आदिवासियों की हत्या के बाद मध्य प्रदेश की गरमाई राजनीति

गौमांस के नाम पर मुसलमानों के बाद हिन्दुत्ववादियों की हिंसा का शिकार अब तक आदिवासी अधिक हुए हैं, चाहे वे झारखंड के हों या मध्यप्रदेश के। हमलावरों का कनेक्शन भाजपा से ही रहा है।

हाल की घटनाओं का जिक्र करें तो पिछले 2 मई को मध्य प्रदेश के सिवनी जिले के सिमरिया गांव में गौमांस की तस्करी की आशंका का बहाना बनाकर बजरंग दल के समर्थकों ने तीन आदिवासियों को लाठियों से इतना पीटा कि, मौके पर दो आदिवासियों की मौत हो गई और एक गंभीर रूप से घायल हो गया जिसे अस्पताल में भर्ती कराया गया। मरने वालों में सागर और सिमरिया गांव के 54 वर्षीय धानशाह और 60 वर्षीय संपत बट्टी थे।

वैसे तो इस मॉब लिंचिग में शामिल 12 आरोपियों पर पुलिस ने मामला दर्ज किया और 9 आरोपियों को हिरासत में लिया। इस मॉब लिंचिग में शामिल सभी बजरंग दल के कार्यकर्ता हैं। पकड़े गए आरोपियों में बादलपार कुरई निवासी शेरसिंह राठौर (28), वेदांत चौहान (18), अंशुल चौरसिया ( 22 ), रिंकू पाल (30) गोपालगंज विजयपानी कुरई लखन वाड़ा निवासी अजय साहू (27), दीपक अवधिया (38),बसंत रघुवंशी (32) रघुनंदन रघुवंशी (20), शिवराज (13) शामिल हैं।

घटनास्थल,जहां घटना हुई

बता दें कि घटना के बाद 3 मई की सुबह ही गुस्साए लोगों ने जबलपुर-नागपुर नेशनल हाईवे पर बैठकर प्रदर्शन किया। इससे सड़क पर लंबा जाम लग गया। सूचना मिलने पर बरघाट विधायक अर्जुन सिंह ककोडिया भी कुरई पहुंचे। उन्होंने भी आरोप लगाया है कि आरोपी बजरंग दल के कार्यकर्ता हैं। उन्होंने पुलिस से मांग की कि हत्या करने वालों पर सख्त कार्रवाई की जाए। भीड़ की मांग थी कि पीड़ित परिवार को नौकरी के अलावा एक करोड़ का मुआवजा दिया जाए।

अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक एसके मरावी ने बताया कि कुरई पुलिस स्टेशन में हत्या का मामला दर्ज किया गया है और पुलिस टीम आरोपियों की तलाश कर रही है। कुछ आरोपी नामजद हैं, कुछ अज्ञात हैं। हमने संदिग्धों को हिरासत में लिया है। पीड़ितों के घर से करीब 12 किलोग्राम मांस मिला है।

कुरई थाना प्रभारी गनपत सिंह उइके का कहना है कि मौके से मिला मांस जांच के लिए फॉरेंसिक लैब भेजा जा रहा है। आरोपियों को जल्द गिरफ्तार कर लिया जाएगा।

घायल पीटर केरकेट्टा

अब धीरे-धीरे इस घटना में आरोपियों के भाजपा से जुड़े कनेक्शन की बात सामने आ रही है। उल्लेखनीय है कि 10 अप्रैल 2019 को झारखंड के गुमला जिले के डुमरी ब्लॉक के जुरमु गांव के रहने वाले 50 वर्षीय आदिवासी प्रकाश लकड़ा को पड़ोसी जैरागी गांव के साहू समुदाय के बजरंग दल से जुड़े लोगों की भीड़ ने पीट-पीट कर मार दिया था। जबकि इस मॉबलिंचिंग में तीन अन्य पीटर केरकेट्टा, बेलारियस मिंज और जेनेरियस मिंज पिटाई के कारण गंभीर रूप से घायल हो गए थे।

अगर हम मध्य प्रदेश के सिवनी में बजरंग दल कार्यकर्ताओं द्वारा आदिवासी युवकों की बेरहमी से की गई हत्या की बात करें तो अब यह घटना प्रदेश में राजनीति का केंद्र बनती जा रही है। घटना के बाद पूरे देश में शिवराज सरकार की चौतरफा आलोचना हो रही है।

राज्य के आदिवासी नेता एवं यूथ कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष विक्रांत भूरिया ने मुख्यमंत्री को कहा है कि या तो आरोपियों के खिलाफ कार्रवाई करो या फिर कुर्सी छोड़ो।

