उत्तराखंड के जोशीमठ के बाद अब इनपर मंडरा रहा है ख़तरा

उत्तराखंड के जोशीमठ में आपदा के बाद लोगों को अब सोचना पड़ रहा है कि आखिरकार उत्तराखंड सहित देश के कुछ अन्य हिस्सों में प्रतिवर्ष घटित होने वाले प्राकृतिक आपदाओं को कैसे रोका जा सकता है? ऐसे में तेजी के साथ बढ़ते अनियोजित शहरीकरण और प्रकृतिक संसाधनों का दोहन ही जोशीमठ जैसे घटनाक्रम के जहां कारक माने जा रहे हैं तो वहीं दूसरी ओर प्रबुद्ध वर्ग के लोगों का मानना है कि जब तक अनियोजित शहरीकरण और प्राकृतिक संसाधनों के दोहन का क्रम थमता नहीं है तब तक देश को ऐसे ही प्राकृतिक विपदाओं को झेलना होगा। जोशीमठ घटनाक्रम के बीच, कई विशेषज्ञों ने जोशीमठ पर पुरानी रिपोर्टों पर प्रकाश डाला है। वहीं लोग घरों और होटलों के बढ़ते बोझ, तपोवन विष्णुगढ़ एनटीपीसी पनबिजली परियोजना सहित मानव निर्मित कारकों को दोष दे रहे हैं। हालांकि, जोशीमठ अकेला नहीं है जो ऐसी आपदा को झेल रहा है। पहाड़ी राज्य उत्तराखंड में इसी तरह की और भी आपदाएं आ रही हैं। पौड़ी, बागेश्वर, रुद्रप्रयाग, उत्तरकाशी, टिहरी और गढ़वाल का भी यही हश्र हो सकता है। जहां के लोगों को जोशीमठ जैसे हालात का डर बना हुआ है। गौर करें तो कुछ समय पहले तक उत्तराखंड राज्य का रैनी गांव प्राकृतिक आपदाओं के लिए सुर्खियों में रहा करता था और अब, पास का ही जोशीमठ सुर्खियों में है। बहरहाल, प्रशासन वहां से लोगों को सुरक्षित स्थानों पर पुनर्स्थापित करने की कवायद में है और विशेषज्ञ इसके कारणों पर गौर कर रहे हैं।

इस मसले पर अपनी प्रतिक्रिया देते हुए अंजल प्रकाश, अनुसंधान निदेशक और सहायक एसोसिएट प्रोफेसर, भारती इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक पॉलिसी, इंडियन स्कूल ऑफ बिज़नेस कहते हैं, “जोशीमठ एक बहुत ही गंभीर अनुस्मारक है कि हम अपने पर्यावरण के साथ इस हद तक खिलवाड़ कर रहे हैं जो अपरिवर्तनीय है। जलवायु परिवर्तन एक वास्तविकता बन रहा है। जोशीमठ समस्या के दो पहलू हैं, पहला है बड़े पैमाने पर बुनियादी ढांचे का विकास जो हिमालय जैसे बहुत ही नाज़ुक पारिस्थितिकी तंत्र में हो रहा है और यह पर्यावरण की रक्षा करने में और साथ ही उन क्षेत्रों में रहने वाले लाखों लोगों के लिए बुनियादी ढांचे लाने में हमें सक्षम करने की ज़्यादा योजना प्रक्रिया के बिना हो रहा है। दूसरा, जलवायु परिवर्तन एक बल गुणक है। भारत के कुछ पहाड़ी राज्यों में जलवायु परिवर्तन जिस तरह से प्रकट हो रहा है वह अभूतपूर्व है।

मसलन, 2021 और 2022 उत्तराखंड के लिए आपदा के साल रहे हैं। भूस्खलन को ट्रिगर करने वाली उच्च वर्षा की घटनाओं जैसी कई जलवायु जोखिम घटनाएं दर्ज की गई हैं। हमें सबसे पहले यह समझना होगा कि ये क्षेत्र बहुत नाज़ुक हैं और पारिस्थितिकी तंत्र में छोटे बदलाव या गड़बड़ी से गंभीर आपदाएं आएंगी, यही हम जोशीमठ में देख रहे हैं। वह कहते हैं “वास्तव में, यह इतिहास का एक विशेष बिंदु है जिसे याद किया जाना चाहिए कि क्या किया जाना चाहिए और हिमालय क्षेत्र में क्या नहीं किया जाना चाहिए? मुझे पूरा विश्वास है कि जोशीमठ की धंसने की घटना जल विद्युत परियोजना के कारण हुई है जो सुरंग के निर्माण में चालू थी और निवासियों के लिए चिंता का प्रमुख कारण थी। इसने दिखाया है कि जो पानी बह निकला है वह एक खंडित क्षेत्र से है जो सुरंग द्वारा छिद्रित किया गया है और जो उस विनाशकारी स्थिति की ओर ले जाता रहा है जिसमें आज हम हैं।

