का भारी विरोध हुआ और अन्ततः सरकार को अपनी थोपी हुयी व्यवस्था में सुधार करना पड़ा। आदिगुरू शंकराचार्य द्वारा सनातन धर्म की रक्षा के लिये देश के चार कोनों में स्थापित चार सर्वोच्च धार्मिक पीठों में से एक पीठ ज्योतिर्पीठ बदरीनाथ में है। शेष पीठों में से पूरब में जगन्नाथ पुरी (उड़ीसा) पश्चिम में द्वारका (गुजरात) और दक्षिण में रामेश्वरम् (तमिलनाडू) में हैं। इसलिये बदरीधाम की तुलना इन शेष तीन धामों से ही हो सकती है।

हिमालयी चारधामों की तिरुपति से कोई समानता नहीं

हिमालयी चारों धाम केवल ग्रीष्मकाल में 6 माह के लिये खुलते हैं जबकि तिरुपति और वैष्णो देवी श्रद्धालुओं के लिये साल भर खुले रहते हैं। वैष्णो देवी और तिरुपति में वंशानुगत पुजारी होते हैं। जबकि बदरीनाथ में केरल का नम्बूदरीपाद ब्राह्मण रावल और केदारनाथ में कर्नाटक का वीर शैव जंगम लिंगायत रावल होता है जो स्वयं पूजा नहीं करता। बदरीनाथ में गर्भगृह से लेकर तप्तकुण्ड और नजदीक के मंदिरों में पुजारी और हकहुकूकधारी अलग-अलग हैं। मसलन गर्भगृह के लिये रावल वेतनभागी मुख्य पुजारी है। डिमरी लोग वंशानुगत पुजारी हैं तो वेदपाठी और धार्माधिकारी मंदिर समिति के वेतनभोगी हैं। तप्तकुण्ड के निकट देवप्रयाग के पण्डे पूजा करते हैं। बदरीनाथ एक मोक्षधाम भी है जहां ब्रह्मकपाल में देश विदेश के लोग अपने पित्रों का पिण्डदान करते हैं। पंचबदरी (पांच बदरीनाथ) एवं पंचकेदार (पांच केदार) नाम से इनकी अपनी ऋंखला है। तिरुपति और वैष्णो देवी में श्राइन क्षेत्र हैं जहां उनके बोर्ड द्वारा यात्रा सुविधाएं विकसित की जाती हैं। उत्तराखण्ड के चारधाम बोर्ड के कोई श्राइन क्षेत्र नहीं हैं। पता नहीं कहां यात्री सुविधाएं विकसित करेंगे?

नौकरशाहों के भारी बोझ तले दबा है देवस्थानम् बोर्ड

देवस्थानम् बोर्ड पर नौकरशाहों का इतना बड़ा बोझ डाल दिया है कि बोर्ड यात्री सुविधाएं विकसित करे या न करे मगर नौकरशाहों के बोझ तले अवश्य ही डूब जायेगा। वैष्णो देवी में उपराज्यपाल की अध्यक्षता वाले बोर्ड में केवल एक मुख्य कार्यकारी के अलावा अन्य आईएएस अफसर नहीं हैं। वहां अध्यक्ष सहित कुल 10 सदस्य हैं, जो कि उपराज्यपाल द्वारा धर्म, संस्कृति सहित विभिन्न क्षेत्रों की हस्तियां हैं। इसी प्रकार तिरुपति बोर्ड में भी गिने चुने ही नौकरशाह हैं। उसमें जनता के प्रतिनिधि, विधायक और सांसद ज्यादा हैं। लेकिन बदरी-केदार का देवस्थानम् बोर्ड अपने आप में पूरी सरकार है, जिसके 8 पदेन सदस्यों में से 6 आईएएस अफसर हैं। इस बोर्ड में पदेन सदस्यों के अलावा 18 मनोनीत सदस्य हैं।

मतलब यह कि सत्तधारी दल के लोगों को पुनर्वासित करने के लिये पर्याप्त गुंजाइश है। इनके अलावा उच्च प्रबंधन समिति में मुख्य कार्याधिकारी सहित कुल 15 आईएएस रखे गये हैं, जिनमें 11 प्रमुख सचिव स्तर के वरिष्ठ अफसर हैं। अफसरों की इतनी बड़ी फौज केवल परिवार समेत बदरी-केदार के दर्शन करने के बाद देहरादून में बैठ कर ही चारधाम यात्रा का प्रबंधन करेगी। यही कारण है कि चारों हिमालयी धामों के पण्डे पुजारी 2019 से ही बोर्ड का उग्र विरोध कर रहे हैं। कुछ दिन पहले ही वे आगामी विधानसभा चुनाव में अपने प्रत्याशी खड़े करने का ऐलान कर मोदी सरकार को चेतावनी दे चुके हैं।

गैरसैंण में होगा चारधाम देवस्थानम् बोर्ड का विसर्जन

अगामी 3 दिसम्बर से ग्रीष्मकालीन राजधानी भराड़ीसैंण में राज्य विधानसभा का सत्र होने जा रहा है। यह इस विधानसभा का अंतिम सत्र होगा इसीलिये उसे भराड़ीसैण में आहूत किया जा रहा है। प्रदेश में सत्तारूढ़ दल को वैसे ही एण्टी इन्कम्बेंसी का डर सता रहा है। यहां अब तक बारी-बारी से भाजपा और कांग्रेस चुनाव जीतती रही हैं और उस हिसाब से इस समय कांग्रेस की बारी है। इसलिये इस सत्र में सत्ता बचाने के लिये कुछ ऐसे फैसले हो सकते हैं जो कि भाजपा की चुनावी नैया को पार लगा सकें। उन्हीं में से एक चार धाम देवस्थानम् बोर्ड के एक्ट का विसर्जन भी एक हो सकता है।

(जयसिंह रावत वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल देहरादून में रहते हैं।)

जयसिंह रावत
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