खबर के मुताबिक मामला तूल पकड़ने के बाद सिवनी पुलिस ने इस घटना से जुड़े 14 आरोपियों को हिरासत में लिया है। सभी आरोपी RSS समर्थित बजरंग दल से जुड़े हुए हैं। लोग अब ये सवाल खड़े कर रहे हैं कि यहां आरोपियों के घर क्यों नहीं तोड़े गए। सोशल मीडिया यूजर्स का कहना है कि आरोपी बजरंग दल से थे इसलिए सिवनी प्रशासन को एक भी अवैध ईंट नहीं मिला। जबकि खरगोन में 24 घंटों के भीतर 49 संपत्ति तोड़े गए।

घाटल पीटर केरकेट्टा की पत्नी

बता दें कि प्रदेश में आदिवासी वर्ग के साथ दमन व उत्पीड़न की घटनाएं बढ़ती ही जा रही हैं। एनसीआरबी के आंकड़े बताते हैं की मध्य प्रदेश आदिवासी वर्ग के उत्पीड़न की घटनाओं में देश में नंबर वन है। इसके पूर्व नेमावर, खरगोन और खंडवा की भी जघन्य घटनाएं सामने आ चुकी हैं। इन सभी मामलों में आरोपियों के सत्ताधारी दल से कनेक्शन भी सामने आते रहे हैं। इस बार सिवनी में भी दो आदिवासियों की हत्या करने वालों को बीजेपी नेताओं का करीबी बताया जा रहा है। आदिवासी उत्पीड़न की घटनाओं को लेकर राज्य सरकार की चुप्पी गंभीर सवाल खड़े करती है।

कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी ने भी इस घटना को लेकर बीजेपी सरकार को निशाने पर लिया है। प्रियंका गांधी ने ट्वीट किया, ‘सिवनी (मप्र) में बजरंग दल (आरएसएस) के लोगों ने दो आदिवासियों की पीट-पीट कर हत्या कर दी। आरएसएस-भाजपा का संविधान व दलित-आदिवासियों से नफरत का एजेंडा आदिवासियों के प्रति हिंसा को बढ़ावा दे रहा है। हमें एकजुट होकर नफरत से भरे इस एजेंडे को रोकना होगा।’

पीसीसी चीफ कमलनाथ ने आरोप लगाया है कि आरोपियों को बचाने की कोशिशें हो रही हैं। उन्होंने मामले की सीबीआई जांच की मांग की है। उन्होंने एक ट्वीट थ्रेड में लिखा, ‘शिवराज जी, आपकी सरकार आगामी चुनावों को देखते हुए, पिछले कुछ समय से जनजातीय वर्ग को लुभाने के लिये, इनके महापुरुषों के नाम पर करोड़ों रुपये खर्च कर, भव्य आयोजन-इवेंट कर, ख़ुद को इस वर्ग का सच्चा हितैषी बनाने में लगी हुई है लेकिन बेहतर हो कि इन आयोजनों की बजाय आप आज जनजातीय वर्ग को पर्याप्त सम्मान व सुरक्षा प्रदान करें।’

बता दें कि चुनाव के मद्देनजर शिवराज सरकार और बीजेपी आदिवासी वोटबैंक को लुभाने के लिए हर संभव प्रयास कर रही है। बिरसा मुंडा जयंती पर आदिवासी गौरव दिवस से लेकर टंट्या भील बलिदान दिवस तक के समारोह कराने में सरकार ने करोड़ों रुपए पानी की तरह बहाए। हालांकि, इन समारोहों से आदिवासियों के जीवन में कोई तब्दीली नहीं आती क्योंकि जो पैसे आदिवासियों के कल्याण में खर्च होने थे उन पैसों को बड़े-बड़े सरकारी समारोहों और प्रचार प्रसार में खर्च कर दिए जाते हैं।

विधायक का विरोध प्रदर्शन

सीएम शिवराज आदिवासियों के साथ कभी नृत्य करते दिखते हैं तो कभी उनके पारंपरिक वेशभूषा पहनकर फोटो खिंचवाते दिखते हैं। आदिवासियों के कल्याण के बड़े बड़े दावे किए जाते हैं। मगर असली आदिवासी समाज कहीं बजरंग दल तो कहीं आरएसएस के मारपीट और ज़्यादती का शिकार हो रहा है तो कहीं सरकारी उपेक्षा का शिकार। कई वर्षों से सरकार ने एसटी छात्रों को मिलने वाला वज़ीफ़ा रोक रखा है। हाल ही में जबलपुर में आदिवासी छात्रों का एक जर्जर हॉस्टल गिर गया लेकिन प्रशासन ने फंड की कमी का हवाला देते हुए जर्जर भवन का मरम्मत तक नहीं कराया।

आदिवासी नेता विक्रांत भूरिया ने इसे बीजेपी का क्रोनोलॉजी करार दिया है। उन्होंने लिखा, ‘आप भाजपा की क्रोनोलॉजी समझिए: आश्वासन, प्रलोभन और फिर शोषण। शिवराज सिंह जी, गरीब, दलित और आदिवासी को कब तक सिर्फ वोट बैंक की तरह इस्तेमाल करेंगे आप?’