कहीं उत्तराखंड जैसे हालात उत्तर प्रदेश में भी तो नहीं

उत्तराखंड में प्रतिवर्ष उत्खनन की होने वाली समस्या, उत्तराखंड के ही जोशीमठ में धरती के फटने, भवनों इत्यादि में दरार पड़ने के घटनाक्रम से हर कोई चिंतित है। ऐसी चिंताओं से उत्तर प्रदेश के कुछ धार्मिक शहर और पौराणिक नगरी जो नदी और पहाड़ों से घिरे हुए हैं भी अछूते नहीं हैं। गौर करें तो नदियों के किनारे बसे उत्तर प्रदेश के पौराणिक ऐतिहासिक शहरों में प्रयागराज, वाराणसी जो प्रधानमंत्री का संसदीय क्षेत्र भी है, से लगाए मिर्जापुर शहर इत्यादि कई ऐसे नाम है जो अपनी ऐतिहासिकता के साथ-साथ कई गंभीर चुनौतियों, समस्याओं से भी जूझ रहे हैं। जानकारों का मानना है कि यदि जोशीमठ जैसे आपदाओं से सीख लेते हुए इनकी सुरक्षा के प्रति भी मुकम्मल व्यवस्था नहीं की गई तो वह दिन दूर नहीं जब इन शहरों को भी ऐसी ही समस्याओं से जूझना पड़ सकता है। फर्क सिर्फ इतना ही होगा कि जोशीमठ में धरती फटने की घटनाएं घटित हुई है तो यहां गंगा नदी से नुकसान हो सकता है।

जोशीमठ जैसे हालात विंध्यक्षेत्र में भी ना हो जाए उत्पन्न

उत्तराखंड के जोशीमठ में प्राकृतिक आपदाओं का जो मंजर देखने को मिल रहा है वैसे ही प्राकृतिक आपदाओं के उत्पन्न होने की संभावनाओं से विंध्य क्षेत्र के लोग भी सहमे हुए हैं। कभी प्राकृतिक संपदा से परिपूर्ण मसलन जंगल, पहाड़ों एवं गंगा नदी सहित सहायक पहाड़ी नदियों से परिपूर्ण रहने वाला विंध्य क्षेत्र कालांतर में वीरान होता जा रहा है। जंगलों पहाड़ों का अस्तित्व तेजी के साथ समाप्त होता जा रहा है। संरक्षण के नाम पर किए जा रहे महज खानापूर्ति का असर यह है कि एक दशक पूर्व तक पहाड़ों और जंगलों का विशाल स्वरूप जो विंध्य क्षेत्र में देखने को मिला करता था अब वह नहीं रहा। सर्वाधिक चिंता विंध्य क्षेत्र के पर्वत को लेकर जताया जा रहा है जो इन दिनों अवैध खनन की गिरफ्त में है। खनन माफिया इसके पौराणिकता को भी दरकिनार करते हुए इस पहाड़ को भी समाप्त करने पर तुले हुए हैं।

अखिल भारत रचनात्मक समाज के राष्ट्रीय अध्यक्ष समाजसेवी विभूति कुमार मिश्र विंध्य क्षेत्र के पर्वत तथा नदियों के स्वरूप को लेकर न केवल चर्चा करते हैं बल्कि चिंता प्रकट करते हुए कहते हैं कि “विंध्य क्षेत्र के पर्वत जिस प्रकार से धीरे-धीरे समाप्त होते जा रहे हैं उससे इस क्षेत्र के अलग-अलग गांवों की जमीन प्रभावित होने के साथ ही साथ कई प्रकार के प्राकृतिक आपदाओं से भी घिरते जा रहे हैं। मसलन, आकाशीय बिजली के गिरने का खतरा, भूकंप, जलवायु परिवर्तन इत्यादि समस्याएं उत्पन्न होने की आशंका प्रबल हो चली है। उदाहरण के तौर पर वह गंगा नदी की ओर इशारा करते हुए बताते हैं की गंगा नदी प्रयागराज से चलकर विंध्याचल क्षेत्र से गुजरते हुए मिर्जापुर शहर से होते हुए काशी वाराणसी की ओर प्रस्थान करती हैं। यहां गंगा नदी पूरब की तरफ जाने की बजाय ज्यादातर दक्षिण शहर की तरफ बढ़ रही हैं इससे प्रतिवर्ष कटान का खामियाजा लोगों को भुगतना पड़ रहा है। गंगा नदी की धारा लहरें दक्षिण शहर की तरफ बढ़ने से शहर और पहाड़ों के अस्तित्व को खतरा बना हुआ है। मिर्जापुर शहर के बाद गंगा नदी ऐतिहासिक चुनार किले से होते हुए वाराणसी की ओर प्रस्थान करती हैं जिनकी लहरों से प्रतिवर्ष चुनार किले का भूभाग टकराने के साथ-साथ कई गांव एवं गंगा के तटवर्ती गांव नगर पहाड़ इत्यादि भी टकराते हैं जिनके नियोजन की कोई ठोस पहल ना होने से यह खतरा बढ़ता ही जा रहा है।