बताना जरूरी होगा कि मध्य प्रदेश में अगले साल नवंबर में विधानसभा के चुनाव होने हैं। राज्य में विधानसभा की 230 सीटों में से कम से कम 80 सीटों पर 1.5 करोड़ से अधिक आदिवासी समुदायों की निर्णायक भूमिका होती है। भाजपा 2018 के विधानसभा चुनाव में अनुसूचित जनजाति (आदिवासी) समुदायों के लिए आरक्षित 47 निर्वाचन क्षेत्रों में से केवल 16 जीतने में कामयाब रही, जो 2013 के 31 एसटी सीटों से कम थी। प्रदेश में 35 सामान्य सीटें हैं, जहां कम से कम 50,000 आदिवासी आबादी है। इसलिए आदिवासियों को लुभाकर अपने पाले में लाना बीजेपी के एजेंडे में सबसे ऊपर है, क्योंकि पार्टी विधानसभा चुनाव के लिए कमर कस रही है।

सत्तारुढ़ पार्टी के समर्थक माने जाने वाले असामाजिक तत्वों (बजरंग दल) द्वारा की गई जघन्य हत्या के बाद शिवराज सिंह सरकार की मंशा पर एक तरह से पानी फेर दिया है।

राज्य के आदिवासी इलाकों में इस बर्बरता को लेकर गुस्से की लहर है। वहीं इस वीभत्स घटना पर बीजेपी सरकार के खिलाफ आदिवासियों को लामबंद करने के लिए विपक्षी कांग्रेस हरकत में आ गई है। इस घटना ने मध्य प्रदेश के आदिवासी समुदाय के बीच सत्तारूढ़ बीजेपी की मजबूत पकड़ को एक तगड़ा झटका दिया है, जो राज्य की आबादी का 21 प्रतिशत हिस्सा है।

बताते चलें कि आदिवासियों के खिलाफ ऐसी घटनाएं मध्य प्रदेश में दशकों से खतरनाक स्थिति में बनी हुई हैं। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) के आंकड़ों पर भरोसा करें तो मध्य प्रदेश ने 2018 में कुल 4,753 ऐसे मामले दर्ज किए थे, जो 2019 में बढ़कर 5,300 हो गए और अगले साल यह आंकड़ा 6,899 तक पहुंच गया। जो लगभग 30 प्रतिशत की वृद्धि थी।

पिछले साल दिसंबर में राज्य सरकार ने स्वीकार किया कि विगत चार सालों में मध्य प्रदेश में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम – Scheduled Castes and Scheduled Tribes (Prevention of Atrocities) Act- के तहत 33,000 से अधिक मामले दर्ज किए गए। राज्य विधानसभा में गृह मंत्री नरोत्तम मिश्रा (Narottam Mishra) द्वारा उपलब्ध कराए गए आंकड़ों के मुताबिक, पिछले दो सालों में राज्य में यह संख्या बढ़ी है।

उल्लेखनीय है कि मार्च 2020 में बीजेपी द्वारा कमलनाथ के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार से सत्ता छिनने के बाद अत्याचार के मामलों में भारी वृद्धि दर्ज की गई है।

पिछले 19 सालों से बीजेपी राज्य में सत्ता में हैं, लेकिन आदिवासियों के खिलाफ बेरोकटोक अत्याचार हो रहे हैं। यह काफी हद तक इस कारण है कि हिंदुत्व की विचारधारा, आदिवासियों की अपनी संस्कृति और देवताओं के प्रति उनकी आस्था से मेल नहीं खाती।

कहना ना होगा कि दो आदिवासियों की मॉबलिंचिंग, भगवा संगठनों द्वारा राज्य के आदिवासियों को जबरन हिंदू बनाने के प्रयास का एक हिंसक कार्य प्रणाली है।

राज्य में अपने लंबे शासन काल के दौरान बीजेपी आदिवासियों को अपने तरीके से जीने का हमेशा से विरोधी रही है। सामंती प्रवृत्ति और सवर्ण हिंदू, जो अधिकांश बीजेपी से जुड़े हुए हैं, वे लोग न केवल आदिवासियों को परेशान करते हैं, बल्कि आदिवासी बहुल जिलों में उन्हें उनकी जमीन और चल संपत्ति से भी बेदखल कर देते हैं। सिवनी आदिवासी बहुल जिलों में से एक है। उक्त घटना संघ के फैलाए गये हिंदुत्व के जाल में आदिवासी समुदाय के नहीं फंस पाने की विफलता पर हताशा का एक दुखद परिणाम है।

दूसरी तरफ मध्य प्रदेश की भाजपा की सरकार आदिवासियों के खिलाफ हो रहे अत्याचारों को रोकने और उनमें सुरक्षा की भावना पैदा करने की बजाय, लोकलुभावन फैसलों के माध्यम से समुदाय को लुभाने का सहारा लिया है। इसी कड़ी में आदिवासी वोटों को आकर्षित करने के अभियान में पिछले साल सितंबर में केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने जबलपुर में आदिवासियों को उज्ज्वला योजना के तहत पांच लाख से अधिक एलपीजी (LPG) कनेक्शन वितरित किए और आदिवासी स्वतंत्रता सेनानियों शंकर शाह और रघुनाथ शाह के नाम पर छिंदवाड़ा यूनिवर्सिटी का नाम बदल दिया, जिन्होंने ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ 1857 के विद्रोह में भाग लिया था।

राज्य के आदिवासियों को अपने पक्ष करने के एजेंडे के एक और हिस्से के तहत पिछले साल 15 नवंबर को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जनजाति गौरव दिवस समारोह में भाग लिया और पूर्व आदिवासी रानी, रानी कमलापति के नाम पर भोपाल में हबीबगंज रेलवे स्टेशन का नाम बदल दिया।

अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव से पहले पार्टी आदिवासियों में अपनी पहुंच को बरक़रार रखने के लिए, इस साल 22 अप्रैल को अमित शाह सात महीने में मध्य प्रदेश की अपनी दूसरी यात्रा पर भोपाल आए। उन्होंने शहर के जंबोरी मैदान में वन उपज संग्राहक सम्मेलन (वन समिति सम्मेलन) का उद्घाटन किया और 18 लाख पत्ता संग्राहकों के बीच 67 करोड़ रुपये के तेंदू लीफ कलेक्शन का लाभांश वितरित किया। उन्होंने वनवासियों (जंगल में रहने वालों) को स्वामित्व अधिकार देने की भी घोषणा की, जिसमें 925 वन गांवों में से 827 को ‘ रेवन्यू’ विलेज में बदलना शामिल था।

अमित शाह की भोपाल यात्रा के एक हफ्ते बाद नई दिल्ली में बीजेपी की कोर कमेटी की बैठक हुई, जहां पार्टी अध्यक्ष जेपी नड्डा और संगठन महासचिव बीएल संतोष ने मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को बताया कि 2023 के विधानसभा चुनाव के लिए पार्टी की जीत की रणनीति में आदिवासी वोट सबसे महत्वपूर्ण हैं।

यह अलग बात है कि आदिवासियों को अपने पाले में लाने की बीजेपी की कोई भी कोशिश कामयाब होती नहीं दिख रही है।

क्योंकि राज्य के आदिवासी अपने संवैधानिक अधिकारों की बहाली चाहते हैं, जैसा कि पंचायत (अनुसूचित क्षेत्रों पर विस्तार) अधिनियम 1996 (PESA Act, 1996) के तहत प्रदान किया गया है। वे स्वतंत्रता संग्राम में आदिवासी नेताओं की भागीदारी को उजागर करने वाले स्मारकों और संग्रहालयों की स्थापना को महज प्रतीकवाद मानते हैं। आदिवासी नेता गुलज़ार सिंह मरकाम कहते हैं कि आदिवासियों के लिए सबसे बड़ा मुद्दा वन अधिकार अधिनियम, 2005 (FRA) को लागू न करना है। एफआरए (FRA) के तहत दायर एक लाख से अधिक दावे लगभग तीन वर्षों से लंबित हैं। वन अधिकारियों द्वारा आदिवासी परिवारों पर अचानक तेज हमले करने और उनकी फसल जलाने के मामले थमने का नाम नहीं ले रहे हैं। जबकि आदिवासियों की वास्तविक चिंताओं का समाधान नहीं हुआ है। वैसे में बीजेपी सरकार के लोकलुभावन घोषणाओं का कोई भी असर आदिवासियों पर नहीं पड़ने वाला है।

(वरिष्ठ पत्रकार विशद कुमार की रिपोर्ट।)

विशद कुमार
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