विंध्यक्षेत्र के पहाड़ों में होने वाली ब्लास्टिंग: यह हो सकता है खतरा

प्राकृतिक आपदाओं से उत्तर प्रदेश का पहाड़ी भू-भाग भी अछूता नहीं है। फर्क सिर्फ इतना है कि उत्तराखंड में जहां प्रतिवर्ष प्राकृतिक आपदाओं से वहां के लोगों को जूझना पड़ जाता है ठीक उसी प्रकार यहां के लोगों को खासकर मिर्जापुर-सोनभद्र जनपदों में प्राकृतिक आपदा के तौर पर आकाशीय बिजली का कहर, नदियों का सूखता हुआ जल स्रोत, अब आरक्षण की समस्या इत्यादि प्रमुख बताई जाती है। कभी इन दोनों जनपदों को भारत के पूर्व प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने मिनी स्विट्जरलैंड की संज्ञा से नवाजते हुए इनके प्राकृतिक मनोहारी सौदर्य का वर्णन किया था तो उसके पीछे कुछ कारण थे। वह यह था जंगलों पहाड़ों से परिपूर्ण यह जनपद वन्यजीवों से भी हरा भरा था।

लेकिन अनियोजित शहरीकरण और प्रकृतिक संसाधनों के दोहन की भूख ने इसके विशाल स्वरूप, सौंदर्य को नष्ट करने का जो सिलसिला प्रारंभ किया हुआ अनवरत आज भी जा रही है। कालांतर में हरे-भरे जंगलों पहाड़ों नदियों इत्यादि के स्थान पर वीरान पड़े जंगल और पहाड़ सूखी पड़ी नदियां ही नजर आती है कभी इन जंगलों में जो बेशुमार दुर्लभ वन्यजीवों को दौड़ते हुए देखा जा सकता था वह अब विलुप्त हो चुके हैं। इसके प्रमुख कारण पहाड़ों में अवैध खनन ब्लास्टिंग, हरे पेड़ों, जंगलों की धड़ल्ले से हो रही कटाई जिम्मेदार माने जा रहे हैं। गौर करने की बात है कि पहाड़ों में ब्लास्टिंग (विस्फोट करने) से न केवल सड़क के साथ की ढलान कमज़ोर हो जाती है, बल्कि भारी उत्खनन से उत्पन्न विस्फोट और कंपन का आवेग संभवतः ऊपर की ओर प्रसारित होता है। इस लिए, भू-वैज्ञानिक पहाड़ों को बड़े पैमाने पर यांत्रिक उत्खनन और विस्फोट के अधीन करने से पहले भू-वैज्ञानिक और संरचनात्मक स्थिरता के एक महत्वपूर्ण मूल्यांकन की दृढ़ता से अनुशंसा करते हैं।

वरिष्ठ पत्रकार अंजान मित्र विंध्य क्षेत्र के पहाड़ों की दुर्दशा पर गहरी चिंता जताते हैं वह कहते हैं ” जोशीमठ आपदा के बाद शासन-प्रशासन को विंध्य क्षेत्र के पहाड़ों पर भी एक नजर अवश्य डालनी चाहिए, ताकि निकट भविष्य में उत्पन्न होने वाली आपदाओं को समय रहते रोकने के साथ ही सक्षम उपाय किए जा सकें, ताकि जोशीमठ जैसी विपदा से यहां कोई यहां के लोगों को दो-चार ना होना पड़े।”

(संतोष देव गिरि की रिपोर्ट)

संतोष देव गिरी
Published by
संतोष देव गिरी